देश में आजादी है तो इस का मतलब यह है कि जो अधिकार देश के सर्वोच्च नागरिक प्रधानमंत्री को होंगे वही आम आदमी के हैं. मगर राजनीतिक पार्टियों को चंदा बांड को ले कर अगर जानकारी आम आदमी को नहीं दी जा सकती, जैसे कानून हैं, तो फिर यह लोकतंत्र के गले घोटने की शुरुआत है.

सवाल यह है कि राजनीतिक पार्टियों को कौन चलाता है और इस का लाभ आखिरकार किस को मिलेगा. लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों के इस अधिकार को लोकतंत्र को सेंध लगाने की कवायद कह सकते हैं. दरअसल, लोकतंत्र में ऐसी सोच और कानून का कोई स्थान नहीं है जो चाहे केंद्र की कितनी ही शक्तिशाली सरकार हो या फिर राजनीतिक पार्टियों को विशेष अधिकार मिले.

मगर अपने अधिकारों का दुरपयोग करते हुए नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार ने 2018 में राजनीतिक पार्टियों को असीमित अधिकार देने का काम किया. जिस के तहत असीमित आर्थिक सहयोग बांड लेने और उस की जानकारी को छुपाने का अधिकार दिया गया. अब लंबे समय बाद देश के उच्चतम न्यायालय में इस मामले में सुनवाई होने जा रही है.

आश्चर्य कि बात है कि देश के अटार्नी जनरल आर वेंकट रमणी ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, “राजनीतिक दलों को चुनावी बांड योजना के तहत मिलने वाले चंदे के स्रोत के बारे में नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत सूचना पाने का अधिकार नहीं है.”

वेंकट रमणी ने राजनीतिक वित्त पोषण के लिए चुनावी बांड योजना से दलों को ‘क्लीन मनी’ मिलने का उल्लेख करते हुए यह कहा, ” तार्किक प्रतिबंध की स्थिति नहीं होने पर ‘किसी भी चीज और प्रत्येक चीज’ के बारे में जानने का अधिकार नहीं हो सकता. जिस योजना की बात की जा रही है वह अंशदान करने वाले को गोपनीयता का लाभ देती है. यह इस बात को सुनिश्चित और प्रोत्साहित करती है कि जो भी अंशदान हो, वह काला धन नहीं हो. यह कर दायित्वों का अनुपालन सुनिश्चित करती है. इस तरह, यह किसी मौजूदा अधिकार से टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं करती.”

दरअसल, देश का सामान्य आदमी भी जो अपने आंख, कान खुले रखता है अटार्नी जनरल वेंकट रमणी की बात से सहमत नहीं हो सकता. अगर यह अधिकार राजनीतिक दलों को दिया गया तो फिर बहुत से ऐसे लोग और संस्थाएं हैं वह भी यही काम करेंगे और इस कानून के मध्य नजर उच्चतम न्यायालय से अनुतोष चाहेंगे. देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं सामाजिक संस्थाओं को यह अधिकार नहीं है और केंद्र सरकार की एजेंसियां एक्शन में आ जाती हैं तो राजनीतिक दलों के लिए यह खुल्ले दरवाजे से लाभ कैसे दिया जा सकता है.

 राजनीतिक दल : सुर्खाब के पर निकल आए

देश में जिस तरह अन्य संस्थाएं हैं उस तरह लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभाने के लिए राजनीतिक दलों की अवधारणा संविधान में की गई है. अब अगर एक महत्वाकांक्षी राजनीतिक दल अगर सत्ता मे हैं जो अपने स्वार्थ और लाभ के लिए इस तरीके का कानून लाता है तो इस का नीर क्षीर विवेक से विवेचन किया जाना चाहिए. मामले में 5 जजों की संविधान पीठ 31 अक्टूबर 2023 से सुनवाई कर रही है.

दूसरी तरफ शीर्ष विधि अधिकारी वेंकट रमणी ने कहा, “न्यायिक पुनर्विचार की शक्ति, बेहतर या अलग सुझाव देने के उद्देश्य से सरकार की नीतियों की पड़ताल करने के संबंध में नहीं है. एक संवैधानिक न्यायालय सरकार के कार्य की तभी समीक्षा करता है जब यह मौजूदा अधिकारों का हनन करता हो.”

वेंकटरमणी ने कहा आगे कहा, “राजनीतिक दलों को मिलने वाले इन चंदों या अंशदान का लोकतांत्रिक महत्व है और यह राजनीतिक बहस के लिए एक उपयुक्त विषय है. प्रभावों से मुक्त शासन की जवाबदेही की मांग करने का यह मतलब नहीं है. जिस योजना की बात की जा रही है वह अंशदान करने वाले को गोपनीयता का लाभ देती है. यह इस बात को सुनिश्चित और प्रोत्साहित करती है कि जो भी अंशदान हो, वह काला धन नहीं हो. यह कर दायित्वों का अनुपालन सुनिश्चित करती है. इस तरह, यह किसी मौजूदा अधिकार से टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं करती.”

उच्चतम न्यायालय के 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ याचिकाओं के उस समूह पर 31 अक्तूबर से सुनवाई शुरू कर रही है, जिन में पार्टियों के लिए राजनीतिक वित्त पोषण की चुनावी बांड योजना की वैधता को चुनौती दी गई है. वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार ने यह योजना 2 जनवरी 2018 को अधिसूचित की थी. इस योजना को राजनीतिक वित्त पोषण में पारदर्शिता लाने की कोशिशों के हिस्से के रूप में जनता को राजनीतिक चंदे का स्रोत जानने का अधिकार नहीं है.

पार्टियों को नकद चंदे के एक विकल्प के रूप में लाया गया. इस योजना के प्रावधानों के अनुसार, चुनावी बांड भारत का कोई भी नागरिक या भारत में स्थापित संस्था खरीद सकती है. कोई व्यक्ति, अकेले या अन्य लोगों के साथ संयुक्त रूप से चुनावी बांड खरीद सकता है. प्रधान न्यायाधीश से न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ 4 याचिकाओं के समूह पर सुनवाई शुरू कर चुकी है.

इन में कांग्रेस नेता जया ठाकुर और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की याचिकाएं शामिल हैं. पीठ के अन्य सदस्य न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा हैं.

सनद रहे कि उच्चतम न्यायालय ने 20 जनवरी 2020 को 2018 की चुनावी बांड योजना पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया था और योजना पर स्थगन का अनुरोध करने संबंधी गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) की अंतरिम अर्जी पर केंद्र एवं निर्वाचन आयोग से जवाब मांगा था.

मजेदार बात यह है कि केवल जन प्रतिनधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल और पिछले लोकसभा चुनाव या राज्य विधानसभा चुनाव में पड़े कुल मतों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल करने वाले दल ही चुनावी बांड प्राप्त करने के पात्र हैं. अधिसूचना के मुताबिक, चुनावी बांड को एक अधिकृत बैंक खाते के जरिये ही राजनीतिक दल नकदी में तब्दील कराएंगे.

केंद्र और निर्वाचन आयोग ने पूर्व में न्यायालय में एकदूसरे से उलट रुख अपनाया है. एक ओर, सरकार चंदा देने वालों के नामों का खुलासा नहीं करना चाहती, वहीं दूसरी ओर निर्वाचन आयोग पारदर्शिता की खातिर उन के नामों का खुलासा करने का समर्थन कर रहा है. अब यह मामला देश के उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुका है. आम चर्चा है कि राजनीतिक दल विशेषाधिकार ले कर नहीं जन्मे है जो आम संस्था और नागरिकों और संवैधानिक अधिकार से हट कर उन्हें कानून का संरक्षण मिले.

 

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