मनोज बाजपेयी की फिल्म ‘गुलमोहर’ को सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्का  मिला है. फिल्म को स्पैशल मेंशन और बेस्ट स्क्रीनप्ले के अवार्ड से भी नवाजा गया. इसे ले कर अभिनेता ने अपनी खुशी जाहिर की है. उन्होंने इसे पूरी टीम के लिए बड़ी उपलब्धि बताया है.

फिल्म गुलमोहर से शर्मिला टैगोर ने पर्दे पर अपनी वापसी की है. इस में बत्रा परिवार की कहानी को दिखाया गया है. इस फिल्म का निर्देशन राहुल वी चिटेला ने किया है. यह फिल्म 3 मार्च 2023 को रिलीज हुई थी. शर्मिला टैगोर और मनोज बाजपेयी के अलावा इस फिल्म में सिमरन, सूरज शर्मा, कावेरी सेठ, उत्सवी झा, जतिन गोस्वामी, चंदन रौय और अमोल पालेकर जैसे सितारे नजर आए थे.

असल में इस की कहानी एक सयुक्त परिवार की है, जिस में परिवार और रिश्तों की भावनाओं को बारीकी से दिखाया गया है, जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया. आप को बता दें कि पारिवारिक पत्रिका ‘गृहशोभा’ (दिल्ली प्रैस) इस की मीडिया पार्टनर रही, क्योंकि यह पत्रिका रिश्तों की गहराई को हमेशा महत्व देती है.

रिश्तों को दें समय

इंटरव्यू के दौरान रिश्ते और संबंधों में हल्कापन आने के बारे में मनोज का कहना है कि शहरों में किसी के पास रिश्ते को बनाए रखने का समय नहीं होता है, जबकि गांव में रिश्तों की अहमियत आज भी है. वहां रिश्ते मजबूत होते हैं. शहरों में व्यक्ति काम से अपनेआप को बाहर नहीं निकाल पाता, ताकि रिश्तों को मजबूत कर पाएं. रिश्तों को उतना ही महत्व देना चाहिए,जितना काम को देते हैं, ताकि बाद में कोई अफसोस न हो, क्योंकि जब अपनेलोग बिछड़ते हैं, तभी रिश्तों की गहराई समझ में आती है.

मनोज बाजपेयी आज की तारीख में एक सफल कलाकार हैं, जिन्होंने दर्शकों को अपनी प्रतिभा से लोहा मनवाया है, उन के सफर की कहानी आज के यूथ के लिए प्रेरणादायक है.

मनोज बाजपेयी की 100 फिल्मों का सफर

साधारण कदकाठी और शक्ल सूरत के अभिनेता मनोज बाजपेयी ने 30 सालों में 100 फिल्मों का सफर तय किया है और अपनी एक पहचान इंडस्ट्री में बनाई है. उन के यहां तक का सफर आसान नहीं था, क्योंकि उन का कोई गोडफादर नहीं था, ऐसे में इंडस्ट्री में सफल होना प्रेरणादायक है, उन्होंने उन के बारे में बात की आइए जानते हैं.

साधारण जीवन

अभिनेता मनोज बाजपेयी फिल्मों में विलेन से ले कर कौमेडी और गंभीर किरदार निभाया है. उन्होंने एक्टिंग की शुरुआत दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक ‘स्वाभिमान’ से किया है. उन्हें फिल्मों में सब से पहले मौका शेखर कपूर ने साल 1994 में फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में दिया था. वहीँ से उन के फिल्मी कैरियर की शुरुआत हुई, लेकिन उन्हें पहचान मिली साल 1998 में रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘सत्या’ से. फिल्म ‘सत्या’ और ‘शूल’ के लिए उन्हें फिल्मफेयर बेस्ट एक्टर का अवार्ड भी मिला है, जबकि फिल्म ‘पिंजर’ में शानदार एक्टिंग के लिए उन्हें नैशनल फिल्म अवार्ड (स्पैशल ज्यूरी) भी मिला.

पश्चिमी चंपारण जिले के नरकटियागंज के छोटे से गांव बेलवा में 1969 को हुआ. उन के पिता खेती किया करते थे. उन के पिता की इच्छा थी कि वे डाक्टर बनें, लेकिन उन्हें अभिनेता बनने का शौक था और 18 वर्ष की आयु में दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला लिए. मनोज बाजपेयी ने जिंदगी में काफी चुनौतियों का सामना किया है. पहले उन की भूमिका उन के मन मुताबिक नहीं मिली थी, इस से वे कई बार मायूस और निराश हुए और आत्महत्या तक करना चाहते थे, लेकिन तभी उन्हें रामगोपाल वर्मा की फिल्म सत्या मिली और वे सफल एक्टर के रूप में औडियंस में परिचित हुए.

धैर्य रखना जरूरी

उन की सफलता का राज वे खुद की धीरज को मानते हैं. यही वजह है कि उन्होंने हर तरह की फिल्में कीं और कई पुरस्कार भी जीते हैं. बचपन से कविताएं पढ़ने का शौक रखने वाले मनोज बाजपेयी एक थिएटर आर्टिस्ट भी हैं. उन्होंने हिंदी और अंगरेजी में हर तरह की कविताएं पढ़ी हैं. साल 2019 में साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी नवाजा गया है.

लगातार काम करते रहना जरूरी

मनोज बाजपेयी की 100वीं फ़िल्म भैयाजी है, जो पर्दे पर कमजोर पटकथा की वजह से सफल नहीं रही, हालांकि ये एक कमर्शियल तरीके की फिल्म रही, जिस के निर्माता खुद मनोज बाजपेयी ही थे. हालांकि उन्होंने इस तरह की कमर्शियल फिल्म में खुद को कभी फिट नहीं पाया. निर्देशक के पैशन पर उन्होंने स्वीकृति दी, पर फिल्म नहीं चली.

मनोज बाजपेयी इस बात से खुश है कि उन्होंने 30 वर्षों में 100 फिल्में कर डाली हैं, जिसे वे अपने जीवन की बड़ी उपलब्धि मानते हैं. उन्होंने कहा है कि मुझे नहीं पता था कि मैं पहले ही 99 फिल्में पूरी कर चुका हूं, लेकिन भैयाजी के निर्देशक अपूर्व सिंह कार्की के याद दिलाने पर मुझे अच्छा लगा. यह फिल्म उन सभी फिल्मों को श्रद्धांजलि देने का सब से बेहतर तरीका है,जिस के वजह से मैं इंडस्ट्री में आया और अपने सपने को साकार किया. साथ ही एक अभिनेता भी बना.

मनोज के इतने सालों के कैरियर में वे धैर्य को प्रमुखता से मानते हैं. वे कहते है कि “मैं ने 30 सालों में इतना भी अधिक काम नहीं किया है. मैं ने कुछ बड़ी फिल्में तो कुछ छोटी फिल्में, टीवी आदि पर भूमिकाएं की हैं, जिस में कुछ सफल तो कुछ असफल भी हुई है, लेकिन मैँ हमेशा लगा रहा और जब भी मैँ नीचे गिरा, एक बड़े निर्देशक ने मुझ पर भरोसा किया और आगे आने का मौका दिया. बचपन से मेरे अंदर जिद्दी स्वभाव है, इसलिए गिरने पर भी टूटता नहीं, कैसे भी आगे बढ़ने की कोशिश करता रहता हूं, धैर्य भी बनाए रखता हूं. किसी फिल्म के फ्लौप पर मैँ 6 घंटे यानि आधे दिन से अधिक दुखी नहीं होता.”

किसी फिल्म के न चलने को मनोज गलत नहीं मानते, क्योंकि सभी फिल्में सफल नहीं हो सकती, कुछकुछ कारणों से असफल भी होती हैं. मनोज की इसी सोच ने उन्हें इंडस्ट्री में टिकाए रखा. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है कि “मैँ फिल्मों में किरदार की मजबूती को देखता हूं, फिर चाहे भूमिका किसी भी किरदार का हो मुझे करना पसंद होता है, क्योंकि एक हवलदार या डब्बेवाले की भूमिका भी दर्शकों के ऊपर छाप छोड़ सकती है.”

गुड लुकिंग नहीं हूं

मनोज खुद को एक हैंड्सम सितारे के रूप में कभी नहीं देखते, यही वजह है कि वे एक आम इंसान की तरह भूमिका निभा कर दर्शकों के दिल पर राज किया. वे कहते हैं कि “हमारे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अधिकतर गुड लुक को प्रमुखता सालों से दी जा रही है. ऐसे में गुड लुक न रखने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, ओमपुरी, नाना पाटेकर आदि सभी को झेलना पड़ा है, लेकिन उन सभी ने अपनी प्रतिभा और मेहनत से इसे तोड़ा है. इंडस्ट्री आज भी वैसी ही है, लेकिन हमें इस से दुखी होने की कोई जरूरत नहीं. कलाकार को मेहनत और जिद से काम करते रहना पड़ता है और कोई आ कर उसे अवश्य तोड़ देता है. कोई निर्माता निर्देशक अगर गुड लूकिंग को अपने फिल्मों में जगह देना चाहता है तो ये उस की मर्जी है, लेकिन मैँ अपनी पत्नी और मां के लिए सब से अधिक गुड लुकिंग व्यक्ति हूं. ऐसे में मुझे ऐसी औडियंस क्रिएट करनी है, जिन के लिए मैँ हीरों हूं और उन के लिए ही मैँ मेहनत करता हूं.”

किए संघर्ष

मनोज अपने ऐक्टिंग कैरियर की शुरुआत को याद करते हुए कहते हैं कि “मुझे याद आता है, मैं एक्टर बनना चाहता था और मैं ने 18 साल की उम्र में गांव छोड़ा था. गांव में तब फ़ोन की व्यवस्था नहीं थी, बाद में टेलीफ़ोन आया और कम्युनिकेशन स्मूथ हो गया और अब सब के हाथ में मोबाइल फ़ोन है, लेकिन बात नहीं होती. इस के अलावा जब गांव से निकला, तो परिवार से दूर हो गया, जब मैं ने उन्हें गांव से दिल्ली लाया, तो मैं मुंबई आ गया, इस तरह से मैं उन के साथ नहीं रह पाया, लेकिन कुछ अपनी मां से और कुछ अपने पिता से अडौप्ट किया है. परिवार का साथ मिल कर रहना और बातचीत करना बहुत जरुरी होता है. इस से इमोशनल बौन्डिंग बढ़ती है, जिस की आज की स्ट्रैसफुल लाइफ में बहुत जरुरी होता है.”

इंडिपेंडेंट फिल्मों के दौर को मनोज अच्छा मानते हैं और कहते हैं कि “इंडिपेंडेंट सिनेमा में पैसे कम होते हैं, लेकिन कहानी को अपने हिसाब से कहने का मौका मिलता है. आज सब के पास वौयस है, पहले ऐसा नहीं था. फिल्म किसी को कुछ सिखाती नहीं, रिलेट कराती है. इसलिए विश्वास के साथ काम करें, तो सफल अवश्य होगी. मुझे याद है, मुझे फिल्मों में एंट्री मिलना थोड़ा मुश्किल था, लेकिन मैं ने एक्टिंग की ड्रीम को नहीं छोड़ा. बदलाव जरुरी था, लेकिन ओटीटी ने इस बदलाव को जल्दी ला दिया. फिल्म मेकिंग की तकनीक भी बहुत बदली है.”

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