2024 के लोकसभा चुनाव से पहले महिला आरक्षण के बड़ा मुद्दा बनता दिख रहा था. मोदी सरकार ने लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पास किया था. यह साफ हो गया था कि महिला आरक्षण 2029 के पहले लागू नहीं हो सकेगा, लेकिन महिलाओं को इतनी उम्मीद थी कि 2024 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं को ज्यादा टिकट मिल सकेंगे. जब महिलाओं को लोकसभा में टिकट देने का मौका आया तो सभी दलों की हालत एक जैसी दिखी. केवल टिकट देने की ही बात नहीं थी पार्टी संगठनों में महिलाओं को हाशिए पर रखा गया है.

महिला आरक्षण को संविधान के 106वें संशोधन अधिनियम के तहत मोदी सरकार ने ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ बनाया. इस के तहत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया है. इस का श्रेय लेने के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों तरफ से प्रयास किए गए. लेकिन जब लोकसभा चुनाव में टिकट देने का नम्बर आया तो दोनों ही दल फिसड्डी साबित हुए.

कांग्रेस द्वारा केवल 13.8 प्रतिशत महिलाओं को टिकट दिया गया. भाजपा ने 16.1 प्रतिशत महिलाओं को टिकट दिया. यह बात और है कि चुनाव में महिला आरक्षण बिल पास करने का श्रेय लेने का काम चुनावी प्रचार में किया गया. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बताया कि कैसे महिला आरक्षण विधेयक ‘राजनीतिक कारणों से’ 30 वर्षों तक लटका रहा, और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इसे ठंडे बस्ते से बाहर लाया गया. उन्होंने कहा, ‘यह हमारी सरकार की फैसले लेने की मानसिकता को दर्शाता है.’

जिन दलों की कमान महिला नेताओं के हाथ है वहां भी महिला उम्मीदवारों की संख्या में कोई बढ़ोत्तरी नहीं दिखी. कांग्रेस में सब से लंबे समय तक सोनिया गांधी, अध्यक्ष रहीं. महिलाओं को टिकट देने के बारे में वहां भी कोई उदार मन से काम नहीं किया गया. ऐसे ही टीएमसी की ममता बनर्जी और बसपा की मायावती के साथ भी हुआ. महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने के बारे में इन की भी कोई नीति नहीं है. यही हालत क्षेत्रिय दलों की भी देखने को मिलती है. महिलाओं के नाम पर केवल परिवार की महिलाओं को ही टिकट दिए गए.

इस लोकसभा चुनाव में बसपा ने केवल 7 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिए. सब से अधिक 28 प्रतिशत टिकट टीएमसी की ममता बनर्जी ने दिए. इन में ज्यादातर फिल्मी हीरोइने हैं. आम आदमी पार्टी जिस ने राजनीति में बदलाव को आगे रख कर काम किया लोकसभा चुनावों में उस ने भी महिलाओं को दरकिनार किया. आप ने दिल्ली और पंजाब में एक भी महिला को टिकट नहीं दिया.

भारत के चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, मतदाता लिंग अनुपात 2019 में 928 महिलाओं से 1,000 पुरुषों से बढ़ कर 2024 में 948 हो गया है. 12 राज्यों केंद्र शासित प्रदेशों में मतदाता लिंग अनुपात 1,000 से अधिक है, जो दर्शाता है कि मतदाताओं में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है.

2014 से ले कर लोकसभा के चुनाव दर चुनाव महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से अधिक रहा है. महिलाएं मतदान करने में पुरुषों से आगे निकल गई हैं. इस के बाद भी लोक सभा चुनाव में उन को न उम्मीदवार बनाया जा रहा न उन के मुद्दे उठाए जा रहे हैं. निकाय और पंचायत चुनावों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है इस के बाद भी ज्यादातर टिकट राजनीतिक परिवारों की महिलाओं और नाते रिश्तेदारों को दिए जाते हैं.

आंकड़े क्या कहते हैं ?

चुनाव आयोग के अनुसार 1957 में कुल 45 महिलाओं ने लोकसभा चुनाव लड़ा था. 2019 में यह संख्या 726 थी. इस दौरान पुरुषों की संख्या 1474 से बढ़ कर 7,322 तक पहुंच चुकी है. पिछले चुनाव में 9 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं थीं, जबकि 1957 में यह आंकड़ा 2.9 फीसदी था. 62 साल में पुरुष उम्मीदवारों की संख्या 5 गुना और महिला उम्मीदवारों की संख्या में 16 गुना का इजाफा हुआ है. हालांकि, अब तक किसी भी चुनाव में महिला उम्मीदवारों की संख्या 1000 का आंकड़ा नहीं छू पाई है.

1957 में 45 में से 22 महिलाएं चुनाव जीतने में सफल रही थीं. सफल महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत 48.88 था. 2019 में यह घट कर 10.74 रह गया है. पिछले चुनाव में 726 महिला उम्मीदवारों में सिर्फ 78 ही जीत हासिल कर पाईं. 1957 में 31.7 फीसदी पुरुष उम्मीदवार जीते थे, लेकिन 2019 में 6.4 फीसदी उम्मीदवारों को ही जीत मिली.

1957 में देश की संसद में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 5.4 फीसदी थी. 2019 तक यह बढ़ कर 14.4 फीसदी हो चुकी है, लेकिन अभी भी यह बेहद कम है. संसद में महिला आरक्षण का कानून पास होने पर 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. इस स्थिति में कम से कम 181 सांसद महिलाएं होंगी.

लीडर के रूप में स्वीकार्य नहीं

आजादी के बाद कई महिला नेताओं ने अपनी क्षमता को साबित किया है. इन में इंदिरा गांधी, जयललिता, सुषमा स्वराज, मायावती और ममता बनर्जी जैसी प्रमुख हैं. इंदिरा गांधी का कांग्रेस में विरोध हुआ था. उन की ‘गूंगी गुडिया’ कहा जाता था. सत्ता में आने के बाद इन सभी महिला नेताओं ने अपने कामों से लोगों को लोहा मनवाया. इस के बाद भी पार्टी और सरकार के मुख्य पदों पर महिलाओं को नहीं रखा जाता है. इस की वजह यह है कि पुरूष वर्ग महिलाओं को लीडर के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है.

इस वजह से जब सब से जरूरी हो जाता है तभी मजबूरी में उन को आगे बढ़ाते हैं. राजनीति में जो महिलाएं आगे दिखती भी हैं उन को भी किसी की पत्नी और बेटी होने के कारण अवसर मिलते हैं. राजनीति में साधारण किस्म की केवल उन महिलाओं को ही मौके मिलते हैं जो किसी न किसी क्षेत्र में मुकाम हासिल कर चुकी हो या उन के पीछे परिवार पैसा खर्च करने को तैयार हो. हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, कंगना रनौत को उन के फिल्मी बैकग्राउंड की वजह से टिकट मिले हैं तो माधवी लता को पारिवारिक बैकग्राउंड की वजह से.

महिलाओं के मुद्दे नदारद

पूरे लोकसभा चुनाव में सब से अधिक वोट महिला मतदाताओं के पड़े हैं. पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले 2 से 6 प्रतिशत तक इस में बढ़ोत्तरी हुई है. जीत और हार का गणित महिला वोटरों ने ही लिखा है. इस के बाद भी चुनावी मुद्दे महिलाओं की परेशानियों को हल करने वाले नहीं थे. 2019 के लोकसभा चुनाव में अधिकतर सांसदों ने वादा किया था कि हर विधानसभा में महिलाओं का एक बड़ा डिग्री कालेज खोला जाएगा लेकिन चुनाव जीतने के बाद ज्यादातर इस वादे से मुकर गए.

निर्भया कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए सेफ सिटी परियोजना बनाई गई थी. इस में कामन टौयलेट की जगह पिंक टौयलेट बनाए जाने थे. जिन का उपयोग सिर्फ महिलाएं ही कर सकें. इन का संचालन भी महिलाओं के ही हाथ में देना था. किसी भी शहर में यह पिंक टौयलेट दिखाई नहीं देते हैं. जिन शहरों में यह बने भी हैं वहां भी पर्याप्त नहीं हैं. अब इस का बजट भी खर्च नहीं होता है. कहीं इन के लिए जमीन नहीं मिल रही तो कहीं पैसा नियति नहीं है.

महिलाएं कम दोषी नहीं

राजनीति में अपनी हालत के लिए महिलाएं कम दोषी नहीं है. जब उन को सांसद, विधायक या मंत्री के रूप में काम करने का मौका मिलता है तो वह खुद महिला मुद्दों को नहीं उठाती हैं. अमेठी की सांसद स्मृति इरानी को जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में काम करने का मौका मिला तो उन्होंने महिला हितों पर काम नहीं किया. उन की सारी उर्जा गांधी नेहरू परिवार और राहुल गांधी को कोसने में चली गई. हेमा मालिनी ने भी अपने क्षे़त्र की महिलाओं के लिए कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया. उन की चुनाव के समय गेहूं काटते हुए फोटो दिखी.

मेनका गांधी लगातार 8 साल बार से सांसद हैं. जिस तरह से पशुओं के लिए उन की संस्था काम करती है महिलाओं के लिए उन के काम नहीं दिखते हैं. सोनिया गांधी ने 2005 में लड़कियों को पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा दिलाने वाला कानून बना कर महिलाओं को अधिकार दिलाए. चाह कर भी वह महिला आरक्षण कानून सदन में पास नहीं करा पाई. मायावती ने मुख्यमंत्री रहते महिलाओं के लिए कोई अलग से काम नहीं किया. जबकि अखिलेश यादव ने महिला सुरक्षा के लिए पुलिस हेल्प 1090 शुरू किया था.

ममता बनर्जी ने दूसरे दलों के मुकाबले सब से अधिक टिकट महिलाओं को दे कर कुछ अलग करने का प्रयास किया है. महिलाएं खुद अपने मुद्दों पर मुखर हो कर बात नहीं करती हैं. ज्यादातर महिलाएं चौका चूल्हा और चाटुकारिता में लगी रहती हैं. कभी धर्म के नाम पर कलश यात्राएं निकालती हैं तो कभी परिवार के भले के लिए पूजा और व्रत में लगी रहती हैं. अपने मुद्दे अपनी बेहतरी के लिए जरूरी है कि पहले आत्मनिर्भर बनें फिर राजनीति में जाएं. वहां अपनी पहचान बनाएं तभी महिलाओं का चुनाव लड़ना सार्थक होगा.

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