धर्म के नाम पर मानसिक गुलामी के तौरतरीके एकदो ही नहीं हैं बल्कि बहुत सारे हैं. हर धर्म की चेष्टा रहती है कि उस के भक्तों का पलपल उस के नियंत्रण में रहे चाहे वे उस नियंत्रण में सुखी रहें या दुखी. धर्म दक्षिणा वसूलने का अधिकार तो रखता है, उसे नियंत्रण करने का अधिकार भी रखता है लेकिन मुसीबतों से छुटकारा दिलाने का उस का कोई दायित्व नहीं होता.

चारधाम यात्राओं के कारण उत्तराखंड और्केयोलौजिकल डिजास्टर की ओर बढ़ रहा है और नए निर्माणों के कारण वहां की खोखली जमीन धंसने लगी है. धार्मिक स्थलों को अब केवल स्वर्ग पाने की सीढ़ी नहीं बनाया जा रहा बल्कि डैस्टिनेशन मैरिजों का केंद्र भी बनाया जा रहा है. मजेदार बात यह है कि ये विवाह रिजौर्टों में नहीं, मंदिरों में हों, ऐसा प्रचारित किया जा रहा है. उखीमठ के ओंकारेश्वर मंदिर में ऐसा ही एक मंडप बनाया गया है.

धर्मप्रचार चूंकि मौखिक प्रचार से चलता है और लोग उस की असलियत छिपा कर उस का बड़ा गुणगान करते हैं, इसलिए यह सफल भी होगा. जो भक्त होते हैं वे सब कष्ट सह लेते हैं पर धर्मपालन करते समय होने वाली किसी परेशानी को वे होंठों तक नहीं लाते.

विवाह दो जनों का आपसी समझौता है. इस पर सदियों से धर्मों ने कब्ज़ा कर लिया है. धर्म ने नियम भी बना डाले और उन्हें लागू भी करवा डाला. धर्म के दखल से विवाह सुखी हुए हों, ज्यादा चले हों, कोई विधुर न हुआ हो, बच्चे हुए हों, जो बच्चे हुए वे सभी स्वस्थ हुए हों इस सब की गारंटी किसी धर्म ने नहीं ली. शादी पर रिश्तेदारों, दोस्तों का जमावड़ा तो हो जाता है पर बाद में कोई तकलीफ होती है तो सब कन्नी काट जाते हैं, वह धर्म का दुकानदार भी जिस के प्रांगड़ में या जिस की मौजूदगी में शादी हुई थी.
धर्म न तो बाल विवाह रोक पाया, न दहेज रोक पाया, न आत्महत्याओं के अभिशाप से औरतों को मुक्ति दिला पाया, न औरतों को सौतनों से बचा पाया. दरअसल धर्म की ऐसी कोई रुचि भी नहीं थी कि विवाह बाद सबकुछ ठीक रहे. शिवपार्वती और रामसीता के विवाहों तक में जब विवाद होते रहे तो कलियुग के पुजारीपंडे भला क्यों कोई गारंटी लेंगे पर विवाह के समय वे नए दंपती को लूटने में आगे रहते हैं.

विवाह जब से होटलों और रिजौर्टों में होने लगे हैं, शहरों के बीच बनी मंदिरों के साथ की धर्मशालाओं में विवाह का धंधा लगभग चौपट हो गया है. जो शानबान ये होटल या रिजौर्ट उपलब्ध कराते वह मंदिर या धर्मशाला में संभव नहीं. सो, लोग छिटकने लगे और एक विवाह में धर्म के दुकानदारों को बहुत छोटा सा अंश ही विवाह संपन्न करते समय मिलने लगा. सो, अब उत्तराखंड या अन्य धार्मिक स्थल, जो शहरों से कुछ दूर हैं और जिन के आसपास मंदिरों की बड़ी जमीन है, डैस्टिनेशन मैरिज के लिए हाथपैर मार रहे हैं. उन्हें व लोगों को लालच दिया जा रहा है कि भगवानों की नजरों के नीचे हुए विवाह ज्यादा सुखी होंगे.

ऐसे भक्त लाखों में हैं जो विवाह में मंदिरों को इस्तेमाल कर के अपने को धन्य समझेंगे. इस्कान, जो आधी विदेशी संस्था है और जिस का प्रबंधन पढ़ेलिखे कुछ देशी, कुछ विदेशी लोगों ने हथिया लिया, विवाह आयोजन बड़ी सफलता से करा लेता है. उन्हें प्रबंधन की कला आती है. उन्होंने तो मंदिर ही इस तरह बनाए हैं कि उन में 400-500 लोग ठहराए जा सकें. पूजाओं के दिनों में वहां काफी लोग ठहरते हैं और अब तो वहां शादियां कर के भी ठहरने लगे हैं.

अब बाकी मंदिर भी यही करेंगे और कुछ करने भी लगे हैं. जिन के पास खाली जगह है वे वहां आकर्षक टैंट लगाने लगे हैं. वहां चूंकि पैसा सीधे ज्यादा नहीं लिया जाता, इसलिए परिवार को लगता है कि काम सस्ते में हो रहा है. हालांकि, मंदिर के प्रबंधन वाले एक तो हर बराती से मूर्ति के सामने चढ़ावा के तौर पर कुछ पा ही जाते हैं और फिर हर बराती का नामपता मंदिर में जमा हो जाता है, सो महीनोंसालों तक वे मार्केटिंग करते रहते हैं. ईसाइयों में तो हर विवाह चर्च में ही होता है. वहां प्रीस्ट बाहर कम जाता है, लोग विवाह कराने चर्च में आते हैं.

बहरहाल, शादी के बहाने यह अच्छी कमाई है जिसे हिंदू मंदिर अब तक हासिल नहीं कर रहे थे. अब यह शुरू हो गया है. विवाह कराने वाला तो धर्म का एजेंट ही होगा, अब स्थान और खानेपीने की व्यवस्था भी उसी के पास होगी. वहीं, इस विवाह में दहेज नहीं होगा, बाद में पति का रौद्र रूप नहीं होगा, इस की कोई गारंटी नहीं. सुविधा केवल विवाह के दिन के लिए है. विवाह के बाद की सर्विसिंग चाहिए तो उस के लिए अलग से खर्च करना पड़ेगा.

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