5 नवंबर की अपनी जीत के बाद 6 नवंबर को पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब फ्लोरिडा स्थित पाम बीच कन्वैंशन सैंटर में भाषण दे रहे थे तब लौबी में उन के सैकड़ों समर्थक इकट्ठा थे और हाउ ग्रेट थू आर्ट (हे ईश्वर तू कितना महान है) गा रहे थे. यह एक ईसाई भजन है जिसे 1885 में एक स्वीडिश कवि और राजनेता कार्लबर्ग ने लिखा था. इस के लंबेचौड़े अनुवाद का सार यह है कि ईश्वर महान है, सर्वशक्तिमान है वगैरहवगैरह.
इस भजन की भाषा ठीक वैसी है जैसी हिंदू धर्म में वेदों की ऋचाओं की है. यानी, हरेक छंद में आदमी के अपने पापी और हीन होने का कन्फेशन, पाप, पुण्य, मोक्ष, उद्धार जैसे शब्द और फिर उस महान परमेश्वर से बातबात पर क्षमा मांगना और तरहतरह की याचनाएं करना और फिर बातबात में ही उस का आभार व्यक्त करना आदि है. कार्लबर्ग विकट के पूजापाठी थे जिन की परवरिश ही एक चर्च में हुई थी. इस दिन भीड़ में आकर्षण का केंद्र बने इवेंजेलिकल ईसाईयों ने भी अपने क्लासिक भजनों को गा कर खुशी जताई.
आखिर खुशी जताते भी क्यों न, उन के हिस्से में तो मौका भी था, मौसम भी था और दस्तूर भी था जिसे शब्द देते 2016 से ही ट्रंप के कट्टर इंजील समर्थक रहे डलास के फर्स्ट बैपटिस्ट चर्च के पादरी रौबर्ट जेफ्रेस ने कहा, ‘‘यह एक बड़ी जीत है. इवेंजेलिकल्स के लिए कुछ आस्था संबंधी मुद्दे महत्त्वपूर्ण थे. लेकिन इवेंजेलिकल्स भी अमेरिकी हैं. इन्हें आप्रावासन की चिंता है, इन्हें अर्थव्यवस्था की चिंता है. इस ऐतिहासिक करार दी जाने वाली जीत का जश्न स्वाभाविक तौर पर पूरे अमेरिका की सड़कों पर मनाया गया.’’
फ्लोरिडा में दिए अपने विजयी भाषण में डोनाल्ड ट्रंप ने वही बातें कीं जिन की उम्मीद उन से थी, मसलन ‘मैं ये कर दूंगा’, ‘मैं वो कर दूंगा’, ‘यह अमेरिका का स्वर्णिम काल होगा’, ‘हम अमेरिका को फिर से महान बना सकेंगे’, ‘यह पूरे अमेरिका की राजनीतिक जीत है जो पहले कभी अमेरिका ने नहीं देखी थी.’ लेकिन पूरे भाषण में जो 2 बातें उल्लेखनीय थीं उन में से पहले थी एलन मस्क जिन्हें ट्रंप ने सार्वजनिक तौर पर धन्यवाद देते उन्हें नया स्टार करार दिया और दूसरी थी 13 जुलाई, 2024 के हमले में उन का बच जाना जिस के बारे में उन के शब्द थे, ‘कई लोगों ने मुझ से कहा है कि भगवान ने किसी कारण से मेरी जान बचाई है. 13 जुलाई को पेन्सिल्वेनिया के बटलर में लगभग घातक हत्या के प्रयास में मुझे चमत्कारिक दिव्य संरक्षण प्राप्त हुआ था और इस की वजह थी हमारे देश को बचाना और अमेरिका को फिर से महानता की ओर स्थापित करना.’
अब शायद ही कोई ट्रंप या कोई और भगवानवादी यह बता पाए कि जब भगवान को जान बचानी ही रहती है तो वह जानलेवा हमला करवाने का ड्रामा क्यों करता है.
इस बहस से परे ट्रंप के ये शब्द (चमत्कारिक दिव्य संरक्षण) धार्मिक ही थे और लगभग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उन शब्दों जैसे ही थे जिन में वाराणसी में नाव में इंटरव्यू देते उन्होंने एक न्यूज चैनल की एंकर से अपने नौन बायोलौजिकल होने की बात कहने के साथसाथ 24 मई, 2024 को यह भी कहा था कि मु?ो भगवान ने एक मिशन को पूरा करने के लिए भेजा है. वैसे भी, नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप के व्यक्तिगत स्वभाव, राजनीतिक चरित्र और फलसफे में कई समानताएं हैं ही, साथ ही, दोनों की जीत और उस की ट्रिक्स भी मेल खाती हुई हैं.
ट्रंप के पहले विजयी भाषण में अगर रौबर्ट जेफ्रेस जैसे पादरी थे तो मोदी के 9 जून, 2024 के शपथ ग्रहण समारोह में भी कई नामी साधुसंत मौजूद थे. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इन धर्मगुरुओं की न तो कोई उपयोगिता होती है और न ही जरूरत. हां, इन लोगों की मौजूदगी यह साबित करती है कि बिना इन ईश्वरीय दूतों व इन के धर्म के ट्रंप और मोदी की जीत मुश्किल थी, क्योंकि दोनों के ही सामने कमला हैरिस और राहुल गांधी सरीखे निरपेक्ष, उदार और संविधानवादी नेता थे, जिन्हें दक्षिणपंथी अपनी सहूलियत और स्वार्थ के लिए वामपंथी कहते हैं और तब इन का लहजा किसी गाली से कम नहीं होता.
जलवा व दबदबा श्वेतों और सवर्णों का
डैमोक्रेटिक पार्टी के बुजुर्ग उम्मीदवार राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जब अपनी खराब सेहत के कारण राष्ट्रपति पद की दौड़ से हटते भारतवंशी कमला हैरिस को नामांकित किया था तो ट्रंप खेमा बौखला उठा था. उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के चुनावी मैदान में उतरने से पहले तक सबकुछ उबाऊ था और दुनिया यह मान चुकी थी कि डोनाल्ड ट्रंप दूसरी बार राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं लेकिन कमला हैरिस की उम्मीदवारी से रिपब्लिकन्स में खलबली मच गई. कमला हैरिस लोकप्रियता के मामले में डोनाल्ड ट्रंप से उन्नीस नहीं थीं और न ही अब हारने के बाद हैं, क्योंकि वे ट्रंप से नहीं बल्कि उन कट्टर श्वेत ईसाईयों से हारी हैं जिन के लिए अमेरिका का संविधान बाइबिल के मुकाबले एक फुजूल सी किताब है.
अमेरिकी संविधान भी धर्मनिरपेक्ष है जिस में किसी धर्म का उल्लेख नहीं है. इस के बाद भी माना यह जाता है और हकीकत भी है कि 42 फीसदी श्वेत ईसाईयों (14 फीसदी इवेंजेलिकल, 16 फीसदी व्हाइट मेन लाइन वाले प्रोटेस्टैंट और 12 फीसदी कैथोलिक इन्हें हिंदू वर्णव्यवस्था के हिसाब से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कहा जा सकता है) का झुकाव शुरू से रिपब्लिकन पार्टी की तरफ रहा है जबकि 63 फीसदी गैर और अश्वेत ईसाईयों (7 फीसदी अश्वेत प्रोटेस्टैंट, 4-4 फीसदी हिस्पेनिक प्रोटेस्टैंट व दूसरे रंगों वाले प्रोटेस्टैंट, 8 फीसदी हिस्पेनिक कैथोलिक,
2 फीसदी दूसरे रंगों वाले हिस्पेनिक और बाकी छोटेमोटे धर्मों जैसे हिंदू व मुसलमानों के अलावा सब से ज्यादा 723 फीसदी वे अनएफिलिएटेड यानी जो किसी धर्म से संबद्ध नहीं हैं) का झुकाव डैमोक्रेटिक पार्टी की तरफ रहता है. इन्हें भारतीय संदर्भों के दलित, महादलित, पिछड़ा, अतिपिछड़ा, आदिवासी और मुसलमान कहा जा सकता है.
वर्ष 2020 से ले कर 2024 तक डोनाल्ड ट्रंप पूरी तरह धार्मिक राजनीति करते श्वेत ईसाईयों के हाथों नाचते रहे. जिद्दी, ऐयाश और बड़बोले ट्रंप को सब से पहले 2016 के चुनाव के वक्त मोहरा बनाया था. अमेरिका में रहने वाले इवेंजेलिकल ईसाईयों ने खुल कर उन का साथ दिया था. इस के बाद श्वेत कैथोलिकों और श्वेत प्रोटेस्टैंटों ने भी ईसाई राष्ट्रवाद से सहमति जताई थी क्योंकि ये भी उन्हीं की तरह पूजापाठी हैं. सो डोनाल्ड ट्रंप के लिए चुनाव कुछ खास मुश्किल नहीं रह गया था. इस के बाद भी उन्होंने लापरवाही नहीं दिखाई और अपने नए स्टार एलन मस्क की दौलत के दम पर 10 फीसदी से भी ज्यादा डैमोक्रेटिक वोटों में सेंधमारी करने में कामयाबी हासिल कर ली.
यह बिलकुल भारत जैसा था जिस में 15 फीसदी सवर्ण एकमुश्त भाजपा को वोट देते हैं और पंडेपुजारियों, कथावाचकों के फुसलाने व डराने के अलावा अडानी और अंबानी जैसे धनकुबेरों की दौलत के दम पर पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के 70 में से 15-20 फीसदी वोट हासिल कर 30-35 फीसदी वोट ले जाने वाली भाजपा के मुखिया नरेंद्र मोदी सत्ता पर काबिज हो जाते हैं. फर्क इतना है कि अमेरिका में एलन मस्क ने खुलेआम स्विंग स्टेट्स में करोड़ों रुपए मतदाताओं में लौटरी के नाम पर बांटे जबकि भारत में अभी यह रिवाज घोषित तौर पर नहीं है, यहां चोरीछिपे रात के अंधेरे में नोट, शराब और कंबल बांटने का चलन है. इस के अलावा इलैक्टोरल बौंड यानी चुनावी चंदा भी चलता है. एक और समानता यह है कि भारत में जिस तरह मुसलमानों का डर और हौआ दिखा कर वोटों का ध्रुवीकरण हिंदूवादी करते हैं उसी तरह अमेरिका में प्रवासियों का डर दिखा कर रिपब्लिकन पार्टी ने सत्ता हासिल की है.
इस के लिए डोनाल्ड ट्रंप ने अलगअलग सभाओं में खुलेआम श्वेत ईसाईयों को यह आश्वासन दिया कि ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ मुहिम दरअसल उन के लिए ही है. उन के चर्चों के लिए है, उन के पादरियों के लिए है, उन के ब्यूरोक्रेट्स के लिए है, उन के परिवारों के लिए है, उन के बच्चों के लिए है जिन्हें स्कूलों में बाइबिल की शिक्षा दी जाएगी. सो, 5 नवंबर के नतीजे तमाम अनुमानों से उलट आए.
फंदा श्वेत ईसाईवाद का
डोनाल्ड ट्रंप के इन बयानों को समझने से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के अंदरूनी माहौल की एक बानगी देखें, तो तसवीर बहुत हद तक साफ हो जाती है कि वहां बहुत सारे मुद्दे सिर्फ भाषणों की सजावट के लिए थे वरना इकलौता मुद्दा वर्ण संकर (उस पर भी अश्वेत महिला) कमला हैरिस को राष्ट्रपति बनने से रोकना था. जैसे भारत के सवर्ण साधुसंत मानसिक गुलामी ढोते हैं वैसे ही अमेरिका के श्वेत ईसाई भी एरिजोना के इवेंजेलिकल पादरी मार्क ड्रिसकौल जैसों की धुन पर नाचते हैं जिन्होंने कमला हैरिस की उम्मीदवारी के बाद कहा था, ‘हमें ईसाई होने के नाते ‘जेजेबेल’ को सिंहासन पर बैठने से रोकने के लिए हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए.’
कहने की जरूरत नहीं कि यही बात भारत में राहुल गांधी के बारे में कही जाती है कि वे प्योर हिंदू न होने या विदेशी मूल के होने के नाते भारत के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते. उन के पूर्वज मुसलमान, ईसाई, पारसी और फलांनेढिकाने थे, उन्हें रोकने के लिए हिंदुओं को कांग्रेस को वोट नहीं देना चाहिए.
जेजेबेल बाइबिल में वर्णित एक घृणित पात्र है जिस का आशय चरित्रहीन, अनैतिक और व्यभिचारिणी स्त्री से होता है. यानी, त्रेतायुग की शूर्पणखा की तरह. सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्वेत अमेरिकी ईसाई किस हद तक गिर गए थे और किस मुंह से अमेरिका के दुनिया में सब से पुराने और सशक्त लोकतंत्र होने की दुहाई देते हैं. कमला हैरिस का गुनाह इतना भर है कि वे अश्वेत हैं. उन्हें तरहतरह से अपमानित किया गया. उन की जगह कोई और होता या होती, तो चुनाव मैदान छोड़ देता लेकिन वे आखिर तक डटी रहीं और इस छिछोरेपन के आगे उन्होंने घुटने नहीं टेके. उम्मीद ही नहीं बल्कि तय है कि भविष्य में वे और मजबूत हो कर उभरेंगी जैसे राहुल गांधी भारत में उभरे हैं. उन्हें भी धर्म और वंश के नाम पर जलील करने में सनातनी कोई शर्म नहीं बल्कि गर्व महसूस करते हैं.
अमेरिका के भी चुनावप्रचार अभियान को देख कर लगा कि वहां सभ्यता और शिक्षा के माने कितने सिमट कर रह गए हैं. लोकतंत्र के साथसाथ इन सहित बहुत सी चीजें वहां भी खतरे में हैं जिस की जिम्मेदारी और ठेकेदारी कुटिल और धूर्त धर्मांध लोगों ने डोनाल्ड ट्रंप के कंधों पर डाल दी है.
कमला को सोशल ?मीडिया पर बारबार बेइज्जत किया गया. उन्हें ‘ब्राउन’ कहा गया जो नस्ल और रंग के हिसाब से अमेरिका में एक तरह की भद्दी गाली की तरह माना जाता है. ब्राउन दरअसल उपनिवेशवाद से ताल्लुक रखता शब्द है जिस का इस्तेमाल खासतौर से उत्तरी अमेरिका में दक्षिण एशियाई और हिस्पेनिक्स लोगों को अपमानित करने के लिए किया जाता है. ये लोग गोरे अमेरिकियों और गोरे यूरोपियों की संतानें हैं. कमला पर तो सैक्सिस्ट कमैंट्स भी जम कर किए गए.
अमेरिका की रिपब्लिक ट्रोल आर्मी ने भारत की भगवा ट्रोल आर्मी को पीछे छोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कमला हैरिस पर जम कर निजी हमले किए गए, उन के बारे में झूठे किस्सेकहानियां गढ़े गए. उन के भूतपूर्व प्रेमी सेन फ्रांसिस्को के भूतपूर्व मेयर विली ब्राउन के तरहतरह के अश्लील मीम बना कर पोस्ट किए गए.
यह हकीकत कभी कमला हैरिस ने छिपाई नहीं कि 1990 के दशक में वे अपने से उम्र में ढाईगुना बड़े विली ब्राउन को डेट करती थीं. यह बात अमेरिका के लिहाज से बुरी गलत या अनैतिक नहीं समझ जाती. पर श्वेतों ने इसे यों पेश किया मानो कमला जीतीं तो पहाड़ टूट पड़ेगा और अमेरिका का नैतिक, धार्मिक व चारित्रिक पतन हो जाएगा.
सच तो यह है कि अमेरिका का नैतिक पतन पहली बार खुलेआम देखने में आया जब ट्रंप को जिताने के लिए श्वेत ईसाईयों ने तबीयत से स्याहपना दिखाया. डोनाल्ड ट्रंप और उन की व्हाइट क्रिश्चियन टीम किस महानता की तरफ वापस लौटने की बात कर रही है, यह तो कमला हैरिस की राष्ट्रपति पद की दावेदारी से ही साबित हो गया था जब मार्क ड्रिसकौल जैसे पादरियों ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया था और ट्रंप इन उज्जडों को रोकने के बजाय उन्हें और शह देते ये वादे कर रहे थे क्योंकि वे खुद भी उज्जड हैं.
ईसाई एजेंडे के वाइस कैप्टन
डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी सभाओं में बहुत स्पष्ट कहा कि मेरे प्यारे ईसाइयो- मेरा समर्थन करने वाले ईसाई नेताओं को व्हाइट हाउस में सीधी एंट्री मिलेगी.
ईसाई पूर्वाग्रह से लड़ने के लिए एक संघीय टास्क फोर्स गठित किया जाएगा.
हमें अमेरिका में धर्म को बचाना है. ‘गौड ब्लेस द यूएसए.’ बाइबिल हमें याद दिलाती है कि अमेरिका को फिर से महान बनाने के लिए सब से बड़ी चीज हमारा धर्म है.
अमेरिका में ईसाईयहूदी मूल्यों पर हमला हो रहा है जो शायद पहले कभी नहीं हुआ.
अमेरिकी अदालतों में रूढि़वादी जजों की नियुक्ति की जाएगी.
मुझे इस बार और वोट दे दो, इस के बाद आप को वोट देने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी.
इस ईसाई एजेंडे के तहत और भी कई बातें ट्रंप व उन की टीम ने कहीं, जिन के उपकप्तान जे डी वेंस थे. उन की छवि अमेरिका में ठीक वैसी ही है जैसी कि भारत में उमा भारती या गिरिराज सिंह सरीखे कट्टर हिंदूवादी नेताओं की है. पूरे प्रचार में रिपब्लिकंस ने जे डी वेंस की धार्मिक इमेज को जम कर भुनाया. मसलन, यह कि वे एक आस्थावान ईसाई हैं और नियमित चर्च जाते हैं. भारत की चुनावी सभाओं में राम की तर्ज पर जे डी ने कई बार जीसस को दुनिया का राजा बताया.
भारतीय मूल की अपनी पत्नी को उन्होंने खुद के आस्थावान ईसाई होने का श्रेय सार्वजनिक रूप से दिया जिस से गोरे लोग पत्नी की मंशा सहित, रंगत और नस्ल को ले कर सवाल न करें. गौरतलब है कि जे डी वेंस की पत्नी उषा चिलकुरी आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के छोटे से गांव पामरू की हैं, जहां के लोग अपने अमेरिकी दामाद की जीत के लिए पूजापाठ करते रहे थे.
उषा रिपब्लिकन पार्टी जौइन करने से पहले डैमोक्रेटिक पार्टी में हुआ करती थीं. पत्नी उषा को अपना धार्मिक और आध्यात्मिक गुरु बताने वाले जे डी ज्यादा नहीं, अब से 7-8 वर्षों पहले तक डोनाल्ड ट्रंप के कट्टर आलोचक हुआ करते थे सोशल मीडिया पर वे उन्हें अमेरिका का हिटलर, बेवकूफ और सनकी भी कहा करते थे.
पेशे से लेखक और निवेशक रहे जे डी का हृदय परिवर्तन एकाएक ही इतना हुआ कि वे ट्रंप के हनुमान बन गए. उन की लिखी संस्मरणात्मक किताब ‘हिलबिली एलेजी’ बेस्ट सेलर बुक्स में शुमार होती है. ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ मुहिम की स्क्रिप्ट लिखने वालों में से एक जे डी को भी माना जाता है जिन की ईसाई छवि, महत्त्वाकांक्षाओं और भारतीय पत्नी के प्रोत्साहन व मशवरे ने उन्हें श्वेत गैंग का हिस्सा बनने को मजबूर कर दिया. लेकिन इस की मुकम्मल कीमत भी उन्होंने वसूली जो वे अब अमेरिका के उपराष्ट्रपति होंगे और 2028 के लिए राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों की लिस्ट में रिपब्लिकन पार्टी में सब से ऊपर हैं.
ट्रेनिंग और ईसाइयत का कार्ड
अमेरिका की सैकंड लेडी बनने जा रहीं उषा चिलकुरी एक स्मार्ट फैशनेबल और सांवली रंग की खूबसूरत महिला हैं जो अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जौन रौबर्ट्स की क्लर्क रह चुकी हैं. हैरानी की बात यह भी है कि जे डी जितने कट्टर ईसाई हैं, उषा उतनी ही कट्टर हिंदू हैं जिन्होंने शादी चर्च में नहीं बल्कि मंदिर में की थी और अपने तीनों बच्चों के नाम भी हिंदुओं सरीखे रखे.
धर्म और उस के मानने वाले, उस पर अपनी दुकान चलाने वाले कितने शातिर और धूर्त होते हैं, यह श्वेत ईसाईयों के दोहरे रवैये से उजागर हुआ जिन्हें कमला हैरिस में तो ब्राउनपना नजर आया लेकिन उषा चिलकुरी में नहीं. डैमोक्रेटिक्स चूंकि रिपब्लिकंस की तरह छिछोरे नहीं हैं इसलिए उन्होंने इसे मुद्दा नहीं बनाया. नतीजतन, जे डी की इमेज का फायदा वोटों की शक्ल में ट्रंप को मिला.
डोनाल्ड ट्रंप की दूसरी जीत एकाएक ही आसमान से नहीं टपकी है, बल्कि इस के लिए पादरियों ने परमेश्वर से उन के पुराने पाप धुलवाए होंगे और प्रायश्चित्त भी करवाया होगा. इस शुद्धीकरण के बाद उन्हें बतौर ईसाई सुल्तान पेश किया गया. यह तैयारी 2020 से ही चल रही थी और इस के निर्मातानिर्देशक वगैरह चर्चों के कर्ताधर्ता ही थे जिन्होंने तय कर लिया था कि ईसाई राज अगर कोई स्थापित कर सकता है तो वे डोनाल्ड ट्रंप हैं.
यही कभी भारत में हुआ था जब संतों, महंतों, मठाधीशों और शंकराचार्यों ने वाराणसी व प्रयागराज जैसे धार्मिक शहरों में आयोजित धर्मसंसदों में एक लाइन का एजेंडा पारित कर दिया था कि मोदी ही प्रधानमंत्री होंगे क्योंकि वही राममंदिर बनवा सकते हैं, मुसलमानों को खदेड़ सकते हैं और अगर सबकुछ प्लान के मुताबिक रहा तो जातिगत आरक्षण भी खत्म कर सकते हैं. यानी, संविधान को बेअसर कर सकते हैं.
इस बाबत उत्साहित धर्मगुरुओं ने प्रस्तावित हिंदू राष्ट्र का संविधान तक लिखना शुरू कर दिया था. लेकिन 4 जून, 2024 के नतीजों ने उन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. इस के बाद भी वे बहुत ज्यादा दुखी नहीं हैं क्योंकि मंदिर फलफूल रहे हैं, दक्षिणा इफरात से बरस रही है और दलितों व मुसलमानों को उन की हैसियत समझ आ रही है कि वह फिर से दोयम दर्जे की हो चुकी है.
अमेरिका में दिक्कत यह थी कि डोनाल्ड ट्रंप की धार्मिक इमेज कमजोर थी जिस की भरपाई के लिए एक बाइबिल, ‘गौड ब्लेस द यूएसए’ लिखवाई गई जिस की करोड़ों प्रतियां बिकीं. एहतियात के तौर पर यह किताब चीन में छपवाई गई. अमेरिकी मीडिया ने इसे खूब स्पेस दिया जो उस की नीतियों से मेल खाती बात नहीं थी. लेकिन ट्रंप और मस्क पैसा बरसा रहे थे, सो, उन्होंने भी भारतीय मीडिया से प्रेरणा लेते गंगा में हाथ धो लेना फायदे का सौदा समझा, कुछ तो इस में डुबकी लगा कर नहा ही लिए.
इश्यू नहीं यीशू चले
कमला हैरिस को हराने के लिए ट्रंप ‘गौड ब्लेस द यूएसए’ का दांव नाकाफी था, इसलिए ट्रंप ने खुद को सुपीरियर व्हाइट साबित करने के लिए कमला की नस्ल और रंग पर निशाना साधना शुरू कर दिया. उन्हें वामपंथी, कम्युनिस्ट और समाजवादी भी कहा, साथ ही, इस के काल्पनिक खतरे भी गिनाए. कमला हैरिस के नाम का उच्चारण कुछ इस तरीके से वे करने लगे थे कि सुनने वाले कमला की जगह काला सुने. काफी यह भी नहीं था, इसलिए ट्रंप की सभाओं और रैलियों में ऐसे श्वेत युवाओं के हुजूम नजर आने लगे जिन की शर्टों पर लिखा होता था- ‘यीशु मेरे उद्धारकर्ता हैं ट्रंप मेरे राष्ट्रपति हैं’, ‘ईश्वर बंदूकें और ट्रंप’ और ‘अमेरिका को फिर से ईश्वरीय बनाओ’. ये युवा गौड ब्लेस द यूएसए गीत भी गला फाड़ कर गाते थे तो लगता ऐसा था मानो मोदी की सभा में भगवा गमछाधारी गा रहे हैं कि जो राम को लाए हैं हम उन को लाएंगे.
इस श्वेत आतंक का गैरश्वेत ईसाईयों, अश्वेतों और असंबद्ध समूह पर फर्क नहीं पड़ा होगा, ऐसा न कहने की कोई वजह नहीं. ट्रंप की जीत इस की गवाही देती है कि वे इश्यूज पर नहीं बल्कि यीशु पर जीते हैं. भारत में भी भाजपा काम पर नहीं बल्कि राम नाम पर चुनाव जीतती है. मुद्दों की भीड़ में मुद्दा एक ही चला कि अगर कमला हैरिस जीतीं तो पूरा अमेरिका प्रवासियों से भर जाएगा और ये बाहरी विधर्मी लोग मूल अमेरिकियों को सड़क पर ला देंगे.
एक भाषण में डोनाल्ड ट्रंप ने कमला हैरिस को खतरनाक उदारवादी महिला इसी मंशा से बताया था. यह डर भारत में राहुल गांधी के नाम पर फैलाया जाता है कि अगर वे प्रधानमंत्री बन पाए तो हिंदुस्तान को मुसलिम राष्ट्र बना देंगे. इस डर को फर्जी, मनगढ़ंत आंकड़ों के जरिए इतने आत्मविश्वास से पेश किया जाता है कि लोग दहल उठते हैं और सामान्य बुद्धि व तर्क से उन का कोई लेनादेना नहीं रह जाता. वे, बस, यही देखते हैं कि मंदिरों में नोट चढ़ाने और मोदी को वोट देने से ही यह पीपल वाला भूत पीछा छोड़ेगा. इस भूत का हौरर फिल्मों के भूतों की तरह कोई अस्तित्व नहीं होता.
इस मुद्दे या इश्यू पर एक और हैरत वाली बात यह नजर और समझ आती है कि जिस तरह से भारत के कुछ पिछड़ों को अपने अगड़ी जमात में होने की गलतफहमी हो आई है, वैसे ही अमेरिका में 3-4 पीढि़यों से बसे गैरअमेरिकी लोगों को यह वहम हो चला है कि वे अब श्वेतों के बराबर सामाजिक दर्जा रखने लगे हैं. अपने इस वहम को पाले रखने के लिए उन्होंने ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी को वोट दे दिया. इन में बड़ी तादाद में भारतीय मूल के अमेरिकी भी शामिल हैं जो परंपरागत रूप से डैमोक्रेटिक पार्टी के वोटर व समर्थक रहे हैं. ये लोग भूल रहे हैं कि उन की हैसियत ठीक वैसी ही रहनी है जैसी भारत में गैरसवर्णों की है. हां, इतना जरूर है कि जब तक वे चर्च और मंदिरों की दानपेटियों में पैसा चढ़ा रहे हैं तब तक उन्हें छेड़ा और प्रताडि़त नहीं किया जाएगा लेकिन तिरस्कार से वे खुद को ज्यादा दिनों तक बचा नहीं सकते.
धार्मिक टैक्स
धार्मिक टैक्स दुनियाभर में अमेरिका और भारत की तर्ज पर वसूला जा रहा है. कनाडा के सिख इस की ताजा मिसाल हैं जो कनाडाई लोगों की शह पर हिंदुओं को भगा कर मुख्यधारा में होने का भ्रम पाले बैठे हैं. कल को अमेरिका और अमेरिकी भी इसी राह पर चल पड़ें तो बात कतई हैरानी की नहीं होगी.
चुनावी तौर पर तो श्वेत ईसाईयों ने गैरश्वेत ईसाईयों और अश्वेतों को दोफाड़ कर ही दिया है. अब यह खेल धार्मिक और सामाजिक तौर पर भी और खुल कर खेला जा सकता है जिस में मुख्यधारा के लोग चर्चों में प्रार्थना करते नजर आएंगे और सहायक धाराओं वाले आपस में जूतमपैजार कर रहे होंगे.
प्रवासी अब वैश्विक मुद्दा बनाए जा रहे हैं. यह दुनियाभर में दक्षिणपंथ के पसरने का चिंताजनक उदाहरण है जिसे धर्म के धंधेबाजों ने पैसा उगाहने का जरिया बना रखा है. डोनाल्ड ट्रंप, बेंजामिन नेतन्याहू और नरेंद्र मोदी जैसे नेता सत्तासुख भोग रही कठपुतलियां मात्र हैं, फिर भी ढोल सभी धर्म विश्वबंधुत्व और भाईचारे का पीटते हैं तो तरस आना और चिंता होना स्वाभाविक है कि पूरा विश्व एक बारूद के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जिस के विस्फोट, छिटपुट ही सही, देखने में आने लगे हैं.
बात जहां तक अमेरिका की है, तो उस का लोकतंत्र और भविष्य इस बार तो ट्रंप के हाथों में रत्तीभर भी सुरक्षित नहीं है क्योंकि, हकीकत में, वह ट्रंप के नहीं बल्कि चर्चों और पादरियों के हाथों में है और दिलचस्प बात यह कि लोकतंत्र के जरिए है. न कहने की कोई वजह नहीं कि अब अमेरिका कहने को ही व्हाइट हाउस से चलेगा वरना चलना तो उसे अब चर्चों से है. डोनाल्ड ट्रंप 20 जनवरी को शपथ लेंगे लेकिन अभी से व्हाइट हाउस में श्वेतों की भरती शुरू हो गई है.
67 वर्षीया सूसी विल्स को व्हाइट हाउस चीफ औफ स्टाफ नियुक्त किया गया है. कट्टर श्वेत ईसाई यह महिला डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव अभियान की प्रमुख थीं जिन की मरजी के बिना अब व्हाइट हाउस का पत्ता भी नहीं हिलेगा.
डोनाल्ड ट्रंप को दोबारा राष्ट्रपति बनाने की गोरे ईसाईयों की मंशा साल 2022 में भी उजागर हुई थी, तब प्यू रिसर्च सैंटर के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 60 फीसदी ईसाईयों ने कहा था कि अमेरिका के संस्थापकों का इरादा इसे ईसाई राष्ट्र बनाने का था. 45 फीसदी लोगों ने कहा था कि अमेरिका को ईसाई राष्ट्र होना चाहिए. सर्वे रिपोर्ट यह भी बताती है कि 81 फीसदी श्वेत इवेंजेलिकल प्रोटेस्टैंटों ने कहा था कि संस्थापकों का इरादा अमेरिका को ईसाई राष्ट्र बनाने का था.
ऐसे कई सर्वेक्षण इस हकीकत पर मुहर लगाते हुए हैं कि अमेरिका को श्वेत ईसाई राष्ट्र बनाने की मुहिम को अंजाम डोनाल्ड ट्रंप ही दे सकते हैं क्योंकि दोनों बार, इत्तफाक से ही सही, उन्होंने महिलाओं को हराया है, इस से उन की स्त्रीविरोधी इमेज और पुख्ता हुई है. यह बात अमेरिकी समाज के पुरुष वर्चस्व और सत्तावादी होने की पुष्टि करते उन्हें ईसाईयों का नायक भी घोषित करती है.
गर्भपात के मुद्दे पर ट्रंप गोलमोल बातें करते रहे तो सिर्फ इसलिए कि कहीं महिलाओं के वोट न कट जाएं लेकिन अब वे शायद खुल कर बोलेंगे कि एबौर्शन ईसाई धर्म के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ है क्योंकि परमेश्वर ऐसा नहीं चाहता. गौरतलब है कि गर्भपात के चर्चित मुकदमे रो बनाम वेड पर आया 2022 का फैसला ईसाइयत के हक में था और इसे उन्हीं रूढि़वादी जजों ने दिया था जिन्हें ट्रंप ने नियुक्त किया था.
कमला हैरिस इस अहम मसले पर बहुत स्पष्ट थीं लेकिन एबौर्शन पर प्रवासियों का मुद्दा भारी पड़ा जिस की बाबत शुरू से ही हमलावर रहे ट्रंप ने धमकियां देना शुरू कर दिया है.
महान अमेरिका के माने
कमला हैरिस के इस चुनाव में होने के माने कई वजहों से औपचारिक हो गए थे जिन की अब कोई अहमियत नहीं. लेकिन अपने चुनावप्रचार में उन्होंने जो महत्त्वपूर्ण बातें कहीं उन में से एक थी कि ट्रंप फासीवादी हैं, दूसरी यह कि अमेरिका में लोकतंत्र खतरे में है और इन से भी ज्यादा अहम यह थी कि हम वापस पीछे नहीं जा रहे हैं. ट्रंप का नारा चला कि हम अमेरिका को फिर से महान बनाएंगे. भारत के संदर्भों में समझ जाए तो रामराज्य लाएंगे और मनुवादी व्यवस्था भी नए तरीके से लागू करेंगे और एक हद तक ऐसा हो भी रहा है.
अमेरिका बाइबिल या चर्चों से महान नहीं बना बल्कि वह महान बना था अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति के चलते जिस में प्रवासियों का योगदान कमतर नहीं था. अमेरिका महान बना था नएनए अनुसंधान और आविष्कार करने वाले वैज्ञानिकों के दम पर. अमेरिका का महान बनना तब शुरू हुआ था जब वहां से संवैधानिक तौर पर गुलामी या दासप्रथा का खात्मा हुआ था और हर तरह के व हर धर्म और संस्कृति के लोग वहां जा कर बसने लगे थे.
ये लोग अमेरिका को अपने वतन के बराबर ही प्यार करते थे और अभी भी करते हैं. लेकिन 5 नवंबर का नतीजा कई खतरे ले कर आया है क्योंकि बड़े और घोषित तौर पर अमेरिका को एक धार्मिक राष्ट्र बनाने की मुहिम परवान चढ़ रही है. भारत की तरह वहां भी कट्टरवादी अपना एजेंडा चला रहे हैं. ऐसे में यह आशंका है कि वहां के राजनेताओं और धर्मगुरुओं का गठजोड़ अमेरिका से उस के अमेरिका होने की पहचान छीन भी सकता है.