Laws :  इस शृंखला में 1947 के बाद की सरकारों की नीतियों और उन के दैनिक कामकाज, राजनीति या विदेशी मामलों और भ्रष्टाचार की समीक्षा नहीं की जा रही है. इस शृंखला का उद्देश्य यह परखना है कि 1947 के बाद केंद्र सरकार ने जो कानून बनाए या संविधान संशोधन किए उन से समाज सुधार हुआ तो वह क्या है. केवल सरकार चलाने के उद्देश्य से बनाए गए किसी कानून की समीक्षा नहीं की जा रही है, इस में वे कानून हैं जिन का जनता और समाज पर व्यापक असर पड़ा.

 क्या कानून हमेशा समाज सुधार का रास्ता दिखाते हैं या कभीकभी सत्ता के इरादों का मुखौटा बन जाते हैं? 2014 से 2024 के बीच बने कानूनों की तह में झांकें तो भारतीय लोकतंत्र की तसवीर कुछ अलग ही नजर आती है.

संसद का सब से प्रमुख कार्य कानून बनाना होता है. दूसरा, यह कि जनता के दैनिक मुद्दों और सरकार के कामकाज पर बहस हो सके. कानूनों के जरिए समाज में उठने वाले मतभेद और संघर्ष दूर किए जा सकते हैं तो वहीं जनता को विभाजित भी किया जा सकता है. यह सत्ता में बैठे लोगों के हाथों और उन के विवेक पर निर्भर है.

1947 के बाद सत्ता में बैठे लोगों के हाथों उन के विवेक से बने कानूनों को देखने सम?ाने के बाद यह कहा जा सकता है कि 2014 के पहले बने बहुत से कानूनों के जरिए समाज सुधार की दिशा में काफी काम हुआ. इस की चर्चा पिछली किस्तों में इस शृंखला में की गई है. इस शृंखला में उन कानूनों की बात नहीं की गई जो सरकार चलाने के लिए बनाए जाते हैं, उन कानूनों में ऐसे कानून भी थे जिन्होंने जनता के हक छीने थे पर इस शृंखला में उन की बात नहीं की गई है.

वर्ष 2014 से 2024 तक बहुमत में मौजूद हिंदुओं के लिए बने कानूनों में समाज सुधार का कोई कानून बना हो, यह पता करना मुश्किल काम है. सही समाज सुधार वाले कानून तब बनते जब संसद को लोकतांत्रिक तरीके से चलाया जाता. इस दौरान विपक्ष की आवाज को बंद करने का काम तो किया ही गया, सत्तापक्ष के सांसदों को भी किसी बिल या सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर बोलने का मौका नहीं मिला.

फैसलों की कोई समीक्षा न मंत्रिमंडल में हुई न संसद में

एक तरह से नरेंद्र मोदी की भारी बहुमत वाली सरकार का शासन वैसा ही रहा जैसा रामराज में था. बिना अपनी बात रखने का मौका दिए सीता का निष्कासन हुआ. लक्ष्मण को मृत्युदंड दिया गया. बिना भाइयों की मौजूदगी के राम का राज्याभिषेक करने की चेष्टा की गई. श्रवण कुमार की हत्या के लिए राजा दशरथ ने कोई दंड नहीं भोगा. शंबूक के वेद कंठस्थ करने पर दंड देने के लिए कोई पूछताछ नहीं की गई.

प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने सामान्य हिंदू राजाओं जैसे काम किए. उन के फैसलों की कोई समीक्षा मंत्रिमंडल में हुई संसद में. जो कहा, वही कानून बन गया. उन्होंने संसद के नए भवन का शिलान्यास और उद्घाटन राजाओं के जैसे खुद ही किया. यहां तक कि उन्होंने देश के सर्वोच्च नागरिक यानी महामहिम राष्ट्रपति को भी उन के दलित या आदिवासी होने के कारण इन अवसरों पर आगे नहीं रखा.

सैकुलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता को भुला कर अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास और उद्घाटन भी उन्होंने खुद ही किए. इन 10 सालों के दौरान नरेंद्र मोदी धार्मिक राजा के रूप में ही नजर आए. भारतीय जनता पार्टी, जो पहले जनसंघ के नाम से थी, के मूल मुद्दे जम्मूकश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना, अयोध्या में राममंदिर निर्माण और देश में समान नागरिक संहिता कानून लागू करना थे. नरेंद्र मोदी ने केंद्र में अपने 10 वर्षों के राज में इन पर ही काम किया. समाज सुधार का कानून उन की सरकार के लिए कोई मुद्दा नहीं था. ये काम समाज के सुधार के नहीं थे क्योंकि इन से रोजमर्रा के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ा.

संसद चली नहीं, कैसे बने कानून

2014 से 2019 तक चली 16वीं लोकसभा के दौरान कुल 17 सत्रों में 331 बैठकें हुईं. विपक्षी दलों के सांसदों के साथ सत्तापक्ष का व्यवहार ठीक होने के कारण गतिरोध बना रहा और हंगामे हुए. सो, 127 से ज्यादा घंटे हंगामों के भेंट चढ़ गए. नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने सवर्ण वोटबैंक को खुश करने के लिए 10 फीसदी गरीब सवर्णों को आरक्षण देने का काम इसी लोकसभा में किया. इसे सवर्णों के समाज सुधार का काम कहा जा सकता है.

इस के लिए संविधान में अनुच्छेद 15 (6) और 16 (6) को संशोधित किया गया. मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद आरक्षण 50 फीसदी हो गया था. उसे कम करने के लिए ऊंची जातियों के गरीबों के लिए यह 10 फीसदी आरक्षण लाया गया. एक तरह से यह सीमित समाज सुधार था क्योंकि सवर्णों की यह शिकायत बढ़ रही थी कि उन से ज्यादा संपन्न दूसरीतीसरी पीढ़ी के एससी और ओबीसी वाले आरक्षण पाने के बाद शिक्षा संस्थानों में प्रवेश ले सरकारी नौकरियां हासिल कर रहे हैं.

एक तरह से यह कदम गलत नहीं है क्योंकि चाहे इस से भाजपा के मूल वोटरों को ही संतुष्टि मिले, समाज में इन मुद्दों को ले कर विवाद रहे, यह गलत हैसरकार का काम किसी भी तरह समाज के हर बड़े हिस्से को संतुष्ट रखना होता है क्योंकि देश तभी उन्नति करता है. समर्थ, जातिगत उच्चता का भाव रखने वालों को लौलीपौप दे कर संसद के इस संशोधन से हजारों युवाओं को थोड़ा संतोष हुआ कि पिछड़ों और दलितों का हिस्सा कुछ कम हुआ.

16वीं और 17वीं लोकसभा यानी 2014 से 2024 में जो कानून बने वे शोरगुल के बीच और पर्याप्त बहस के बिना पारित किए गए. ये कानून सरकार ने जल्दबाजी में बनाए. 92 की संख्या में बने ये कानून केवल शासन करने के लिए बनाए गए. इन के अलावा वे कानून बनाए गए जिन का धार्मिक वोटबैंक बढ़ाने में उपयोग किया जा सके.

17वीं लोकसभा में तमाम ऐसे काम हुए जिन से सरकार की मनमरजी करने का पता चलता है. किसी कानून को बनाने से पहले उस के बिल को सदन में चर्चा के लिए पेश किया जाता है. चर्चा में समय लगता है. कई बार आपसी विचारविमर्श के चलते लंबे समय तक इन बिलों पर चर्चा होती रहती है. 17वीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान 58 फीसदी बिल 2 सप्ताह के भीतर पारित कर दिए गए. इस का मतलब यह है कि इन पर पूरी तरह चर्चा नहीं हुई. देश के अलगअलग सांसदों की राय नहीं ली गई. संसद में बहस का कोई मतलब नहीं रह गया.

जम्मूकश्मीर पुनर्गठन विधेयक 2019 और महिला आरक्षण विधेयक 2023 तो पेश होने के 2 दिनों के भीतर ही पारित कर दिए गए. 35 फीसदी विधेयक लोकसभा में एक घंटे से भी कम की चर्चा अवधि के साथ पारित कर दिए गए. 20 फीसदी से कम विधेयक समितियों को भेजे गए जहां कुछ सांसद पूरी चर्चा कर के अपनी सिफारिशें सदनों को देते हैं. 16 फीसदी विधेयक ही विस्तृत समीक्षा के लिए समितियों को भेजे गए.

2019 से 2023 के बीच औसतन लगभग 80 फीसदी बजट पर भी बिना चर्चा के ही मतदान हो गया. वर्ष 2023 में तो पूरा बजट ही बिना चर्चा के पारित कर दिया गया. 13 दिसंबर, 2023 को 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले की बरसी के अवसर पर गंभीर सुरक्षा उल्लंघन का मामला सामने आया जब लोकसभा में शून्यकाल के दौरान 2 युवा सागर शर्मा मनोरंजन डी सार्वजनिक दीर्घा से सभाकक्ष में कूद आए और उन्होंने रंगीन धुंआ छोड़ते कनस्तरों से पीला धुंआ छोड़ते हुए नारेबाजी की.

विपक्षी सांसद संसद में 2 लोगों के घुस आने की घटना पर बहस कराए जाने की मांग कर रहे थे. इस मांग को करने वाले 141 सासंदों को संसद से निकाला गया था. इन में 95 लोकसभा और 46 राज्यसभा के सांसद थे. इस से पहले इतनी बड़ी संख्या में सांसदों का निलंबन कभी नहीं हुआ था.

जिन सांसदों को निलंबित किया गया था उन में महुआ मोइत्रा जैसी नई सांसद से ले कर मनोज ?, जयराम रमेश, रणदीप सिंह सुरजेवाला, प्रमोद तिवारी, फारूक अब्दुल्ला, शशि थरूर, मनीष तिवारी, डिंपल यादव जैसे अनुभवी दिग्गज सांसद भी शामिल थे जो बहसों में जम कर भाग लेते थे. 2014 से ले कर 2024 तक सदन में नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाया गया था जिस से कि विपक्ष की आवाज को दबाया जा सके.

अधर में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग

2014 में इस की शुरुआत में न्याय प्रणाली को प्रभावित करने की कोशिश के तहत ही एनजेएसी एक्ट लाया गया.

सुप्रीम कोर्ट की नियुक्तियां अपने हाथों में करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा भी था कि भारत सरकार न्यायिक नियुक्तियों में अपनी अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए दबाव बना रही है. ‘कौलेजियम सिस्टमपिछले 25 वर्षों से भारतीय न्यायिक स्वतंत्रता को सुरक्षा देता रहा है. मोदी सरकार इस के खिलाफ रही है.

मोदी सरकार ने अगस्त 2014 में संसद में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी विधेयक 2014 के साथ संविधान (99वां संशोधन) विधेयक 2014 पारित किया जिस में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कौलेजियम प्रणाली के स्थान पर एक स्वतंत्र आयोग के गठन का प्रावधान था.

यह अधिनियम कौलेजियम प्रणाली के बजाय उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कहने को पारदर्शी विविध प्रक्रिया तय करने के लिए लाया गया था लेकिन असल में इस का उद्देश्यकौलेजियम सिस्टमको ध्वस्त करना था और प्रधानमंत्री के हाथों में नियुक्ति करने का अधिकार सौंपना था. यह कानून बन नहीं सका. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह संशोधन संविधान के मूल ढांचों के खिलाफ है.

काले कानून जैसी थी नोटबंदी

 नरेंद्र मोदी की सरकार किस तरह मनमाने फैसले कर रही थी, इस का एक बडा उदाहरण 2016 में हुई नोटबंदी भी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 8 नवंबर, 2016 को अचानक रात 8 बजे टीवी पर आए और देश में नोटबंदी लागू कर दी. इस के तहत 1,000 और 500 रुपए के नोटों को चलन से बाहर कर दिया गया. इस के बदले 500 और 2 हजार रुपए के नए नोट चलन में लाए गए.

मोदी सरकार का यह फैसला बिना किसी तैयारी, संसद में सलाह या बहस के लिया गया था. भारतीय रिजर्व बैंक तक को सही तरह से इसे लागू करने का समय नहीं मिला. जिन घरों में शादियां होनी थीं, जिन के घर में कोई बीमार पड़ गया, जिन को किसी भी तरह की इमरजैंसी आई वे परेशान हुए. बैंकों और एटीएम के सामने लंबीलंबी लाइनें लगीं.

तमाम सारी दिक्कतों के कारण 100 से अधिक लोग मारे गए थे. नोटबंदी के फैसले के खिलाफ 58 याचिकाएं कोर्ट में दाखिल की गई थीं. जस्टिस अब्दुल नजीर की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संवैधानिक बैंच ने कहा कि आर्थिक फैसलों को बदला नहीं जा सकता और यह कहते याचिकाओं को खारिज कर दिया था.

कालाधन सामाजिक समस्या नहीं है. यह सरकारी समस्या है. जिस धन पर सरकार को टैक्स नहीं मिला हो, वह कालाधन हो जाता है. रिश्वत के अलावा बाकी सारा धन असल में मेहनत की कमाई होती है पर सरकार उसे कालाधन कहती है क्योंकि उस पर इन्कम टैक्स, सेल्स टैक्स, औक्ट्रौय आदि नहीं दिए गए या कम दिए गए. नोटबंदी लागू होने के पहले ही दिन से लग रहा था कि इस से कालाधन समाप्त नहीं हो पाएगा.  

नोटबंदी के 8 साल बीतने के बाद भी देश की अर्थव्यवस्था में कालाधन बना हुआ है. रिश्वतखोरी खत्म नहीं हुई है. आतंकवाद अभी भी चल रहा है. आज केवल 500 रुपए के नोट चलन में हैं. 2 हजार रुपए का नोट चलन से बाहर कर दिया गया है. जब चलन से बाहर ही करना था तो इस को चलाया क्यों गया था? यह सवाल सामने है.

अभी भी आतंकवाद खत्म नहीं हुआ है. नोटबंदी जिन कारणों से लागू की गई वे जस के तस मौजूद हैं. समाज को नुकसान हुआ क्योंकि छोटे व्यापारियों का कामधंधा ठप सा हो गया. लाखों औरतों द्वारा छिपाया गया पैसा बाहर निकाल कर पतिबेटों के हवाले करना पड़ा. लाइन में लग सकने वालों ने कमाया पर जो लाइनों में नहीं लग सकते थे उन्हें सरकारी लूट का खमियाजा उठाना पड़ा.

पिंडारी डाकुओं की तरह लोगों के वर्षों से जमा पैसे छीन लिए गए. समाज आज भी कराह रहा है. यह समाज सुधार नहीं, समाज विध्वंस का कदम था.

जीएसटी यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स 2017

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) एक मूल्य वर्धित कर (वैट) है जो केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वस्तुओं सेवाओं पर सामूहिक रूप से लगाया जाता है. केंद्रीय जीएसटी (सीजीएसटी) और राज्य जीएसटी (एसजीएसटी) वाली दोहरी संरचना के बाद, जीएसटी परिषद द्वारा तैयार राजस्व वितरण में जीएसटी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

जीएसटी परिषद केंद्र और राज्यों के केंद्रीय वित्त मंत्री, राजस्व या वित्त के प्रभारी केंद्रीय राज्यमंत्री, वित्त या कराधान के प्रभारी मंत्री या प्रत्येक राज्य सरकार द्वारा नामित किसी अन्य मंत्री का एक संयुक्त मंच है, जो जीएसटी से संबंधित महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर संघ और राज्यों से सिफारिशें करता है. इस में भारतीय जनता पार्टी का भारी बहुमत है और विपक्षी दलों की सरकारों की के बराबर सुनवाई होती है. जनता को जिस सुधार की जरूरत होती है उस की तो चर्चा भी नहीं होती.

यह बात अपनी जगह सही है कि जीएसटी ने कर बाधाओं को कम किया है. पिछली कर प्रणाली में विनिर्माण और उत्पादन के हर चरण में कर जोड़ा जाता था जिस से वस्तु का मूल्य मार्जिन बढ़ जाता था. ‘कर पर करकी प्रणाली को खत्म करने और हर स्तर पर रिश्वतखोरी देरी को रोकने के लिए यह कागजों पर सुधार का काम था.

जीएसटी प्रणाली शुरू की गई थी जिस से कि रिश्वत बारबार देनी पड़े. लेकिन जो पैसा सरकार के रिश्वतखोर खाते थे, अब वह पैसा चार्टर्ड अकाउंटैंटों और कंप्यूटर औपरेटरों को देना पड़ जाता है क्योंकि उन के बिना जीएसटी रिटर्न नहीं भरा जा सकता. इस से समाज को कोई लाभ हुआ हो, बेरोजगारी घटी हो, सरकारी रिश्वतखारी कम हुई हो ऐसा दावा नहीं किया जा सकता.

जीएसटी लागू होने से छोटे कारोबार खत्म हो गए हैं. जिस बिजनैसमैन को जीएसटी नहीं देना उसे भी अपने बिजनैस का हिसाबकिताब रखने के लिए अकाउंटैंट रखना पड़ता है.

मुसलिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2018

मुसलिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2018 को साधारण तौर पर तीन तलाक कानून के रूप में जाना जाता है. सरकार इस कानून को समाज सुधार से जोड़ती है. असल में यह कानून मुसलिम पतियों को जेल भेजने वाला कानून है.

जेल जाने के बाद महिला का जीवन थाना, कचहरी और कानून के बीच फंस जाता है. इस विधेयक में मुसलिम महिलाओं को तीन तलाक से संरक्षण देने के साथ पुरुषों को दंड देने का प्रावधान भी किया गया.

मुसलिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक दिसंबर 2017 में लोकसभा में पारित हो गया था, लेकिन राज्यसभा में यह पारित नहीं हो सका था. इस के बाद सरकार ने इस मुद्दे पर अध्यादेश जारी किया जिसे राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी थी. सरकार ने नए सिरे से मुसलिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2018 के रूप में लोकसभा में पेश किया. यह पारित हो गया.

इस कानून में तीन तलाक के मामले को दंडनीय अपराध माना गया है, जिस में 3 साल तक की सजा हो सकती है. मजिस्ट्रेट को पीडि़ता का पक्ष सुनने के बाद सुलह कराने और जमानत देने का अधिकार है. मुकदमे से पहले पीडि़ता का पक्ष सुन कर मजिस्ट्रेट आरोपी को जमानत दे सकता है. पीडि़ता उस के रक्त संबंधी और विवाह से बने उस के संबंधी ही पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करा सकते हैं.

इस विधेयक की धारा 3 के अनुसार, लिखित या किसी भी इलैक्ट्रौनिक विधि से एकसाथ तीन तलाक कहना अवैध तथा गैरकानूनी होगा.

तीन तलाक कोतलाकबिद्दतभी कहा जाता है. इसेइंस्टैंट तलाकया मौखिक तलाक भी कहते हैं. इस में पति एक ही बार में तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कह कर तलाक ले लेता था.

मोदी सरकार ने अगर समाज सुधार के लिए यह कानून बनाया होता तो उसे हिंदुओं की शादी और विवाद के मसलों को जल्द सुलझाने के लिए भी कानून बनाना चाहिए था. पारिवारिक अदालतों में दिनप्रतिदिन हिंदू पतिपत्नी विवाद के मामले बढ़ते जा रहे हैं. इस के कारण नए युवा लड़केलड़कियां शादी करने से डरने लगे हैं. वे अकेले रहने को प्राथमिकता देने लगे हैं. इस समस्या को हल करने की जरूरत है.

यह कानून मुसलिम समाज को सीमित राहत देने वाला है पर 3 तलाक देने का अपराधीकरण करना इस का लाभ समाप्त कर गया. कोई औरत अपने बच्चों के बाप को जेल भेजने की कोशिश आसानी से नहीं करती.

इस कानून का असर उलटा हुआ है. जहां उत्तर प्रदेश में 1985 से अगस्त 2019 तक 63,400 मामले अदालतों में पहुंचे थे, नए कानून बनने के बाद सिर्फ 281 मामले अब तक दर्ज हुए हैं. मुसलिम पुरुष नए कानून से बचने के लिए औरतों को यों ही छोड़ रहे हैं. बहुत कम मामलों में औरतें थानों में पहुंच रही हैं. जो उत्तर प्रदेश में हुआ है वैसा ही अन्य राज्यों में हुआ है.

मुसलिम औरतें सुरक्षित हैं, यह तो नहीं कहा सकता है, हां, हिंदू पुरुष खुश हैं कि मुसलिम पति तुरंत तलाक नहीं दे सकता. यह मामला समाज सुधार का कम हिंदूमुसलिम विवाद का ज्यादा है.

नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019

2019 में ही नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) बना. इस को सब से ज्यादा अल्पसंख्यक विरोधी कानून माना जाता है जो भारत में मुसलिम प्रवासियों को अन्य धार्मिक समूहों के समान नागरिकता के रास्ते से वंचित करता है.

नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के तहत, 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत आने वाले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करने का मौका दिया गया.

नागरिकता संशोधन कानून असल में भारतीय जनता पार्टी के मूल मुद्दे हिंदूमुसलिम विवाद को जिंदा रखने का था. इसे समाज सुधार या नागरिकता प्रदान करने वाला कानून कहना गलत होगा. इस प्रकार के कानून यूरोप में यहूदियों को परेशान करने के लिए एडोल्फ हिटलर के जरमनी में सत्ता में आने के दौरान कई देशों में बने थे.

जम्मूकश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मूकश्मीर को विशेष दर्जा देता था. 1947 से भारत और पाकिस्तान के बीच यह विवाद का विषय रहा है. जम्मूकश्मीर 17 नवंबर, 1952 से 31 अक्तूबर, 2019 तक भारत के एक राज्य के रूप में था और अनुच्छेद 370 ने इसे एक अलग संविधान, एक राज्य ध्वज और आंतरिक प्रशासन की आजादी दे रखी थी. अनुच्छेद 370 शुरू से ही राजनीतिक मुद्दा था, सामाजिक नहीं. कश्मीर की जनता को इस कानून से कोई खास लाभ था, बाकी देश की जनता को कोई खास नुकसान था.

अब भी जम्मूकश्मीर में चुनाव के बाद वहां पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल करने के लिए संघर्ष चल रहा है. ऐसे में राज्य का विकास कैसे होगा, यह बड़ा सवाल है जो अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद भी बना हुआ है. वहां का हिंदू समाज, जो कश्मीर छोड़ कर आया था, इस नए संविधान संशोधन कानूनों के बाद लौटा नहीं है.

भारतीय कृषि अधिनियम 2020

जिस जमींदारी को आजादी के पहले दशक में समाप्त किया गया था और जमीनों को किसानों में बांटा गया था जिस से जमीन की मिल्कियत का बंटवारा हुआ था, उसे सरकार द्वारा 2020 में पिछले दरवाजे से कंपनियों को जमींदार बनाने के लिए तीन कृषि कानून बना डाले गए थे. इन को कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020, कृषक (सशक्तीकरण संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020 और आवश्यक वस्तुएं संशोधन अधिनियम 2020 के नाम से जाना गया. लोकसभा ने 17 सितंबर, 2020 को और राज्यसभा ने 20 सितंबर, 2020 को विधेयकों को मंजूरी दी. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 27 सितंबर, 2020 को अपनी सहमति दी.

किसानों को डर था कि इस से सरकार द्वारा गारंटीकृत मूल्य सीमा समाप्त हो जाएगी. जिस से उन्हें अपनी फसलों के लिए मिलने वाली कीमतें कम हो जाएंगी और ग्रामीण समाज और गरीब हो जाएगा.

इस के चलते इन तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध, प्रदर्शन और धरना शुरू हो गया. 12 जनवरी, 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी और कृषि कानूनों से संबंधित किसानों की शिकायतों पर गौर करने के लिए एक समिति बना दी.

2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से पहले 19 नवंबर, 2021 को टैलीविजन संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने माफी मांगते हुए इन कानूनों को निरस्त करने की बात कह दी. इस के बाद संसद में ये कानून वापस ले लिए गए. इन जबरदस्ती के कानूनों को वापस लेने का कार्य सुधार का कहना चाहें तो कह सकते हैं.

ट्रांसजैंडर्स अधिकारों व संरक्षण अधिनियम 2019

मोदी सरकार ने समाज सुधार वाला कोई कानून बनाया है तो वह ट्रांसजैंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 है जिसे 26 नवंबर, 2019 को पारित किया. यह अधिनियम ट्रांसजैंडर व्यक्तियों के अधिकारों और कल्याण की रक्षा के लिए बनाया गया है. इस अधिनियम के तहत, ट्रांसजैंडर व्यक्तियों को कई तरह के अधिकार लाभ दिए गए हैं जो उन्हें आम लोगों की गिनती में लाते हैं.

इस के तहत, ट्रांसजैंडर को खुद अपनी लिंग पहचान चुनने की अनुमति है. ट्रांसजैंडर व्यक्ति को पहचान प्रमाणपत्र जारी किया जाता है. इस प्रमाणपत्र के लिए जिला मजिस्ट्रेट को आवेदन करना होता है. अधिनियम के तहत, ट्रांसजैंडर व्यक्तियों को शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक परिवहन जैसी सुविधाओं का लाभ दिया जाता है.

सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम 2021

यह औरतों का अपने बदन पर पूरा हक होने संबंधी एक कानून है. देश में बांझापन की समस्या तेजी से बढ़ती जा रही है. ऐसे में सरोगेसी को सरल बनाने की जरूरत थी. मोदी सरकार ने इस कानून में भी समाज सुधार की जगह पर इस को उलझने वाला काम किया है. सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम 2021 भारत में सरोगेसी से जुड़े कानूनी, नैतिक और सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने वाला विधाई ढांचा है. यह अधिनियम सरोगेसी की प्रथा को कानूनी करने के लिए बनाया गया है पर इस ने औरतों की कोख पर कब्जा कर लिया.

इस अधिनियम के तहत, केवल परोपकारी सरोगेसी की अनुमति है. इस में सरोगेट को कोई आर्थिक लाभ नहीं मिलता. इस बिंदु में उलझन हैं, इस कानून के अनुसार सरोगेसी के लिए पात्रता मानदंड तय किए गए हैं. सरोगेसी के लिए राष्ट्रीय सरोगेसी बोर्ड और राज्य सरोगेसी बोर्ड के गठन किए गए हैं. इन के दखल से सरोगेसी कराने वालों की गोपनीयता नहीं रह पाएगी.

सरोगेसी प्रक्रिया से पैदा हुए बच्चे को इच्छुक दंपती का जैविक बच्चा माना जाएगा. पर सरोगेसी से जुड़े अपराधों के लिए 10 साल तक की जेल और 10 लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है.

वाणिज्यिक सरोगेसी करना या उस का विज्ञापन करना अपराध माना जाएगा. सरोगेट मां का शोषण करना सरोगेट बच्चे को छोड़ना, उस का शोषण करना या उस से संबंध तोड़ना अपराध माना जाएगा.

सरोगेसी में सरकार और कानून की जगह पर महिला को फैसले लेने का हक होना चाहिए जो इस कानून में नहीं है. सरकार सोचती है कि औरतों को अपने बदन पर पूरा हक नहीं है. हक तो सरकार का है. सरोगेसी के अंतर्गत गर्भ में किस का भ्रूण पल रहा है, यह सरकारी बोर्ड तय करेगा. चोरीछिपे सरोगेसी के मामले इस से बढ़ेंगे, इस में शक नहीं है. यह कदम औरतों के हक छीनने वाला है.

न्यायिक कानून में बदलाव

आईपीसी और सीआरपीसी को बदल कर मोदी सरकार ने 3 आपराधिक कानून साल 2023 में भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य संहिता नाम से बनाए. इन को एक क्रांतिकारी कदम के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.

असल में यह इंग्लिश नामों का हिंदीकरण से अधिक कुछ नहीं है. इन से पुलिस और न्याय व्यवस्था पर असर पड़ने वाला नहीं है. इस की वजह से उल?ानें बढ़ गई हैं.

भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम ने भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया संहिता 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की जगह ले ली. 650 से ज्यादा जिला न्यायालयों और 16,000 पुलिस थानों के लिए यह नई व्यवस्था चुनौती जैसी थी. इन चुनौतियों का नुकसान जेल में बंद आरोपी को झेलना पडे़गा क्योंकि उस की जमानत को ले कर इन कानूनों में कोई वादा नहीं किया गया है.

ये कानून केवल बदलाव मात्र के लिए हैं. इन से समाज पर कोई असर पड़ेगा, यह समझ नहीं रहा है.

महिला आरक्षण अधिनियम 2023

मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में महिला वोटरों को खुश करने के लिए महिला आरक्षण अधिनियम 2023 पारित किया. यह कानून कैसे और कब लागू होगा, इस का किसी को पता नहीं है. महिला आरक्षण कानून बनाने के लिए संविधान में 106वां संशोधन भी अधिनियम 2023 में किया गया. इस के तहत, लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिए एकतिहाई सीटें आरक्षित की जाएंगी. यह आरक्षण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर भी लागू होगा.

महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का रोटेशन हर परिसीमन के बाद किया जाएगा. पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण पहले से है. 73वें संशोधन अधिनियम के तहत पंचायती राज निकायों में कुल सीटों में से एकतिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं. जो काम पहले की सरकारों ने किया उन की सही नकल भी मोदी सरकार नहीं कर पाई. उस के पास इस बात का जवाब नहीं है कि महिला आरक्षण कब से लागू होगा.

कहां है समाज सुधार

2019 से 2024 के दूसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी की सरकार ने जो कानून बनाए उन में समाज सुधार की जगह पर हिंदू राष्ट्र निर्माण को मजबूत करने का प्रयास किया. सरकार ने जिस तरह से सांसदों और विपक्ष को हाशिए पर रखने का काम किया उस का फल उसे 2024 के लोकसभा चुनाव में मिला.

2014 से 24 के बीचखाता बही मोदी ने जो कहा वही सहीकी तर्ज पर कानून बने. 2024 में भाजपा 240 सीटें जीत कर बैसाखी सरकार चला रही है. जहां हर कानून बनाने से पहले उस को वापस लेना पड़ रहा है. अगर उस ने समाज सुधार के लिए कानून बनाए होते तो यह होता

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