Dhirendra Shastri: हिंदुत्व के नए और लेटेस्ट पोस्टरबौय बागेश्वर बाबा उर्फ़ धीरेंद्र शास्त्री की हिंदू एकता यात्रा के आखिरी दिन बुन्देलखंड के छोटे से कसबे ओरछा में लाखों की तादाद में सवर्ण हिंदू भक्त देशभर से पहुंचे थे. इस 9 दिनी यात्रा का घोषित मकसद एक नारे की शक्ल में यह था कि जातपांत की करो विदाई, हम हिंदू हैं भाईभाई. अब यह बाबा भी शायद ही बता पाए कि आखिर यह हिंदू शब्द क्या बला है और जो थोड़ाबहुत है भी तो उस से यह साफ़ फिर भी नहीं होता कि क्या सभी हिंदू हैं, यानी, दलित भी हिंदू हैं या सदियों पहले की तरह केवल सवर्ण ही हिंदू हैं और अगर वही हिंदू हैं तो उन में अदभुद एकता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में कोई आपसी मतभेद नहीं है क्योंकि उन में रोटीबेटी के संबंध हैं.
इस हिंदू या सनातन एकता यात्रा के संपन्न होने के बाद यकीन मानें, कोई सवर्ण किसी दलित के घर, अपनी बेटी तो दूर की बात है, बेटे का भी रिश्ता ले कर यह कहते नहीं गया कि आओ भाई, आज से हमतुम दोनों हिंदू हैं. अब समधी बन जाना शर्म की नहीं बल्कि फख्र की बात है. बागेश्वर बाबा ने हमें हिंदू होने के असल माने समझा दिए हैं तो जातपांत की विदाई की पहली डोली अपने ही आंगन से उठाते एकता की मिसाल कायम करते हैं. यह रिश्तेदारी कायम करना तो दूर की बात है, हिंदू एकता यात्रा के साक्षी बने सवर्णों ने रास्ते में किसी दलित के घर पानी भी नहीं पिया, फिर आग्रह कर खाना खाना तो दूर की बात है, जिसे राजनेता बतौर दिखाने, कभीकभी करते हैं.
असल में मुसलमानों का खौफ दिखाती और हर स्तर पर उन के बहिष्कार की अपील करती इस यात्रा में लगभग सभी सवर्ण थे. दलित न के बराबर भी नहीं थे. जातिगत एकता की बात और दुहाई कतई नई बात नहीं हैं. सब से पहले यह मुद्दा आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने उठाया था. बीती 6 अक्तूबर को राजस्थान के बारां में उन्होंने एक बार फिर कहा कि हिंदू समाज को अपनी सुरक्षा के लिए मतभेद भुला कर एकजुट हो जाना चाहिए.
अब न तो यह मोहन भागवत बताते और न ही कोई बागेश्वर बाबा बताता कि हिंदू असुरक्षित किस से है और हिंदुओं के ही अलावा उसे खतरा किससे है. इन दोनों किस्मों के लोग डर मुसलमानों और ईसाईयों का दिखाते हैं. देश का यह वह दौर है जिस में सवर्ण यानी पूजापाठी हिंदू लगातार कट्टर होता जा रहा है. जबकि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को इस तरह के नारों, भाषणों व यात्राओं से कोई सरोकार ही नहीं है, इसलिए नहीं कि वह पूजापाठी नहीं है बल्कि इसलिए कि वह इसलाम या ईसाईयत को खतरा नहीं मानता. उलटे, कई मानो में तो वह खुद को सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले इन से ज्यादा नजदीकी महसूस करता है.
कभी किसी दलित नेता या दलित धर्मगुरु ने इस आशय की कोई बात नहीं कही और न ही इस नए नारे का समर्थन किया कि बटेंगे तो कटेंगे. यह मांग और मुहिम सवर्णों की है जिसे आकार और आवाज ब्राह्मण दे रहे हैं. ये वही ब्राह्मण हैं जो सदियों से दलितों को धर्मग्रंथों की बिना पर लतियाते रहे हैं लेकिन आज उन्हें गले लगाने का ड्रामा कर रहे हैं जिसे दलित बखूबी समझ रहा है.
बारीकी से देखें तो अंदरूनी तौर पर हालात एकदम उलट हैं. बात जातिगत भेदभाव मिटाने या खत्म करने की की जा रही है लेकिन वर्णव्यवस्था, जो इस फसाद की जड़ है, पर न बाबा बागेश्वर कुछ बोल रहे और न ही मोहन भागवत. फिर किसी भाजपा नेता से तो इस विषय पर कुछ सुनने की उम्मीद करना ही बेकार की बात है.
इस ड्रामे की पोल खोलते मध्यप्रदेश के प्रमुख दलित नेता और कांग्रेसी विधायक फूलसिंह बरैया कहते हैं कि भाजपाई और धर्मगुरु यात्राओं के जरिए नरेंद्र मोदी के इशारे पर गुंडागर्दी कर रहे हैं. ये लोग दलितों के हमदर्द न कभी पहले थे और न आज हैं. ये लोग असल मुद्दों से लोगों का ध्यान बंटा रहे हैं. ये दलितों को अगर मंदिर बुला रहे हैं तो उन का मकसद और मंशा दलितों से मंदिरों में झाड़ूबुहारी करवाना और अपने चप्पलजूतों की रखवाली करवाना है. दिक्कत तो यह भी है कि इस धार्मिक होहल्ले में कोई बेरोजगारी और महंगाई की बात नहीं करता.
बरैया हिंदू शब्द पर भी सवाल उठाते कहते हैं कि आखिर हिंदू है कौन, किसी धर्मग्रंथ में हिंदू शब्द का उल्लेख नहीं है. यह एक खूबसूरत तर्क हो सकता है लेकिन मौजूदा समस्याओं का हल इसे भी नहीं कहा जा सकता. अगर किसी धर्मग्रंथ में या पौराणिक साहित्य में हिंदू शब्द का उल्लेख होता तो क्या ये समस्याएं हल हो जातीं और दरअसल समस्याएं हैं क्या जो आम लोगों को बेचैन किए हुए हैं तो समझ आता है कि असल समस्या महंगाई या बेरोजगारी नहीं है बल्कि धर्म है, जाति है और उस से भी बड़ी है भारतीय दिलोदिमाग में पसरी वर्णव्यवस्था, धार्मिक भेदभाव और ऊंचनीच. दलित विचारकों या विद्वानों ने कभी हिंदू एकता की वकालत नहीं की. उलटे, वे वर्णव्यवस्था को खत्म करने की बात करते रहे. लेकिन आजकल के दलित नेता इस पर कुछ नहीं बोलते क्योंकि वे तमाम सिरे से संघ और भाजपा की धार्मिक तिजोरी में दलित हितों और अस्मिता को गिरवी रख सत्ता की मलाई चाट रहे हैं.
अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में बसपा प्रमुख पानी पीपी कर वर्णव्यवस्था को कोसते कांशीराम का दिया यह नारा बुलंद करती रहती थीं कि, ‘तिलक तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार.’ जब वही मायावती यह कहने लगीं कि, ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश है, हाथी नहीं गणेश है’ तो दलितों ने उन्हें और बसपा को ख़ारिज कर दिया. मायावती और बसपा दोनों अब सियासी दौड़ से बाहर हैं और खुद को ठगा सा महसूस कर रहे दलित समुदाय का बड़ा हिस्सा सचमुच में ब्रह्मा, विष्णु और महेश वालों की पार्टी को वोट देने को मजबूर हो गया.
संविधान हाथ में ले कर घूम रही कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को लोकसभा चुनाव में जरूर उस ने वोट दिया लेकिन पहले हरियाणा और फिर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजों ने साफ़ कर दिया कि दलित समुदाय धार्मिक चकाचौंध और बाबाओं के फैलाएं जाल में फंसता जा रहा है क्योंकि वह जातिगत भेदभाव दूर करने के नारे में छिपी वर्णव्यवस्था को नहीं देख पा रहा है जिसे दूर और खत्म करने के लिए कभी नामचीन दलित नेताओं ने हिंदू धर्म तक छोड़ दिया था. इन में संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव आंबेडकर का नाम सब से ऊपर है.
उन्होंने कहा था- ‘जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था एकदूसरे से अलग नहीं हैं. वर्णव्यवस्था ने जातिव्यवस्था को वैधता प्रदान की और इस से दलित समुदाय पर अत्याचार हुए. ज्योतिराव फुले वर्णव्यवस्था को ब्राह्मण वर्ग द्वारा दलित और शूद्र समुदाय के शोषण का उपकरण मानते थे. दक्षिण भारत के दलित चिंतक और सुधारक ई वी रामास्वामी पेरियार भी मानते थे कि ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था दलितों व गैरब्राह्मणों के शोषण का आधार हैं. बी एस वेंकटराव की दलील यह थी कि वर्णव्यवस्था ने केवल सामाजिक अन्याय को ही नहीं बल्कि आर्थिक असमानता को भी जन्म दिया. दलितों को उन के श्रम और संसाधनों से वंचित कर उन्हें हमेशा निर्भर बनाए रखा.
इन सभी ने इस रोग से छुटकारे की दवा शिक्षा को बताया था लेकिन दलित शिक्षा का हाल यह है कि आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करने वाली एक याचिका पर अपना फैसला सुनाते सुप्रीम कोर्ट की बैंच के एक जस्टिस पंकज मित्तल ने कहा था कि सब से पिछड़े वर्गों के लगभग 50 फीसदी छात्र कक्षा 5 के पहले और 75 फीसदी कक्षा 8 के पहले स्कूल छोड़ देते हैं. हाईस्कूल लैवल पर तो यह आंकड़ा 95 फीसदी तक पहुंच जाता है. यानी, एक फीसदी दलित भी स्नातक नहीं हो पाते. ऐसे में वे शायद ही बटेंगे तो कटेंगे जैसे नारों की हकीकत समझ पाएंगे. बकौल फूलसिंह बरैया, भाजपा हिंदू एकता यात्रा जैसी मुहिम से लोगों को वेबकूफ़ बना रही है जिस से लंबे समय तक राज किया जा सके.
किसी धर्मगुरु संघ प्रमुख या हिंदूवादी नेता की मंशा जाति या वर्णव्यवस्था को खत्म करने की नहीं है. क्योंकि यही हिंदू, वैदिक या सनातक धर्म कुछ भी कह लें, की बुनियाद है जिस पर सत्ता के महल और मंदिर खड़े होते हैं. इन सब का मैसेज यह है कि दलित, पिछड़े और आदिवासी सवर्णों की बादशाहत स्वीकारते फिर से उन की गुलामी ढोएं, इस से ही उन के पाप धुलेंगे. यह पाप छोटी जाति और नीच योनि में पैदा होना है. ये वे भाजपाई हिंदू हैं जो पीछे हटने की कोशिश में वक्ती तौर पर आगे बढ़ते जा रहे हैं और कांग्रेसी हिंदू आगे बढ़ने की कोशिश के बाद भी पिछड़ते जा रहे हैं क्योंकि उन के पूर्वज लोकमान्य तिलक जैसे घोर मनुवादी नेता भी थे.
आज भी कांग्रेस में ऐसे नेताओं की भरमार है जिन्हें वर्णव्यवस्था से कोई एतराज नहीं. वे सिर्फ गांधीनेहरू परिवार के कंधों पर सवार हो कर सत्ता की मलाई चाट लेना चाहते हैं और वहां न मिले तो भाजपा के द्वार तो इन के लिए खुले ही हुए हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और सुरेश पचोरी जैसे दर्जनों नेता अपने ब्राह्मण होने का गरूर टूटने से बचाने के लिए भाजपा की गोद में जा बैठे. दरअसल ये नेता तिलक के मनुवादी संस्कारों से ग्रस्त थे कि दलितों और औरतों को शिक्षा का अधिकार नहीं और जातिव्यवस्था व वर्णव्यवस्था उन के भले के लिए बनाई गई थीं.