आजकल हर जगह जी-20 सम्मेलन की चर्चा है. दिल्ली दुलहन की तरह सजाई गई पर दिल्ली वालों के लिए 8 से 10 सितंबर के बीच लौकडाउन जैसे हालात रहे. स्कूल, दफ्तर, मौल, बाजार सहित कई चीजें ऐसी हैं जो इन दिनों बंद रहीं. 8 सितंबर को सुबह 5 बजे से 10 सितंबर को रात 11:59 बजे तक नई दिल्ली का पूरा क्षेत्र ‘नियंत्रित क्षेत्र-I’ माना गया, एक तरह का कर्फ्यू एरिया.

चलो, इतना बड़ा आयोजन है और अगर इस से देश को आगे बढ़ने में मदद मिलनी थी तो लोग यह सोच कर थोड़ीबहुत परेशानी झेल भी गए कि इस से नई पीढ़ी को रोजगार पाने के बेहतर अवसर मिलेंगे.

पर नई पीढ़ी किस हाल में है, यह जानने की फुरसत किस सत्ताधारी खादीधारी को है, यह नहीं दिखाई दे दिया. जी-20 सम्मेलन के ठाठ से अंगड़ाई लेती दिल्ली से राजस्थान के कोटा की दूरी तकरीबन 500 किलोमीटर है और वहां जो कोचिंग संस्थानों के या दूसरे तमाम होस्टलों के कमरों की छत पर लटके लेटैस्ट तकनीक से बने ‘ऐंटी सुसाइड फैन’ भी छात्रों को खुदकुशी करने से रोक नहीं पा रहे हैं, तो जान लीजिए कि दिल्ली के जी-20 सम्मेलन के सारे तामझाम फुजूल हैं.

रविवार, 27 अगस्त, 2023 को कोटा में 2 बच्चों ने पढ़ाई के बोझ तले दब कर अपनी जिंदगी खत्म कर ली. एक बिहार के रोहतास जिले का लाड़ला आदर्श राज था तो दूसरा महाराष्ट्र के पिछड़े जिले लातूर का रहने वाला अविष्कार संभाजी कासले. पहला महज 18 साल का था और दूसरा तो अभी 16 साल का ही हुआ था.

चिट्ठी में छिपा दर्द

जान देने वाले एक छात्र की लिखी आखिरी चिट्ठी के अंश देखिए :

‘अभिनव मेरे भाई, तुम कभी कोटा न आना. मैं नहीं चाहता कि तुम भी मेरी तरह दिमागी रूप से परेशान हो जाओ. मैं यहां सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई करता हूं. अकेला हो गया हूं. मोबाइल है नहीं, तो कई दिनों से यह लैटर लिख रहा हूं. जब मौका मिल पाया था तब भेजा.

‘अभिनव, तुम पेंटिंग बनाओ. सोशल मीडिया का इस्तेमाल करो. हो सकता है कि तुम को घर बैठे ही कहीं से और्डर आ जाएं. तुम बहुत बड़े आर्टिस्ट बन जाओ.

‘अंत में मांपापा, एक बात आप से बताना भूल गया. भूला नहीं शायद हिम्मत नहीं जुटा पाया. पिछले हफ्ते एक टैस्ट हुआ था, पापा. 50 मार्क्स का था. मैं 35 नंबर ला पाया, जो क्लास में सब से कम थे. सब के नंबर अच्छे थे. कोचिंग वाले बोले कि मार्कशीट घर जाएगी. शायद अब तक पोस्ट भी हो गई होगी, लेकिन उस से पहले मैं आप सभी से माफी मांग रहा हूं. मांपापा, आप का सपना अब अभिनव पूरा करेगा. मैं उस लायक नहीं बना.

‘अभिनव, तुम रोना नहीं. बस, यह सोच लेना भैया का सपना भी तुम को पूरा करना है.

‘अलविदा.’

राजस्थान के कोटा को आईआईटी और नीट के इम्तिहान को क्रैक करने का हब माना जाता है. यह अपनी पढ़ाई के लिए इतना ज्यादा मशहूर है कि ‘कोटा मौडल’ की चर्चा दुनियाभर में होती है. यही वजह है कि कोटा में हर साल उच्च शिक्षा की तैयारी करने के लिए आने वाले छात्रों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है.

साल 2021-22 में यहां 1,15,000 छात्र कोचिंग के लिए पहुंचे थे, तो वहीं 2022-23 में यह तादाद बढ़ कर 1,77,439 हो गई थी. साल 2023-24 में यह आंकड़ा 2,05,000 तक पहुंच गया है. कोटा में कोचिंग इंडस्ट्री की कुल नैटवर्थ तकरीबन 5,000 करोड़ रुपए है. यहां 3,000 से ज्यादा होस्टल, 1,800 मैस और 25,000 पीजी कमरे हैं.

कहने का मतलब है कि कोटा में पढ़ाई के संसाधन इतने ज्यादा मजबूत हैं कि ‘कोटा मौडल’ अपनेआप में एक मिसाल बन गया है, जहां छात्रों के लिए शानदार कोचिंग सैंटर, पढ़ाने के लिए उम्दा टीचर, एक से बढ़ कर एक लाइब्रेरी, पढ़ने की लाजवाब सामग्री… और भी न जाने क्याक्या मुहैया है. इस सब से छात्रों को यह लगने लगता है कि जो कोटा से पढ़ लेगा वह डाक्टर या इंजीनियर तो बन ही जाएगा.

लेकिन इसी ‘कोटा मौडल’ का एक भयावह रूप भी है. इस साल वहां 24 छात्र पढ़ाई और मानसिक दबाव में अपनी जान दे चुके हैं. हालात इतने बदतर हो रहे हैं कि वहां कोचिंग संस्थानों और होस्टलों में ‘ऐंटी सुसाइड फैन’ लगाने के आदेश जारी होने के बाद भी रविवार, 27 अगस्त, 2023 को 4 घंटे के भीतर 2 छात्रों ने अपनी जान दे दी थी.

आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2015 में 17 छात्रों ने सुसाइड किया, जबकि साल 2016 में 16, 2017 में 7, 2018 में 20, 2019 में 8, 2020 में 4 और 2022 में 15 छात्रों ने अपनी जान दे दी.

दरअसल, कोटा का एजुकेशन सिस्टम अब हर तरह से फेल होता नजर आ रहा है. यहां का मैनेजमैंट चरमरा गया लगता है और छात्रों को इनसान कम, फीस भरने का एटीएम ज्यादा समझा जाने लगा है.

कोटा के कोचिंग सिस्टम के अपने ही कायदे बने हुए हैं. वे 9वीं क्लास से ही आईआईटी और नीट के लिए कोर्स शुरू कर देते हैं. वहां एक साल में एक बच्चे के रहने का खर्च तकरीबन ढाई लाख रुपए के आसपास का है. एक से डेढ़ लाख रुपए कोचिंग की फीस है. इस के अलावा बच्चों के दूसरे तमाम खर्चे भी होते हैं. सबकुछ जोड़ कर देखें तो एक साल में एक बच्चे पर तकरीबन 4 लाख रुपए तक भी खर्च हो जाते हैं.

सरकार है कठघरे में

अभी हम ने जिस ‘कोटा मौडल’ का पोस्टमार्टम किया है, वहां सरकार से ज्यादा कोटा के कोचिंग संस्थान और बच्चों के मांबाप ही कुसूरवार नजर आ रहे हैं, पर इन हालात की जड़ में सरकार की वे योजनाएं हैं जो शिक्षा का व्यावसायीकरण करने की जिम्म्मेदार हैं. कोटा में बच्चों की मौत में गुनाहगार के तौर पर सरकार को कठघरे में खड़ा होना चाहिए था, पर उसे तो कोचिंग संस्थानों और मांबाप ने बाइज्जत बरी कर दिया है.

ऐसा नहीं है कि पहले देश में प्राइवेट शिक्षा का चलन नहीं था, पर अपने समय में कांग्रेस ने खूब सरकारी स्कूल और कालेज बनवाए थे. वहां शिक्षा का स्तर भी बहुत अच्छा था और अब भी है, पर पिछले कुछ वर्षों से देश में शिक्षा का जो निजीकरण हुआ है, उस से देश में एक असंतुलन सा बढ़ गया है.

आप भगवाई चश्मा पहन कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की नीतियों में कितनी भी कमियां निकाल दीजिए, पर जिस तरह उन्होंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों और वहां की पढ़ाई का स्टैंडर्ड बढ़ाया है, वह तारीफ के काबिल है.

पर यह सफलता ऊंट के मुंह में जीरा है. कड़वी सचाई तो यह है कि शिक्षा अपनेआप में विभाजन पैदा करने का एक माध्यम बन गई है. एक अमीर मातापिता के बच्चे को अच्छी शिक्षा मिलेगी और गरीब मातापिता का बच्चा बुनियादी शिक्षा भी नहीं पा सकता है.

कोढ़ पर खाज यह है कि सरकार के बढ़ावे पर प्राइवेट स्कूलों, कालेजों, यूनिवर्सिटियों की देश में बाढ़ सी आ गई है और शिक्षण संस्थानों को चलाना एक लाभदायक व्यवसाय बन गया है. सरकारी शिक्षण संस्थानों में कम सीटें होती हैं तो मजबूरी के चलते छात्र प्राइवेट शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेते हैं, जहां वे अपने लाभ के अनुसार छात्रों से फीस लेते हैं.

देश में हर साल 12वीं पास करने वाले छात्रों की तादाद 1 करोड़ से ज्यादा है. साल 2022 में 1 करोड़, 43 लाख बच्चे 12वीं के ऐग्जाम में बैठे थे और उन में से 1 करोड़, 24 लाख बच्चे पास हो गए थे. अब सरकार के पास क्या इन 1 करोड़, 24 लाख बच्चों को आगे मुफ्त या कम खर्च के हिसाब से पढ़ाई जारी रखने का इंफ्रास्ट्रक्चर है? नहीं है.

सरकारें इन बच्चों की बातें ही नहीं करती हैं, क्योंकि देश चलाने वाले अब बिलकुल नहीं चाहते कि ज्यादातर गरीब तबके के ये सब छात्र पढ़लिख कर अमीरों की बराबरी कर लें, इसलिए डाक्टरी की ऊंची पढ़ाई में सिर्फ 8,500 सीटें सरकारी मैडिकल कालेजों में हैं. प्राइवेट कालेजों में और 47,415 सीटें हैं, जिन में खर्च लाखों का है. इंजीनियरिंग कालेजों में सरकारी कालेजों की 15,53,809 सीटें हैं पर आईआईटी जैसे इंस्टीट्यूटों की सीटें मुश्किल से 10,000-12,000 हैं जहां फीस 10-15 लाख रुपए तक होती है.

आर्ट्स स्ट्रीम की बात करते हैं. मान लो किसी सरकारी कालेज में पूरे साल की फीस 15,000 रुपए है तो प्राइवेट कालेज में यह फीस एक लाख सालाना से भी ज्यादा हो सकती है. चूंकि ये संस्थान शहर से थोड़ा दूर होते हैं तो वहां होस्टल आदि में रहने का खर्च डेढ़ से 2 लाख रुपए सालाना तक पड़ जाता है. अगर कोई प्रोफैशनल कोर्स कर रहा है तो कम से कम 10 लाख से 15 लाख रुपए का खर्च आ सकता है. पर वहां की समस्या ही दूसरी है. वहां के ज्यादातर छात्र हिंदी लिखने में तकरीबन सिफर होते हैं और इंगलिश भी उन की माशाअल्लाह होती है.

सरकार की गलत नीतियों का असर है कि हर राज्य में जितने भी प्राइवेट शिक्षा संस्थान हैं, वे ज्यादातर नेताओं या उन के नातेरिश्तेदारों के हैं. दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कई साल पहले एक मुद्दा उठाते हुए कहा था कि जनता को पता चलना चाहिए कि पूरे देश में कितने प्राइवेट स्कूल नेताओं के हैं और किनकिन स्कूलों के बोर्ड में नेता और अफसर हैं.

उन्होंने यह भी कहा था कि हम शिक्षा के निजीकरण को तो नहीं रोक सकते, लेकिन अगर हम इस के सामने सरकारी शिक्षा की क्वालिटी और उपलब्धता बेहतर कर दें तो यह अपनेआप कम होने लगेगा, यानी, अब हमें बड़ी लाइन खींचनी है. इस के लिए हमें जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी. स्कूल में, क्लास में क्वालिटी एजूकेशन का माहौल तैयार करना पड़ेगा.

मनीष सिसोदिया ने यह भी कहा था कि हमारे कई सरकारी स्कूलों में एकएक क्लासरूम में 100-100 बच्चों को बैठ कर पढ़ाई करनी पड़ती है. हमें व्यवस्था करनी है कि हर क्लासरूम में ज्यादा से ज्यादा 40 बच्चे हों, तभी लोगों का भरोसा सरकारी स्कूलों के प्रति बढ़ेगा. और हम ऐसा कर रहे हैं. जब हम सरकारी स्कूलों के बच्चों के अंदर वही आत्मविश्वास भर पाएंगे जैसा आत्मविश्वास भरने का दावा प्राइवेट स्कूल वाले करते हैं, तब लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों की जगह सरकारी स्कूलों में भेजना शुरू करेंगे.

अगर भारत के संविधान की बात करें तो अनुच्‍छेद 21-क सरकार को निर्देशित करता है कि शिक्षा मौलिक अधिकार है और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राज्य में 6 से 14 वर्ष के आयु समूह में सभी बच्‍चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करे, जिस के लिए सरकार ने सरकारी स्कूल खुलवाए भी हैं. पर पिछले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बिगड़ गया है. शिक्षा माफिया ने राजनीतिक और सरकारी तंत्र से गठजोड़ कर नियोजित ढंग से सरकारी स्कूलों की कमर तोड़ दी है, ताकि इन की दुकान चलती रहे.

वर्तमान सरकार दावा करती है कि पिछले 9 साल में देश में सड़कों का जाल बिछ गया है, हाईवे ही हाईवे दिखाई देने लगे हैं, पर सवाल है कि उन पर चलेगा कौन? बड़ीबड़ी गाड़ियों  वाले ही न? पर उन साइकिल वालों का क्या होगा जो देश की रीढ़ की हड्डी हैं? वे जो कारखानों, मिलों और बड़ीबड़ी इंडस्ट्री में मेहनतकश हैं, क्या वे इन सड़कों से कोई फायदा ले पाएंगे? एकदम न के बराबर. अगर वे और उन के होशियार बच्चे डाक्टर या इंजीनियर बनने का सपना देखते हैं, तो इस में गलत क्या है? उन्हें सस्ती शिक्षा क्यों नहीं दे पाती है सरकार?

दरअसल, सरकार की नीयत ही नहीं है कि गरीब का बच्चा ऊंचे दर्जे का हाकिम बन जाए. भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तो एजेंडा ही यह है कि वंचित समाज ‘मंदिर बनाओ’ अभियान में ही बिजी रहे. वह उन का परमानैंट कारसेवक बन जाए, जिसे एक आवाज पर सड़क पर उतार दिया जाए बवाल मचाने के लिए. तभी तो जब जी-20 सम्मेलन हुआ,तब दिल्ली से आम आदमी नदारद हो गया और किसी नूंह दंगे जैसी साजिश रचने की जरूरत ही नहीं पड़ी.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...