भारत के एतराज के बाद हालांकि ताइवान ने माफी मांग ली है लेकिन इस से वे मुद्दे खत्म नहीं होने वाले जो उपजे थे. कहनेसुनने में बात बहुत साधारण है. ताइवान की श्रम मंत्री शू मिंग चूं ने कहा था कि ताइवान पूर्वोत्तर के इसाई कामगारों को प्राथमिकता देगा, क्योंकि उन का रूप रंग और खानपान ताइवानी लोगों जैसा है. दिनरात राम, श्याम और शिव विष्णु में उलझे लोगों को इस से कोई सरोकार कभी नहीं रहा और न ही यह भरे पेट लोगों की उत्सुकता या दिलचस्पी का विषय है कि 140 करोड़ की आबादी वाले भारत का एक करार महज ढाई करोड़ की आबादी वाले ताइवान से बीती 17 फरवरी को हुआ है. जिस के तहत भारत अब ताइवान को भी अपने कामगार उपलब्ध कराएगा दूसरे लफ्जों में कहें तो सप्लाई करने पर सहमत है.

शिंग चूं की इस टिप्पणी को अन्यथा लेते भारत सरकार ने इसे नस्लभेदी माना था जबकि उन की मंशा बहुत व्यवहारिक भी थी कि नौर्थ ईस्ट इंडिया के लोगों का रंग खाने के तौरतरीके, हम से मिलतेजुलते हैं. वे हमारी तरह ही ईसाई धर्म में ज्यादा विश्वास रखते हैं. वो काम में भी निपुण हैं इसलिए पहले पूर्वोत्तर के श्रमिकों को भर्ती किया जाएगा.

इस में गलत क्या

साफ दिख रहा है कि ताइवानी विदेश मंत्री की मंशा में कोई खोट नहीं था. वे तो लगता है अति उत्साह में अपनी प्राथमिकताएं गिना रहीं थीं. ताइवानी माफी के बाद यह मुद्दा तो आयागया हो गया लेकिन हमें काफी कुछ सीखने भी छोड़ गया जिस में अहम यह है कि देश में भयंकर बेरोजगारी है और कामगारों को उन की मेहनत और निपुणता के हिसाब से मेहनताना नहीं मिलता है.

दूसरे यह नियोक्ता का हक होता है कि उसे कैसे कर्मचारी चाहिए लेकिन दुनियाभर में कहने को ही सही लोकतंत्र है जिस के चलते धर्म और जाति बेहद संवेदनशील हो जाते हैं.

बिहारी मजदूरों की मांग देश में हर कहीं रहती है. देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के कई कामों पर तो कब्जा बिहारियों का ही है. तो बिहारी मजदूर एक विशेषण हो गया है. इस से धर्म जाति या नस्ल का कोई लेनादेना नहीं है जिस के नीचे ढका सच यह है कि बिहार अभी भी 60 – 70 के दशक की तरह बेरोजगारी से त्रस्त है और वहां से हजारों मजदूर और कामगार रोजगार की तलाश में दिल्ली मुंबई सहित दक्षिणी राज्यों में पलायन करते हैं जहां उन्हें ठीकठाक पैसा मिल जाता है. ये लोग सहज उपलब्ध हैं और मेहनती माने जाते हैं. यही इन की पूछ परख की वजह है.

शुक्र इस बात का होना चाहिए कि अब कोई भी घोषित तौर पर गिरमिटिया मजदूर नहीं है. गौरतलब है कि गिरमिटिया उन लोगों को कहा जाता है जिन्हें 17वीं सदी से बाद तक ब्रिटिश हुकुमत गुलामों की तरह दक्षिण अफ्रीका और अपनी जरूरत के मुताबिक दूसरे देशों में पानी के रास्ते ढो कर ले जाती थी. इन का हर तरह से जम कर शोषण होता था. हल्ला मचने पर 1917 को इस रिवाज को बंद कर दिया गया था.

गिरमिटियाओं के कोई हक नहीं होते थे वे दरअसल में गुलाम होते थे. लेकिन अब ऐसा कहीं नहीं है और है भी तो दूसरे तरीकों से कि आप सरकार की जानकारी और इजाजत के बगैर किसी को विदेश ले जा कर काम नहीं करा सकते. बहुत से नियम कायदे कानून पिछले सौ सालों में बने हैं.

भारत ताइवान सरकारों के बीच बाकायदा करार हुआ है जो यह साबित करता है कि भारतीय कामगारों और मजदूरों की पूछ परख विदेशों में ज्यादा है क्योंकि वे आमतौर पर मेहनती और ईमानदार होते हैं. अगर ताइवान जैसे छोटे देश भारतीय कामगारों को काम और दाम दे रहे हैं तो हमें उन का आभारी होना चाहिए क्योंकि हम उन्हें काम और दाम दोनों नहीं दे पा रहे.

विदेशों में ज्यादा पैसा

मिडिल ईस्ट भारतीयों की प्राथमिकता शुरू से ही रही है क्योंकि इन देशों में मजदूरों और कामगारों को भारत से कहीं ज्यादा पैसा मिलता है. एक ताजे आंकड़े के मुताबिक अकेले यूएई में 35 लाख से भी ज्यादा भारतीय काम कर रहे हैं. सऊदी अरब में इन की संख्या 23 लाख के लगभग आंकी गई है. कुवैत में 8.5 लाख भारतीय कार्यरत हैं. ओमान में भी यह संख्या 6 लाख के लगभग हैं.

वर्ल्ड औफ स्टेटिस्टिक्स ने 104 देशों में कामगारों की औसत पगार के जो आंकड़े दिए हैं. उन के मुताबिक सब से ज्यादा पगार स्विट्जरलैंड के कामगारों को 6,906 डौलर मासिक मिलती है. भारत इस लिस्ट में 65वे नंबर पर है. जहां कामगारों की औसत सैलरी महज 573 डौलर है. भारतीयों की पहली पसंद यूएई में कामगारों को 3,498 डौलर हर महीने मिलते हैं. दुनिया भर में यह 8वे नंबर पर है. कतर 6ठे नंबर पर है जहां कामगारों को 3982 डौलर प्रतिमाह मिलते हैं.

जाहिर है जहां ज्यादा पैसा मिलेगा लोग वहा जाना पसंद करेंगे. अब अगर देश से 100 से ले कर 500 गुना ज्यादा तक सैलरी विदेशों में मिलती है तो लोग विदेश जा कर कमाने वाले बहुत कुछ करने तैयार भी रहते हैं. प्लम्बर और कारपेंटर से ले कर सौफ्टवेटर इंजीनियर तक विदेशों का रुख कर रहे हैं. जिन्हें विदेश में मुनासिब पैसा मिल रहा है.

ऐसे में सरकार के किसी ताइवान पर किसी औपचारिक एतराज की वजह समझ से परे है. जो दुनिया की तीसरी पांचवी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था होने का ढिंढोरा तो रोज पीटती है लेकिन न रोजगार दे पा रही है और न ही सही मेहनताना उस की चिंता है.

सरकार को भी है फायदा

वर्क फोर्स किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती है जिस के बाहर जाने में भी फायदा होता है. फायदा यह कि जो भी कामगार या इंजीनियर विदेश जाएगा तो वह अपनी कमाई घर भी भेजेगा. इसे अर्थशास्त्र की भाषा में रेमिटेंस कहते हैं.

वित्त मंत्रालय के अंदाजे के मुताबिक इस साल 2023 के मुकाबले रेमिटेंस में 8 फीसदी का इजाफा होगा. साल 2023 में भारतीय कामगारों ने कोई 125 अरब डौलर भारत भेजे थे अब इस में 8 फीसदी की बढ़ोतरी और सुकून देने वाली है.

अंदाजा है कि विदेशों में काम कर रहे भारतीय अपनी कमाई का 70 फीसदी तक हिस्सा घर वालों को भेजते हैं. वित्त मंत्रालय की एक ताजी रिपोर्ट के मुताबिक पहले के मुकाबले अधिक कुशल व योग्य होने के कारण भारतीय अब भारतीय अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में ज्यादा जा रहे हैं जिस से उन की आमदनी बढ़ रही है और रेमिटेंस में भी इजाफा हो रहा है.

विदेशी मुद्रा हासिल करने का सब से बढ़िया तरीका रेमिटेंस है. जिस से अर्थव्यवस्था को गति भी मिलती है तो सरकार इस बाबत करार पर करार किए जा रही है फिर चाहे वह ताइवान हो रूस हो या इजरायल हो या खाड़ी के देश हों, उसे इस से कोई मतलब नहीं. लेकिन अच्छी बात यह है कि इस खेल में उसे नस्ल, धर्म और जाति की चिंता है जो खुद के गिरमिटिया न होने का एहसास कराती है.

सरकार रोजगार के मुद्दे पर भी जवाब देने से बच जाती है कि वह क्यों देश में रोजगार पैदा नहीं कर पा रही और जो हैं वे अग्निवीर या डिलेवरी बौय जैसी कम सैलरी वाले और टेम्परैरी क्यों हैं?

हैं कहां रोजगार

सरकारी आंकड़ों की मानें तो देश में बेरोजगारी अब न के बराबर बची है. पिछले साल अक्तूबर में एनएसएसओ द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2022 – 23 में बेरोजगारी की दर 4.1 फीसदी थी जो साल 2021 – 22 में 4.2 फीसदी थी. बेरोजगारी दर से मतलब यह लगाया जाता है कि उपलब्ध मानव श्रम में से कितने फीसदी लोगों के पास काम नहीं है. इस लिहाज से इस साल सब से कम बेरोजगारी है. और सरल भाषा में कहें तो कामकाजी की उम्र की कुल आबादी में 57.9 फीसदी लोग काम कर रहे हैं, यानी 42.1 फीसदी लोगों के पास काम नहीं है.

इसी साल जनवरी में सेंटर फौर मौनीटरिंग इंडियन इकोनमी के मुताबिक भारत में बेरोजगारी की दर 6.8 फीसदी थी जो दिसम्बर 2023 में 8.7 फीसदी थी. सरकारी और गैरसरकारी आंकड़ों से सही अथिति नहीं आंकी जा सकती क्योंकि आंकड़ों में भिन्नता होती है और हर एक एजेंसी की बेरोजगारी की अपनी अलग परिभाषा होती है.
चुनावी साल में बेरोजगारी बेवजह बड़ा मुद्दा नहीं है. विपक्ष इसे खूब हवा दे रहा है जबकि सरकार और उस के मुखिया नरेंद्र मोदी की मुमकिन इस से बच कर निकल जाने की रहती है. लेकिन हकीकत यह है कि सरकार खुद नौकरियां नहीं दे पा रही है और प्राइवेट सैक्टर की नौकरियां बहुत कम सैलरी वाली हैं. अब जिन्हें ज्यादा सैलरी चाहिए उन्हें ताइवान और इजराइल जैसे देशों का रुख करना चाहिए.

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