Royal Dish of Lucknow Sheermal History : लखनऊ की शीरमाल वाली गली में दूर तक जो एक खुशबू फैली होती है, वह आप की भूख को कई गुना बढ़ा देती है. यह खुशबू है गलावटी कबाब, निहारी और शीरमाल की. मुगलकालीन व्यंजनों में शीरमाल की जगह काफी खास थी. मुगल बादशाहों और लखनऊ के नवाबों के दस्तरखान पर इस केसरी रंग की रोटी के बिना मटन सालन या कबाब का कोई स्वाद भी फीका था.

लखनऊ में शीरमाल के साथ गलावटी कबाब या निहारी खाने का चलन है. कहते हैं गलावटी कबाब लखनऊ के एक दंतहीन राजा के लिए उनके खानसामे ने तैयार किए थे, जिसे एक दिन उस ने शीरमाल के अंदर भर के नवाब साहब के सामने परोसा. नारंगी रंग के मुलायम और लजीज रोटी के बीच जब नवाब साहब ने कबाब खाया तो जैसे निवाला मुंह में रखते ही गल गया. फिर क्या था खानसामे को आर्डर हुआ कि अब से सारी रोटियां-पराठे एक तरफ, उन की दस्तरखान पर सिर्फ शीरमाल ही आए.

शीरमाल की उत्पत्ति के बारे में एक और कथा प्रचलित है. लखनऊ में 1827 से ले कर अगले 30 साल तक नवाब नसीरुद्दीन हैदर का शासन था. उस समय पुराने लखनऊ में एक फिरंगी महल हुआ करता था जो आज भी है. वहां पर ईरान से आए महमूद नाम के एक शख्स ने अपनी खानपीने की दुकान खोली और उस ने यहां एक बेहद नरम रोटी बनानी शुरू की जिस को उस ने शीरमाल का नाम दिया. उस की रोटी इतनी मशहूर हो गई कि उसे खाने के लिए नवाब नसीरुद्दीन हैदर खुद उस की दुकान पर पहुंचने लगे.

देखते ही देखते यह रोटी नेशनल रोटी बन गई. उस वक्त कहा जाता था कि अगर दावतों में शीरमाल न हो तो दावत अधूरी है. खैर यह तो तय है कि मैदे, दूध, घी और तरह तरह के मेवे से बनी शीरमाल रोटी नवाबी समय की ईजाद है, जिसे अब तक लोग बहुत पसंद करते हैं. इसे खासतौर पर कबाब और मटन के सालन के साथ खाया जाता है. गर्मागर्म तंदूर से निकली यह रोटी बहुत ही मुलायम और सुगंधित होती है.

लखनऊ में एक गली शीरमाल वाली गली के नाम से विख्यात है. यह पूरी सड़क बेकरियों से भरी हुई है जो ताजा पके हुए ब्रेड की सुगंध देती है. यह सड़क अन्य प्रकार की फ्लैटब्रेड जैसे नान, बाकर खानी और ताफ्तान का भी घर है. एक फारसी कहावत है, “नान-ए-लखनऊ, शीरी अस्त” अर्थात “लखनऊ की शीरमाल सबसे मीठी रोटी है”.

एक समय था जब शीरमाल को ‘अमीरों की रोटी’ कहा जाता था. क्योंकि शीरमाल बनाने में ज्यादातर सभी महंगी सामग्री का इस्तेमाल होता है. लेकिन धीरेधीरे यह शाही बावर्ची खाने और दस्तरखान से निकल कर आम लोगों के बीच पहुंच गई.

विभिन्न भारतीय शहरों में शीरमाल के विभिन्न संस्करण हैं और यह आमतौर पर पुराने क्षेत्रों में बनती है. आधुनिक होटलों के शेफ या रसोइए इन रोटियों को उस तरह नहीं बना पाते जैसी परंपरागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी सीख कर आने वाले पुराने इलाके के लोग इन्हें बनाते हैं.

भारतीय शीरमाल आमतौर पर गोल और थोड़ी मोटी होती है. इस में मैदे की कई परतें होती हैं और इन्हें ऊपर से केसर के धागों और मेवों से सजाया जाता है. हालांकि, भोपाल में, यह रोटी आयताकार शेप में बनाई जाती है. भैंस का दूध जो एक प्राकृतिक स्वीटनर है, का प्रयोग शीरमाल के लिए नरम आटा तैयार करने में किया जाता है. इस में केवड़ा एसेंस भी मिलाया जाता है और भोपाल में लौंग भी मिलाई जाती है.

शीरमाल को बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली हर सामग्री शीरमाल को एक नया अंदाज देती है. जैसे केसर से इसे नारंगी रंग दिया जाता है, दूध से इस की मिठास बढ़ती है, केवड़ा और इत्र से इसे एक अलग खुशबू मिलती है और घी के कारण इसे टेक्सचर मिलता है.

शीरमाल का मुलायम होना, इस बात पर निर्भर करता है कि आप इस के लिए मैदे को गूंथ कैसे रहे हैं और इस के ऊपर कितना घी डाल रहे हैं. शीरमाल को तंदूर में डालने से पहले इस पर छोटेछोटे छेद किए जाते हैं, ताकि तंदूर में सेंकने पर ये फूले नहीं. क्योंकि अगर रोटियां फूलने लगेंगी तो तंदूर में नीचे गिर जाएंगी.

एक खास बात यह भी है कि शीरमाल को लोहे से बने तंदूर में ही पकाया जाता है. अगर इसे मिट्टी से बने तंदूर में पकाएंगे तो मिट्टी इस का सारा घी सोख लेगी. शीरमाल की एक और खास बात यह है कि एक बार तैयार होने के बाद आप इसे लगभग 15 दिन तक रख कर खा सकते हैं, यह खराब नहीं होती और न ही इस का टेस्ट बदलता है. यही वजह है कि लखनऊ की शीरमाल वाली गली में जो दुकानदार इन्हें बनाते हैं, उन के पास मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु और कोलकाता तक से आर्डर आते हैं.

सामान्य शीरमाल के अलावा जाफरानी और जैनबिया शीरमाल मुहर्रम के मौके पर बनाए जाते हैं. मोहर्रम के 9 दिन तक मजलिसों का दौर चलता है ऐसे में लोग खाना नहीं बना पाते हैं इसलिए शीरमाल, रोटी-सालन, कबाब व दाल उन्हें तबर्रुक के तौर दिए जाते हैं. शुरुआती दौर में यह तबर्रुक थाल में सजा कर नवाबों के घरों तक भी पहुंचाया जाता था. रमजान के दौरान भी गरीबों में बांटने के लिए भी बड़ी मात्रा में शीरमाल बनाया जाता है.

शीरमाल को नहारी के साथ खाना लोग पसंद करते हैं. बकरे के पाए की निहारी जिसे रात भर बड़े से देग में पकाया जाता है, पुराने लखनऊ और पुरानी दिल्ली दोनों ही जगह बड़े स्वाद से शीरमाल रोटी के साथ खाई जाती है. लखनऊ के लोग शीरमाल पर कबाब रख कर खाना पसंद करते हैं. साथ में लच्छेदार प्याज और हरी चटनी स्वाद को और बढ़ा देती है. दिल्ली के निजामुद्दीन में भी कुछ रेस्त्रां शीरमाल बनाते हैं. कुछ लोग बड़े थाल के आकार का शीरमाल भी यहां बनाते हैं, जिस के टुकड़े वे हलवे के साथ परोसते हैं.

अच्छा शीरमाल बनाने वाले कारीगर अब बहुत कम रह गए हैं. पुराने लखनऊ के कुछ खानदान जो पीढ़ियों से इस काम में लगे हैं, उन के हाथ के शीरमाल और आधुनिक होटलों में बने शेफ के हाथ के शीरमाल के स्वाद में जमीन आसमान का अंतर है. पुराने लखनऊ का शीरमाल आप ले आएं. इस को आप जब भी गरम कर के खाएंगे वह ताजाताजा तंदूर से निकला ही लगेगा, मगर किसी महंगे होटल से आया शीरमाल रखने के बाद बेस्वाद हो जाता है.

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