Bharat Ratna to Karpoori Thakur : कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की मांग उन की जन्म शताब्दी समारोह में विपक्षी दलों ने करने की योजना बनाई थी. इस के पहले ही मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा कर दी. ठीक इसी तरह से उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव को पद्म विभूषण सम्मान दिया गया था. मुलायम को ऐसा सम्मान केंद्र की मोदी सरकार देगी समाजवादी पार्टी और भाजपा दोनों को ही यकीन नहीं था. उस की वजह भी थी. मुलायम की मृत्यु का कुछ ही समय अक्तूबर 2022 में हुई थी. अप्रैल 2023 में उन को पद्म विभूषण सम्मान दिया गया.

देखा जाए तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम सिंह यादव और भाजपा के बीच 36 का रिश्ता रहा है. भाजपा का एक बड़ा तबका और पूरा संघ परिवार अयोध्या आंदोलन में मुलायम सिंह यादव को सब से बड़ा खलनायक मानता था. राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा का जब शोर पूरे सोशल मीडिया पर था तब कई ऐसी पोस्ट थीं जिस में यह मांग की जा रही थी कि मुलायम की मूर्ति भी वहां लगे उस पर पत्थर मारे जाए. भाजपा के बड़े वर्ग ने इस मैसेज को तवज्जो नहीं दी. मोदी सरकार ने दक्षिणापंथी लोगों की भावनाओं के विपरीत मुलायम सिंह को पद्म विभूषण सम्मान दिया.

जिस समय मुलायम सिंह की मृत्यु हुई भाजपा के नेताओं ने मुलायम के पैत्रक गांव सैफई जा कर श्रद्वाजंलि दी. मुलायम की मृत्यु के बाद उन की लोकसभा सीट का जब उपचुनाव आया तो भाजपा ने वहां रघुराज साक्य को चुनाव लड़ाया जो मुलायम के भाई शिवपाल यादव का करीबी था. शिवपाल यादव को भाजपा में इसी लिए शामिल नहीं किया गया क्योंकि इस से ओबीसी बिरादरी में अच्छा संदेश नहीं जाता.

ओबीसी पर निशाना

भाजपा ने अपने सिद्धांतों की बलि क्यों दी ? असल में भाजपा की पूरी राजनीति अब ओबीसी दक्षिणाबैंक पर टिकी है. देश में सब से बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग का है. यह करीब 60 फीसदी के आसपास है. पिछड़े वर्ग के जो भी नेता हैं वह अपनी जाति के 7-8 फीसदी वोट बैंक को ही जोड़ पाते हैं. ऐसे में भाजपा ने अपनी सवर्ण राजनीति ब्राहमण, बनिया और ठाकुर को दरकिनार कर ओबीसी और दलित को जोड़ने के लिए अपने सिद्धांतों को वाशिंग मशीन में डाल दिया. मुलायम सिंह यादव के विरोध को भूल गई. यह काम एक बार नहीं किया बारबार इस को कर रही है. छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में विष्णुदेव साय और मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया.

2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया ब्लौक ने जातीय गणना को मुद्दा बनाया. इस के मुकाबले के लिए भाजपा ने अपने सवर्णवादी सिद्धांत को पीछे ढकेलते हुए बिहार में पिछड़ों के मसीहा कहे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दे कर सम्मानित कर दिया. बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर सामाजिक बदलाव की राजनीति में एक बड़ा नाम है.

64 साल की उम्र में उन का निधन 1988 में हुआ था. उस के बाद बिहार में राजनीति समीकरण बदले. लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने. इस के बाद राबड़ी देवी और नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने. यह सभी पिछड़े वर्ग से आते थे पर कभी इन लोगों ने कर्पूरी ठाकुर के नाम को आगे नहीं बढ़ाया. कर्पूरी ठाकुर केवल भाषणों का हिस्सा बन कर रह गए थे.

नीतीश कुमार ने जातीय गणना का जो वार किया उस की ढाल के लिए भाजपा ने कर्पूरी ठाकुर को आगे कर दिया. अब यह सवाल बिहार के लोग भी पूछ रहे हैं कि यादव कुर्मी राजनीति में कर्पूरी ठाकुर को हाशिए पर क्यों ढकेला गया ?

कर्पूरी ठाकुर जंयती के पहले चला दांव

कर्पूरी ठाकुर के जन्म शताब्दी समारोह के आयोजन के पहले भाजपा ने यह दांव चल दिया है. बिहार के भूतपूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर की जयंती इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि 3 महीने बाद ही लोकसभा का चुनाव होना है. पिछड़े वोटरों पर पकड़ बनाने के लिए जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी के अलावा उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोक जनता दल ने भी पूरी तैयारी की है. भाजपा ने जयंती समारोह की पूर्व संध्या पर ही मास्टर स्ट्रोक खेल दिया है.

बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. वे दो बार बिहार के सीएम रहे. वर्ष 1952 से वे लगातार विधायक चुने जाते रहे. साल 1967 में वे बिहार के उप मुख्यमंत्री, वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री भी रहे. पहली बार वे 1970 में मुख्यमंत्री बने, मगर उन की सरकार अधिक दिनों तक नहीं चल पाई.

दूसरी बार उन्होंने 1977 में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली. उन का दूसरा कार्यकाल 1979 तक रहा. अपने राजनीतिक कैरियर में कर्पूरी ठाकुर सिर्फ एक बार चुनाव नहीं जीत पाए थे. वर्ष 1984 में वे लोकसभा चुनाव हार गए थे. इसलिए कि उसी साल इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी. इस की वजह से कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति लहर थी.

मुख्यमंत्री रहते कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया. उन की सादगी और ईमानदारी को आज भी लोग शिद्दत से याद करते हैं. जीवित रहते उन्होंने न कोई संपत्ति खड़ी की और परिवार के किसी व्यक्ति को राजनीति में कदम रखने दिया. उन के निधन के बाद ही परिवार का कोई सदस्य राजनीति में आ पाया. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने उन के बेटे रामनाथ ठाकुर को राज्यसभा भेजा. परिवारवादी राजनीति और भ्रष्टाचार के वे सख्त विरोधी थे.

सादगी की मिसाल थे कर्पूरी ठाकुर

कर्पूरी ठाकुर अपने राजनीतिक जीवन में विधायक से ले कर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, पर गांव के पैतृक मकान के अलावा उन के पास कोई दूसरा मकान नहीं था. गांव में भी उन का पुश्तैनी मकान भी कायदे का नहीं था.

बिहार में एक सीएम ऐसा भी रहा जिस ने अपने परिवार को इसलिए गांव में रखा कि उसे मिलने वाली तनख्वाह से यह संभव नहीं था. कर्पूरी ठाकुर अपने लंबे राजनीतिक जीवन के बावजूद एक कार तक नहीं खरीद पाए. कर्पूरी ठाकुर सीएम बनने पर रिक्शे की सवारी करने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते थे.

एक दौर था विधानसभा में लालू यादव और कर्पूरी ठाकुर साथ बैठे थे. किसी काम से कर्पूरी ठाकुर को बाहर जाना था. उन के पास वाहन नहीं था इसलिए एक पर्ची लिख कर उन्होंने लालू की ओर बढ़ाई. जिस में उन की जीप मांगी थी. लालू ने पर्ची लिख कर वापस कर दी कि जीप में पेट्रोल नहीं है. आप खुद क्यों नहीं गाड़ी खरीद लेते हैं ?

पटना के कदमकुआं स्थित चरखा समिति भवन में जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन मनाया जा रहा था. वहां बड़े समाजवादी नेता शामिल होने के लिए आए थे. इन में भूतपूर्व पीएम चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख जैसे नेता वहां आए थे. कर्पूरी ठाकुर तब बिहार के मुख्यमंत्री थे. जब वे वहां पहुंचे तो उन के कुर्ते पर चंद्रशेखर की नजर पड़ी. कुर्ता फटा हुआ था. चप्पल भी टूटी हुई थी. अचानक चंद्रशेखर उठे और अपने कुर्ते को फैला कर सब से चंदा देने को कहा.

चंद्रशेखर ने कहा कि कर्पूरीजी के लिए कुर्ता फंड बनाना है. इस के बाद कुछ लोगों ने उन के कुर्ते में कुछ रुपए दिए. पैसा देते हुए चंद्रशेखर ने कहा ‘कर्पूरीजी, इन रुपयों से अपने लिए एक कायदे का कुर्ता-धोती खरीद लीजिए.’

कर्पूरी ठाकुर ने पैसा ले लिया और कहा कि इसे हम मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा देंगे. बिहार में ऐसा कोई नहीं होगा जो कर्पूरी ठाकुर का विरोधी हो. ऐसे में भाजपा ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दे कर विरोध कर राजनीति को क्लीन बोल्ड कर दिया है.

महापुरूष और मूर्तियों का सम्मान

भारत की राजनीति में महापुरूषों और मूर्तियों का अलग से स्थान रहा है. कांग्रेस ने गांधी की मूर्तियों को पूरे देश में लगवाया. मूर्तियों की विरोधी बहुजन समाज पार्टी ने दलित महापुरूषों की मूर्तियों के साथ ही साथ मायावती ने जिंदा रहते अपनी मूर्ति लगवाई.

समाजावादी नेताओं ने भी मूर्तियों और महापुरूषों के नाम पर सेमिनार और जन्म दिवस मनाए. इन सब की खास बात यह थी कि सब ने अपनी विचारधारा और पार्टी के नेताओं की मूर्तियां लगवाई. समाजवादी पार्टी ने डाक्टर राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण को तो याद रखा लेकिन कर्पूरी ठाकुर को कभी याद नहीं किया. बिहार में लालू और नीतीश ने कर्पूरी ठाकुर की याद में कोई बड़ा काम नहीं किया.

असल में कर्पूरी ठाकुर पिछड़ा वर्ग में अति पिछड़ी नाई बिरादरी से आते हैं. ऐसे में पिछड़ों में अगड़ी जातियां उन का उस तरह से सम्मान नहीं करती थी. भाजपा ने अपने सिद्धांतों को वाशिंग मशीन में डाल कर धुल दिया. सरदार पटेल की सब से बड़ी मूर्ति लगवाई. डाक्टर आंबेडकर के जन्म दिवस और परिनिर्वाण दिवस पर बड़ेबड़े आयोजन किए.

इस तरह से बसपा ने भी डाक्टर आंबेडकर को याद नहीं किया. महात्मा गांधी की दक्षिणापंथी का हमेशा विरोध करते थे. गांधी के हत्यारे गोडसे को सम्मान देते थे. अब भाजपा ने गांधी को भी अपना बना लिया है. बुद्ध और वाल्मीकी से भी कोई विरोध नहीं रह गया है.

देखा जाए तो भाजपा ने जिस तरह से अपने सिद्धांतों को वाशिंग मशीन में डाल कर धुला है उस से पार्टी दलबदल कानून के दायरे में आती है. इस के बाद भी वह खुले दिल से अपने दक्षिणाबैंक को भी साथ ले कर चल रही है. दक्षिणापंथी खामोशी से तेल और तेल की बदलती धार को देखने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे हैं.

राजनीतिक दलों में ऐसे प्रयोग टीएमसी नेता ममता बनर्जी ही कर पा रही है. कांग्रेस की विरोधी पार्टी होने के साथ भी इंडिया ब्लौक का हिस्सा है. कभी वह भाजपा के एनडीए में भी रही है. पश्चिम बंगाल में सीपीएम के विरोध पर भी डटी है. इंडिया ब्लौक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे के नाम को आगे कर के दलित राजनीति का पाला खीचने का काम ममता ने ही किया. राजनीति में हमेशा कुछ न कुछ करते रहना होता है. मुलायम सिंह यादव कहते थे कि ‘अगर नेता बनना है तो रोज 200 नए लोगों से मिलना चाहिए.’

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