“भाभी, ऊपर के टैंक में पानी नहीं चढ़ रहा. सब नहाने के लिए इंतज़ार कर रहे हैं,” नेहा ने धीरे से कान में कहा तो मालती ने अपनी आंसुओं से तर आंखें ऊपर उठाईं.
“मेरे मोबाइल में ‘पानी वाला’ के नाम से नंबर सेव है, उसे फोन कर के बुला लो,” मालती ने जवाब दिया. नेहा ने मालती का मोबाइल ले जा कर अपने छोटे भाई विशाल को दिया और विशाल ने पानी वाले को बुला कर मोटर चालू करवाई.
“मिस्त्री 200 रुपए मांग रहा है,” विशाल ने मालती से आ कर कहा तो अब मालती को उठना ही पड़ा. वह अलमारी में रखे पर्स में से रुपए निकाल कर लाई और विशाल को थमा दिए. महिलाओं के बीच आ कर बैठते ही उस की रुलाई एक बार फिर से फूट पड़ी.
अभी 3 दिन ही तो हुए हैं पति विनय को अंतिम सांस लिए. 10 दिनों की हौस्पिटल की भागदौड़ और डाक्टरों के चक्करों के बाद भी वह अपने पति की सांसें लौटा लाने में कामयाब नहीं हो पाई थी. इस बीच परिवार के किसी सदस्य ने एक बार भी आ कर उस से नहीं पूछा कि उसे किसी प्रकार की कोई जरूरत तो नहीं है. पता नहीं सब ने विनय की बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया या मालती की आत्मनिर्भरता को अधिक गंभीरता से लिया.
अरे मालती अकेली ही सब संभाल लेगी. आत्मनिर्भर है वह, जानती है कि कौन सा काम कैसे करना है. सब की सोच यही थी. और शादी के बाद से आज तक वह सब संभाल भी रही थी लेकिन यही आत्मनिर्भरता उस के लिए अभिशाप बन गई.
बेटे की बीमारी की खबर सुन कर सास आई तो थी उस की मदद करने के लिए लेकिन उस के आने से भी उस का काम आसान होने के बजाय बढ़ा ही था. सास भी हर बात के लिए उसी पर निर्भर हो गई थी. यहां तक कि सब्जी-राशन तक के फैसले भी मालती को खुद ही लेने पड़ रहे थे. और फिर अचानक विनय का यों साथ छोड़ जाना… बेचारी मालती तो पति की मृत्यु पर खुल कर रो भी नहीं पा रही थी. क्या करती. जैसे ही कोई नई समस्या आती, सब मालती का मुंह ताकने लगते और फिर उसे अपने आंसुओं को भीतर समेट कर उस समस्या का हल निकालने में जुटना पड़ता, आत्मनिर्भर जो ठहरी.
ससुराल का भरापूरा परिवार छोड़ कर जब मालती विनय के साथ उस की पोस्टिंग पर आई तो एकल परिवार की जिम्मेदारियों से घबरा गई थी. विनय तो सुबह का गया देर शाम तक घर लौटता था और उस पर भी अकसर टूर पर ही रहता था. ऐसे में बिजलीपानी के बिल भरवाने से ले कर बैंकबीमे आदि के काम भी अटकने लगे और बारबार पनेल्टी लगने लगी तो विनय ने उसे आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में पहल करनी शुरू कर दी. धीरेधीरे सारी जिम्मेदारियां मालती अपने ऊपर ओढ़ती गई और विनय चिंतामुक्त हो कर अपनी नौकरी करने लगा.
अपने हिस्से के हर काम उसे सिखाता विनय अनजाने ही उस के भीतर बोए आत्मविश्वास के बीज को पोषितपल्लवित करता जा रहा था. और एक दिन वह आत्मनिर्भरता का बीज वयस्क पेड़ बन उस के भीतर लहलहाने लगा था. लेकिन तब मालती कहां जानती थी कि आत्मनिर्भर होना उस के लिए इतना कष्टदायक हो जाएगा कि पति को याद कर के खुल कर रो भी न सकेगी वह.
उस से कहीं अच्छी दशा में तो मांजी और नेहा ही हैं जो बेशक हर बात में किसी सबल साथ का मुंह ताकती रहती हैं लेकिन कम से कम अपने बेटे और भाई की मृत्यु पर जीभर कर रो तो सकती हैं, यह सोचते ही मालती की हिचकियां बंध जातीं.
सामाजिक औपचारिकताएं पूरी होने के बाद सभी एकएक कर अपने कामधंधे और घरों को लौट गए.
‘यों तो मालती आत्मनिर्भर है, सब संभाल ही लेगी, बस कुछ दिन तुम उस के पास रह भर जाओ ताकि उसे अकेलापन न लगे,’ कहते हुए ससुरजी ने मांजी को उस के पास छोड़ दिया था. मालती कहती भी क्या, रह गईं दोनों सासबहू अकेली.
विनय के जाने के बाद उस की पैंशन, बीमा और ग्रेज्युएटी का भुगतान, अनुकंपा के आधार पर मालती को नौकरी आदि सब के लिए मालती अकेली ही जूझती रही थी.
ओह विनय, क्या इसी दिन के लिए तुम ने मुझे आत्मनिर्भर बनाया था? यह सोच कर मालती रो पड़ती थी. पति की यादों और उन की रिक्तता से उत्पन्न हुए शोक को मजबूती से भीतर दबा कर शारीरिक व मानसिक रूप से थकीहारी जब शाम को लौटती तो मांजी पानी के गिलास के साथ दिनभर की डाक के रूप में समस्याओं का पिटारा भी साथ ही थमा देती थीं.
विनय भी न, गज़ब इंसान था, कहांकहां पांव फंसा रखे थे कुछ नहीं पता…डाक देखतेदेखते मालती का सिर चकराने लगता. कोई म्यूच्यूअल फंड का कागज तो कोई इनकम टैक्स का रिटर्न; कोई किसी पत्रिका की सदस्यता तो कोई किसी सामाजिक संस्था से जुडाव… विनय में जैसे पूरा एक समाज समाया हुआ था. और वह ये सब मालती के भरोसे ही तो किया करता था. कागज संभालती मालती की आंखें भर आतीं.
‘बहू देख तो, यह एक कागज आया था आज,’ मांजी ने एक रजिस्टर्ड पत्र उस के सामने रख दिया. देखा तो विनय के नाम इनकम टैक्स विभाग का नोटिस था. उस के खाते में बीस हजार रुपए का टैक्स बकाया था.
‘यह कैसे संभव है. मैं तो नियम से विनय का टैक्स भरवाती आई हूं. फिर यह चूक कैसे हो गई,’ मालती ने माथा पकड़ लिया. रातभर सोचतीविचारती रही कि पैसे की व्यवस्था कैसे करेगी. कोई राह नहीं सूझ रही थी.
सुबह 10 बजते ही मालती अपने सीए से मिलने पहुंची. उसे नोटिस दिखाया.
‘कहीं किसी अमाउंट की पोस्टिंग में गड़बड़ी है, फ़िक्र की कोई बात नहीं है. मैं ठीक कर देता हूं. विनय जी का कोई टैक्स बकाया नहीं है. आप को तो बल्कि 15 हजार रुपए का रिफंड मिलेगा. बस, थोड़ी सी फौर्मेलिटी करनी पड़ेगी,’ सीए ने विनय का खाता चैक कर बताया तो मालती ने राहत की सांस ली. इसलिए नहीं कि 15 हजार रुपए का रिफंड हो रहा था बल्कि इसलिए कि वह विनय की अपेक्षाओं पर खरी उतरी थी. जिस भरोसे के साथ विनय उसे आत्मनिर्भर बनाना चाहता था आज वह उस विश्वास को हासिल कर पाई थी.
इसी तरह विनय की यादों को सहेजतेसमेटते और जीने के लिए लड़तेजूझते साल बीत गया. जिंदगी एक बार फिर से दबीदबी सी मुसकराने लगी थी. घने पेड़ों को चीरती हुई एक आशा की किरण जमीन पर उतरने को आतुर थी.
मालती को विनय की जगह उस के औफिस में नौकरी मिल गई. आर्थिक तंगी दूर हो गई. अपने काम में डूबने से मालती का मन अवसाद से बाहर आ रहा था. उस का घर और नौकरी के तराजू पर संतुलन बहुत अच्छे से चलने लगा था. ठीक वैसे ही जैसे बांस पर चढ़ी नटनी का चलता है. हां, यह जीवन नट का खेल ही तो है जिसे सब अपनेअपने तरीके से खेलते हैं. कोई रस्सी पर चल कर दूसरे किनारे पहुंच जाता है तो कोई बीच राह में ही गिर पड़ता है.
जिंदगी की गाड़ी फिर से रफ़्तार पकड़ने लगी थी लेकिन वो रास्ते ही क्या जो सीधे गुजरते जाएं. बिना मोड़ के भी कहीं जिंदगी कटी है भला? इसी महीने ससुरजी का रिटायरमैंट है. मांजी तो पहले ही चली गई थीं. मालती भी एक सप्ताह की छुट्टी ले कर गई है. बेटे के जाने के बाद से ससुरजी उसे ही अपना बेटा समझने लगे थे. रिटायरमैंट वाले दिन परिवार सहित सभी दोस्तरिश्तेदार ससुरजी को लिवाने उन के औफिस गए थे.
‘इस औफिस की परंपरा रही है कि रिटायर होने वाले कर्मचारी को विदा करते समय विदाई में भुगतान का चैक दिया जाता है लेकिन कुछ शासकीय समस्याओं के चलते इस बार यह नहीं हो सका, हमें इस का खेद है. जल्द ही सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली जाएंगी. हम इन के उत्तम स्वास्थ्य की कामना करते हैं.’ ससुर जी के बौस ने उन के सम्मान में अपना वक्तव्य दिया. सुनते ही विशाल भड़क गया.
‘यह क्या बाबूजी, न पैंशन बनी न ग्रेज्युएटी के पेपर. अगले ही महीने हाथ तंग हो जाएगा. मुझे तो इन सरकारी कामों की अधिक समझ भी नहीं है और अब तो भैया भी नहीं हैं. आप भी इस उम्र में कहांकहां चक्कर काटेंगे,’ विशालजी ने जरा नाराजगी से अपने पिताजी से कहा.
‘कोई बात नहीं. यह मेरी आत्मनिर्भर बहू है न, सब संभाल लेगी,’ ससुरजी ने भरपूर स्नेह के साथ मालती की तरफ देखा तो मालती का चेहरा आत्मविश्वास से दमक उठा लगा मानो विनय ही ससुरजी के चेहरे में से झांक रहा है.