आदिल ने कमरे में धीरे से झांका. उस की पत्नी बुशरा 7 साल की टिकुली को सीने से लगाए आंख बंद कर लेटी थी. वह बुशरा का थका सा चेहरा देर तक खड़ा देखता रहा. रात को 2 बज रहे थे, पता नहीं बुशरा की आंख लगी है या यों ही आंख बंद कर लेटी है. वह खुद कहां सो पा रहा है.

टिकुली तो अब उस की भी जान है. पीले बल्ब की मद्धिम सी रोशनी में भी उस ने देखा, नन्हा सा चेहरा बुखार की तपिश से कैसा लाल सा हो रहा है. 2 दिन हो गए हैं, टिकुली तेज़ बुखार से तप रही है. बस्ती के एक कामचलाऊ डाक्टर ने दवाई तो दी है, कहा भी है, ‘ज़्यादा परेशानी की बात नहीं है. तीनचार दिनों में ठीक हो जाएगी.’ इतने में बुशरा ने आंखें खोलीं, देखा आदिल गुमसुम खड़ा पता नहीं क्या सोच रहा है. उस ने टिकुली को अपने सीने से धीरे से हटाया, उठ कर बाहर आई. आदिल ने पूछा, “बुखार कम लग रहा है?”

“हां, थोड़ी तपिश कम है, पर अभी भी है. पहले तो बदन जैसे जल सा रहा था. हाय, पता नहीं कब पहले की तरह चहकेगी, चहकेगी भी या नहीं, आदिल? कहीं नन्हें से दिल को सब बता कर हम से गलती तो नहीं हुई?”

“नहीं, बुशरा. कोई और बताए, इस से अच्छा था कि हम ही साफ़साफ़ बता दें. दूसरे धर्म की बच्ची को पालपोस रहे हैं, कुछ भी हो सकता था. कभी भी किसी परेशानी में पड़ सकते थे.”

टिकुली अभी तक बुशरा के सीने से लगी सोई हुई थी. बुशरा का उठ कर जाना उस ने महसूस किया, ज़रा सा हिलीडुली तो बुशरा फिर उसे अपने से लिपटा कर लेट गई. आदिल भी नीचे बिछे बिस्तर पर लेट गया.

बुशरा की आंखों में दूरदूर तक नींद नहीं थी. टिकुली के मुंह से जैसे ही निकला, ‘मां, पानी.’ बुशरा को लगा जैसे उस के बदन में किसी ने जान फूंक दी हो. ‘हांहां, मेरी बच्ची, ले,’ कह कर पास रखा गिलास उस के मुंह से लगा दिया. टिकुली ने अब भी उस की उंगली पकड़ रखी थी. 2 दिनों बाद अपनेआप पानी मांगा था. उस ने पूरा गिलास पानी पी लिया.

बुशरा ने पूछा, “ठीक लग रहा है, कुछ खाएगी?”

‘न’ में सिर हिला कर टिकुली फिर उस से चिपट गई, फिर उस के माथे पर हाथ रख कर पूछा, “मां, आप की टिकुली कहां गई?”

बुशरा मुसकरा दी, उसे सीने से भींच लिया, “यह रही मेरी टिकुली.”

“टिकुली लगाओ न, मां.”

“हां, ये ले,’ कहती हुई उस ने अपने तकिए पर लगी बिंदी उठा कर अपने माथे पर लगा ली. टिकुली ने बिंदी को सीधा किया, फिर निढाल लेट गई. अब तक आदिल भी टिकुली की आवाज़ सुन कर आ गया था, “कैसी है हमारी बिटिया?”

टिकुली कुछ बोली नहीं. बस, आंखें बंद किए लेटी रही. बुशरा ने कहा, “कमज़ोरी बहुत होगी.” फिर छू कर दोबारा देखा, “अभी तो बुखार तेज़ ही लग रहा है. सुबह तक उतरना चाहिए.”

“हां, तुम अब थोड़ा सो लो. ठीक हो जाएगी.”

आदिल फिर लेट गया. बुशरा को अभी टिकुली का बिंदी ठीक करना याद आ गया. इसे अपनी मां की याद आती होगी. 7 साल की ही है, तो क्या हुआ. कुछ तो याद होगा ही. इसे सब सच बता कर कोई गलती तो नहीं हुई? जब से सब बताया है, तभी से बुखार में पड़ी है. टिकुली को देखतेदेखते उस के सामने अर्शी का चेहरा घूम गया. आंखों से आंसुओं की झड़ी सी लग गई. रोतेरोते अचानक हिचकियां बंध गईं. टिकुली की नींद खुल गई. छोटेछोटे गरम हाथ बुशरा के गाल पर रख दिए, “मां, अर्शी याद आ गई?”

बुशरा ने हां में सिर हिला दिया, तुरंत अपने आंसू पोंछे, पूछा, “थोड़ा दूध पिएगी?”

टिकुली ने ‘हां’ में सिर हिलाया तो बुशरा ने तुरंत बिस्तर छोड़ा और उस के लिए दूध ले आई. फिर दोनों चुपचाप एकदूसरे से लिपटी लेट गईं.

टिकुली फिर सो गई. बुशरा को लगा, पानी भी खुद मांग कर पिया है, थोड़ा दूध भी लिया, शायद टिकुली को अब थोड़ा आराम हो रहा है. अर्शी भी जबजब बीमार हुई, ऐसे ही थोड़ाथोड़ा खानापीना शुरू करती तो बुशरा समझ जाती थी कि अर्शी ठीक हो रही है. बुशरा के कलेजे में अपनी बेटी को याद कर फिर एक हूक सी उठी. उस की आंखों के सामने 3 साल पहले का कोरोना महामारी का भयावह मंज़र घूम गया जब अपनी जान बचाना ही लोगों का एकमात्र उद्देश्य रह गया था. पता नहीं कैसे अर्शी इस की चपेट में आ गई थी.

सरकारी अस्पताल में कैसे डाक्टरों के आगे गिड़गिड़ा कर उस ने और आदिल ने अर्शी को एडमिट किया था. पूरे 4 दिन अस्पताल से दूर भूखेप्यासे खड़े रहते, बड़ी मुश्किल से एक बार अर्शी को देखने को किसी तरह घुस गए थे, तो वहीं एक कोने में फटेहाल से राधा और रमेश भी अपनी आखिरी सांसें ले रहे थे.

राधा समझ गई थी कि अर्शी के मातापिता बाहर ही खड़े रहते हैं. बड़ी मुश्किल से उस की बुशरा से थोड़ी बातचीत भी हुई थी. यह समय ऐसा था कि अपने भी अपने नहीं रहे थे या कह सकते हैं कि रह नहीं पा रहे थे. अपनों के लिए भी कोई कुछ चाहते हुए भी नहीं कर पा रहा था. जब राधा और रमेश को समझ आ गया कि वे नहीं बचेंगे तो राधा ने अपनी उखड़ती सांसों के साथ बुशरा के सामने हाथ जोड़ दिए, ‘बहन, हम दानापुर, बिहार से यहां कामधंधे के लिए आए थे. अब सब छूट रहा है. मेरी 4 साल की टिकुली कमरे पर अकेली है, भूखीप्यासी. पता नहीं कोई उसे खाना भी दे रहा होगा या नहीं. उसे तुम अपने पास रख लोगी?’ कह कर राधा ने अपने कमरे की चाबी बुशरा को सौंप दी थी.

‘आप के कोई रिश्तेदार?’

‘नहीं, टिकुली के पिताजी अनाथालय में पले हैं. मेरे मायके में भी कोई इसे देखने वाला नहीं बचा. यह महामारी सब को ले गई.’

उसी दिन अर्शी ने भी अंतिम सांस ली. रोतेकलपते आदिल और बुशरा को अर्शी का शव भी नहीं दिया गया था. यह ऐसा भयानक समय था कि किसी को यह देखने की फुरसत नहीं थी कि कौन मर रहा है, कौन घर जा रहा है. अफरातफरी का माहौल था. अस्पतालों में डाक्टर्स को घर गए हुए कईकई दिन बीत रहे थे. रातदिन, बस, एंबुलैंस की आवाज़ सुनाई देती. सूनी सड़कें. हर तरफ मौत की चुप्पी. इंसान घर से निकलते हुए डरता था कहीं मौत घात लगाए न बैठी हो.

ऐसी बीमारी कभी किसी ने देखी नहीं थी. ऐसे में अर्शी का दिल ही दिल में मातम मनाते आदिल और बुशरा सीधे राधा के कमरे पर पहुंचे. वहां आसपास के किसी घर से कोई टिकुली को खानापीना दे जाता था. जैसे ही बुशरा ने अकेली रह रही डरीसहमी टिकुली को देखा, वह उसे सीने से लगा कर रो पड़ी. उस से कहा, ‘बेटा, तुम्हारी मां ने हमें भेजा है. तुम्हारे मां, बाबा दोनों बहुत बीमार हैं. उन्हें ठीक होने में कुछ समय लगेगा. तब तक तुम हमारे साथ रहोगी.’  यह कह कर उस ने आदिल की तरफ इशारा किया था. आदिल ने स्नेह से उस के सिर पर अपना हाथ रख दिया था, ‘अब टिकुली हमारे साथ रहेगी.’

इस समय लोगों के पास दूसरों के घरों में, जिंदगी में तांकझांक करने का समय नहीं था. बुशरा और आदिल ने चुपचाप धीरेधीरे राधा का कमरा खाली कर दिया और टिकुली को अपनी बेटी मान कर अपने घर ले आए. जब बसें चलनी शुरू हो गईं तो थोड़े दिनों बाद अपना कमरा भी खाली कर के बनारस की इस बस्ती से काफी दूर एक और जगह अपना नया ठिकाना बना लिया. टिकुली कई दिन गुमसुम रही. पर बालमन जल्दी ही नई जगह रमना जानता है.

आदिल और बुशरा उस पर अपना इतना लाड़ उड़ेलते कि वह अब जल्दी ही उन से घुलमिल गई थी. अर्शी की याद बुशरा और आदिल को तड़पाती. वे अकेले में बैठ कर रो भी लेते पर टिकुली को देख कर फिर जीने की कोशिश करने में लगे थे.

धीरेधीरे महाविनाश के बाद जद्दोजहेद के साथ जीवन पटरी पर लौट रहा था. इस महामारी में हर वर्ग पर कहर टूटा था. अमीरों का पैसा भी उन की जान नहीं बचा पाया था. गरीबों पर गरीबी और बीमारी की दोहरी मार पड़ी थी. अब आदिल ने फिर एक फैक्ट्री में काम पर जाना शुरू कर दिया था. बुशरा भी छोटेमोटे काम करने लगी थी.

अर्शी की तरह टिकुली को पढ़ानेलिखाने की जिम्मेदारी भी उठानी थी. अर्शी और टिकुली एक ही उम्र की थीं. अर्शी के कपड़े पहन कर जब टिकुली आदिल और बुशरा के सामने खड़ी हो कर हंसती, खिलखिलाती, दोनों के आंसू बहते चले जाते. टिकुली ने एक दिन खुद ही बताया था, ‘पता है, मां, मुझे टिकुली क्यों कहते हैं, मां कहती थीं कि मुझे उन के माथे की टिकुली बहुत अच्छी लगती थी, मैं वही छेड़ती रहती थी, और खुद भी लगाती थी इसलिए मेरा नाम ही टिकुली पड़ गया.’ वह अपने ही नाम पर हंसती रहती.

टिकुली कई बार सोतेसोते चौंक कर उठ बैठती. अपनी मां को ढूंढ़ती. बुशरा उसे बहला लेती. धीरेधीरे वह बुशरा और आदिल के नए ठिकाने में रमती गई. बुशरा पहले बिंदी नहीं लगाती थी पर टिकुली कहीं से भी कुछ ला कर उस के माथे पर लगा देती, कहती, ‘मेरी मां बहुत अच्छी टिकुली लगाती हैं.’

टिकुली को अपनी मां इसी बात पर अकसर याद आती. बुशरा उस की ख़ुशी के लिए अपने माथे पर एक छोटी सी बिंदी लगा लेती.

एक दिन बुशरा और आदिल टिकुली को अपनी गोद में लिटा कर आपस में बात कर रहे थे. टिकुली बहुत ध्यान से सुन रही थी, ‘हम टिकुली को न हिंदू, न मुसलमान बनाने पर ज़ोर देंगे, उसे अच्छा इंसान बनाएंगे. उसे पढ़ालिखा कर उस के पैरों पर खड़ा कर देंगे. हम उसे किसी भी धर्म की बातों में फंसने ही नहीं देंगे. इस महामारी में कौन सा धर्म किस के काम आया है? हिंदू, मुसलमान, ईसाई सब तो चले गए, किस को कौन बचा पाया? हर धर्म का इंसान तड़पता चला गया है. लाशों तक का तो कोई ठिकाना न रहा. सच पूछो, आदिल, मैं तो जैसे अब नास्तिक सी होती जा रही हूं. बस, अपनी अर्शी जैसी टिकुली को अब डाक्टर ही बनाना है चाहे इस के लिए रातदिन मेहनत करनी पड़े.’

और अब 2 दिनों पहले ही बुशरा और आदिल ने आपस में बात की थी. आदिल ने कहा था, ‘बुशरा, टिकुली को अब बता दो कि उस के मातापिता नहीं रहे. थोड़ी और बड़ी हो गई तो फिर से नई बातों से घबरा न जाए. अभी तो एडजस्ट कर भी लेगी. हम से थोड़ी मिलजुल गई है. ईमानदारी से अब उसे समझा देते हैं.’

बुशरा ने भी अपनी सहमति दे दी थी. दोनों ने उस दिन टिकुली को बता दिया था कि उस के मातापिता नहीं बचे. अब वह हमेशा उन के साथ ही रहेगी. टिकुली चुपचाप बैठी रही थी, फिर रोई और रोतेरोते ही उसे बुखार चढ़ता चला गया था. 7 साल की बच्ची के लिए अब यह सब सहना कैसा होगा, वह ठीक हो कर क्या कहेगी, उन के साथ ख़ुशीख़ुशी रह लेगी या दुखी हो कर मजबूरी में रहेगी, क्या उसे इतने दिन में हम से प्यार नहीं हो गया होगा? अर्शी और टिकुली में कोई फर्क तो हम ने कभी समझा नहीं. आदिल और बुशरा के मन में बस यही सब चलता रहता.

बुशरा ने एक ठंडी सी सांस भरी तो टिकुली जाग गई. उस की हथेलियां बुशरा के गरदन पर टिकी थीं. हथेलियां कुछ भीगी सी लगीं, तो बुशरा चौंकी, शायद टिकुली का बुखार टूटा था, पसीना आ रहा था. वह उठ कर बैठ गई. टिकुली का माथा छुआ, पसीने से तर था. उस ने फौरन आदिल को आवाज़ दी, “आदिल, देखो तो. टिकुली का बुखार उतर रहा है, शायद.”

आदिल उठ कर आया, थर्मामीटर टिकुली की बांह में रखा. बुशरा ने अपनी आंखें पोंछीं जिन में अर्शी की याद में एक बार फिर नमी उतर आई थी. ऐसे ही तो बीमारी में अर्शी उस के साथ लिपटी रहती थी. टिकुली कभी आदिल को देख रही थी, कभी बुशरा को. कुछ बोली नहीं, तो बुशरा ने पूछा, “क्या हुआ, टिकुली?”

“तो फिर मेरे मांपिताजी मर गए? अब कभी नहीं आएंगे?”

“वे नहीं आएंगें, पर हम हैं न. तू अब हमेशा मेरे पास रहेगी.”

बुशरा और आदिल का दिल ज़ोर से धड़क रहा था. अब पता नहीं टिकुली क्या सोच रही होगी, कहीं शोर सा न मचा दे. आसपास वाले तो उसे उन की बेटी ही समझते थे. कहीं वे किसी बड़ी मुसीबत में न फंस जाएं. दोनों मन ही मन बहुत डर रहे थे. टिकुली की एक हरकत उन्हें जेल भी पहुंचा सकती थी जबकि उन्होंने कोई चोरी नहीं की थी. टिकुली के मातापिता ने ही उन्हें टिकुली सौंपी थी. पर उन के पास इस बात का कोई सुबूत तो था नहीं. दोनों की निगाहें टिकुली पर टिकी थीं. कमज़ोर सी आवाज़ में टिकुली ने कहा, “पिताजी, थर्मामीटर देखो न. कितनी देर हो गई.”

“अरे, वाह, बुखार तो बहुत कम हो गया,” थर्मामीटर देखते हुए आदिल ने खुश होते हुए कहा, “चलो, अब टिकुली को कुछ खिलाओ, बुशरा. उस ने कब से कुछ नहीं खाया है.”

बुशरा ने फौरन उस के लिए पतलीपतली खिचड़ी चढ़ा दी. जब तक खिचड़ी बनी, उसे अपने हाथों से सेब काट कर खिलाती रही. फिर खिचड़ी अपने हाथों से खिलाई.

धीरेधीरे टिकुली ठीक हो रही थी. आदिल ने काम पर जाना शुरू कर दिया. बुशरा अभी टिकुली की देखरेख के लिए घर पर ही थी. वह देख रही थी कि टिकुली ठीक तो हो रही है पर थोड़ा चुप सी रहती है. अब स्कूल खुलने लगे थे. पिछले कई महीने तो बच्चे घर में बंद ही रहे थे. अब सड़कों पर स्कूलबसें एक लंबे समय बाद दिखतीं.

कोरोना महामारी बच्चों के बचपन का बहुत ज़रूरी समय खा गई थी. अभी टिकुली का एडमिशन करवाना था. उस में कोई अड़चन न आ जाए, यह चिंता भी थी. इन सब से अलग टिकुली का थोड़ा चुप रह जाना दोनों को अखर रहा था. वे दोनों अपनी तरफ से टिकुली को संभलने के लिए समय दे रहे थे.

एक दिन बुशरा ने टिकुली को अपने पास लिटा लिया, प्यार से पूछा, “टिकुली, क्या सोचती रहती है? अब तो ठीक हो गई न? अब स्कूल जाना है?” टिकुली बुशरा को देखती रही, फिर पूछा, “मां, आप लोग तो मर नहीं जाओगे न?”

“क्या?” बुशरा हैरान सी उठ कर बैठ गई.

“मां, मुझे आजकल बहुत डर लगता है.”

“ओह्ह, मेरी बच्ची. क्याक्या सोचती रहती है. अरे, हम कहीं नहीं जा रहे हैं. अभी तुझे बहुत पढ़ानालिखाना है.”

“हां, और मुझे डाक्टर भी बनाना है न,” कहते हुए टिकुली जोश से उठ कर बैठ गई, तकिए पर लगी बुशरा की बिंदी को ठीक करते हुए उस से फिर लिपट गई. कुछ दिनों से घर में पसरा सन्नाटा दुम दबा कर कहीं भाग गया था.

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