Up Byelection Result: केरल की वायनाड लोकसभा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी प्रियंका गांधी की 4 लाख से अधिक वोटों की जीत के बाद उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में आनंद भवन पर एक होर्डिंग लगी जिस में लिखा था ‘इंदिरा इज बैक’. वोटर अभी भी कांग्रेस से उम्मीद रखे हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ उपचुनाव में सपा ने जिस तरह का व्यवहार किया उस से लोकसभा में नंबर एक की पार्टी बनी सपा को भाजपा के मुकाबले मुंह की खानी पड़ी.

उत्तर प्रदेश की 9 विधानसभा सीटों पर उपचुनावों को 2027 के विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था. लोकसभा चुनाव में 37 सीटें जीत कर सपा उत्साह से लबरेज थी. कांग्रेस के साथ मिल कर इंडिया गठबंधन को 43 सीटें मिली थीं. उत्तर प्रदेश ने ही भाजपा को बहुमत के आंकड़े से दूर रखा था. इस जीत का श्रेय राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी को गया था. चुनाव के बाद दोनों नेताओं में दूरी बढ़ने लगी. अखिलेश यादव के करीबी लोगों ने उन को समझाया कि कांग्रेस को मिलने वाली सफलता का कारण सपा थी. कांग्रेस जैसेजैसे मजबूत होगी सपा वैसेवैसे कमजोर होगी. इस के बाद कांग्रेस और सपा के बीच बनी दोस्ती में दरार आने लगी.

हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस के बीच सीटों का कोई तालमेल नहीं हुआ. जम्मू कश्मीर में सपा ने अपने प्रत्याशी चुनाव में उतारे. सपा को करारी हार का सामना करना पड़ा. इस के बाद महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के साथ ही साथ उत्तर प्रदेश में उपचुनाव भी थे. सपा महाराष्ट्र में कांग्रेस से तालमेल कर सीटें चाहती थी. महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ एनसीपी और शिवसेना भी गठबंधन का हिस्सा थी. ऐसे में सपा के लिए बड़ी गुंजाइश नहीं बनी. इस का बदला अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में लेने की सोची. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 3 से 5 सीटें चाहती थी. सपा ने 2 सीटें दी उस में भी कई तरह की शर्तें थीं.

कांग्रेस के कारण सपा के साथ खड़ा था दलित

ऐसे में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में उपचुनाव लड़ने से इंकार कर दिया. अब चुनाव में सपा और कांग्रेस साथ होते हुए भी साथ नहीं थे. कांग्रेस का फोकस महाराष्ट्र, झारखंड और वायनाड सीट पर था. उस के नेता वहीं प्रचार करते नजर आए. उपचुनाव में कांग्रेस मंझवा और फूलपुर सीट अपने लिए चाहती थी. सपा कांग्रेस को खैर और गाजियाबाद सीट दे रही थी. असल में 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को दलित और मुसलिम वोट मिले थे. कांग्रेस के साथ होने के कारण ही दलित वोट सपा को मिले थे. ‘दलित और मुसलिम’ वोटों के एक साथ आ जाने से भाजपा को काफी नुकसान हुआ था.

दलित वोट की एक खासियत है कि वह कभी एकजुट हो कर समाजवादी पार्टी को वोट नहीं देता है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के कारण सपा को दलित वोट मिल गए. उपचुनाव में कागज के ऊपर सपा-कांग्रेस का गठजोड़ बना था. चुनाव संचालन के लिए कमेटियां भी बनी थीं. इस के बाद सपा ने कांग्रेस के नेताओं को कोई महत्व नहीं दिया था. जिस के कारण कांग्रेस उत्तर प्रदेश में साइलेंट हो गई थी. जिस से चुनावी नतीजे इतने विपरीत आ गए.

2022 की विधान सभा चुनाव में इन्ही 9 सीटों में से 4 करहल, सीसामऊ, कटेहरी और कुदरकी पर सपा और 4 फुलपुर, गाजियाबाद, मंझवा और खैर पर भाजपा ने चुनाव जीता था. एक सीट मीरापुर लोकदल के खाते में गई थी. उस समय लोकदल सपा की सहयोगी पार्टी थी. 2022 के चुनावी नतीजों में देखें तो सपा के पास 5 और भाजपा के पास 4 सीटें थीं. 2024 में जब इन सीटों पर उपचुनाव हुए तो सपा के पास केवल 2 सीटें ही रह गई. जबकि 5 माह ही पहले सपा ने लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया था. इस की मूल वजह दलित वोट रहा जो ‘पीडीए’ यानि पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक का नारा देने के बाद भी सपा के साथ खड़ा नहीं हुआ.

चुनाव प्रचार में नहीं दिखे सपा के सांसद

उपचुनावों में अखिलेश यादव ने पूरी मेहनत के साथ प्रचार किया. यह बात और है कि उन की पार्टी के दूसरे नेताओं ने उस तरह से प्रचार नहीं किया जैसे टोलियां बना कर भाजपा के लोगों ने प्रचार किया. भाजपा की टोलियों ने जमीनी स्तर पर सपा के जातीय गोलबंदी के खिलाफ प्रचार किया. ‘बंटेगे तो कटेंगे’ के नारे को लोगों के बीच ले गए. भाजपा ने इन टोलियों में उन नेताओं को कमान सौंपी जिन जातियों के वोट ज्यादा थे. सपा इस की काट नहीं कर पाई.

सपा को लग रहा था कि दलित उस के साथ हैं, मुसलिम भाजपा को वोट नहीं देगा और पिछड़े भी सपा के साथ हैं. ऐसे में उसे जीत के लिए कांग्रेस के कंधे की जरूरत नहीं है.

सपा का अति आत्मविश्वास उसे ले डूबा. उस ने 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा को आक्सीजन देने का काम किया है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ले कर जो विवाद भाजपा में था वह भी खत्म हो गया है. दलित और मुसलिम वोटर ने एक और संकेत दे दिया है कि वह सपा और बसपा की जगह पर दूसरे विकल्प की ओर भी देख रहा है. दलित भाजपा के साथ ही साथ चन्द्रशेखर की आजाद समाज पार्टी की ओर भी जा रहा है. इन उपचनावों में आजाद समाज पार्टी ने दलित वोटों को अपनी ओर खीचने का काम किया है.

सब से खराब हालत बहुजन समाज पार्टी की रही है. बसपा को कुदरकी में 1036, मीरापुर में 3248, करहल में 8409 और सीसामऊ में 1500 वोट मिले हैं. प्रदेश की तीसरे दर्जे की पार्टी की यह हालत बताती है कि दलित किस तरह से बसपा से दूर जा रहा है. इस के बदले आजाद समाज पार्टी को कुदरकी में 13,896, मीरापुर में 22,661, करहल में 2499 वोट मिले. दलित वोटर आजाद समाज पार्टी के बीच झुकता दिखा तो मुसलिम वोट ओबैसी की पार्टी एआईएमआईएम की तरफ झुकता दिखा. समाजवादी पार्टी को इस खतरे को समझ कर अपनी आगे की रणनीति बनानी चाहिए.

जिन जतियों ने लोकसभा चुनाव में अपना समर्थन सपा को दिया था अब उन की चिंता सपा को नहीं है. सपा के जीते सासंदों की बात करें या हारे हुए, जनता के बीच कोई नहीं जा रहा. उन की परेशानियों को हल करने की दिशा में पहल नहीं कर रहा. सपा में जातीय रूप से यादव सब से हावी रहते हैं. वह दूसरी पिछड़ी जातियों को सहन नहीं करते हैं.

सपा में परिवारवाद हावी है. वहां मुलायम परिवार ही नहीं दूसरे नेताओं के परिजनों को सब से ज्यादा टिकट दिए जाते हैं. जो पार्टी में विरोध के स्वर का मजबूत करता है. 9 विधानसभा सीटों के चुनाव में 3 टिकट परिवार के लोगों को दिए गए. करहल में तेज प्रताप यादव मुलायम परिवार का हिस्सा है. सीसामऊ से चुनाव लड़ी नमीस सोलंकी पूर्व विधायक इरफान सोलंकी की पत्नी थीं और कटेहरी से चुनाव लड़ी शोभावती वर्मा सांसद लालजी वर्मा की पत्नी हैं.

इन चुनावों में सपा ने 4 सीटों फूलपुर, सीसामऊ, कुदंरकी और मीरापुर में मुसलिम प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे जिन के कारण चुनावी समीकरण गड़बड़ हो गया. सपा ने जिन दो सीटों पर जीत हासिल की उन में करहल में 14 हजार और सीसामऊ में 8 हजार से ही जीत हासिल हुई. लोकसभा चुनाव के मुकाबले विधानसभा चुनाव में सपा की सीट वितरण में कमी नजर आई, जिस की वजह से यह हार हुई है. इस से भाजपा लोकसभा चुनाव की हार के नैतिक दबाव से बाहर आ गई है.

सपा और कांग्रेस दोनों ही दलों में केवल राहुल गांधी और अखिलेश यादव से ही उम्मीद की जाती है कि वह जीत को थाली में परोस कर दे दें. भाजपा में जिस तरह से तीसरे और चौथे नंबर के नेता भी जीत के लिए मेहनत करते हैं उस तरह की मेहनत सपा-कांग्रेस के लोग नहीं करते हैं. ऐसे में दोनों ही दलों को नए सिरे से संगठन पर काम करने की जरूरत है. तभी यह उठ खड़े हो पाएंगे. 2024 की हार के 5 माह के अंदर ही भाजपा ने जो ‘कमबैक’ किया उस से दूसरे दलों को सीखने की जरूरत है.

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