‘‘सुनिए,’’ घबराई हुई शिवरानी ने अपने पति सिरीकंठ को ? झोड़ कर कहा, ‘‘कब तक सोते रहेंगे. अब उठिए भी, बाहर की कुछ खबर भी है आप को?’’ गुलाब की पंखडि़यों जैसे उस के होंठ कांप रहे थे.

‘‘कहो, क्या बात है? तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?’’ सिरीकंठ ने आंखें मलते हुए अपना लिहाफ एक तरफ हटा दिया.

‘‘मैं अभीअभी बाहर गई थी…’’ शिवरानी के होंठ पहले की भांति कांप रहे थे.

‘‘इस में घबराने वाली कौन सी

बात है,’’ सिरीकंठ ने अपने चेहरे पर अनभिज्ञता का मुखौटा चढ़ाते हुए कहा. यद्यपि वह पत्नी का चेहरा देखते ही शंकाओं में घिर गया था फिर भी उस ने अपने डर को जाहिर करना उचित नहीं सम?ा.

‘‘बाहर गेट पर…’’ शिवरानी आगे कुछ भी नहीं बोल पाई. उस की आंखों में आंसू उमड़ पड़े. संभवत: वह बेहोश हो जाती मगर सिरीकंठ ने उसे अपनी छाती से लगा कर शांत करने की कोशिश की.

कुछ सोच कर वह बाहर जाने के लिए उठने लगा परंतु शिवरानी ने उसे रोक लिया, ‘‘नहीं…नहीं, आप बाहर नहीं जाएंगे. आप को कुछ हो गया तो हम कहीं के न रहेंगे.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. जरा देख तो लूं. गेट पर आखिर ऐसी क्या बात है जिस से तुम इतनी घबराई हुई हो.’’

‘‘रहने दीजिए, आप मत जाइए. आप कमरे के बाहर कदम भी नहीं रखेंगे. आप को मेरी कसम है.’’

‘‘फिर तुम ही बताओ आखिर बात क्या है?’’

‘‘वहां…वहां गेट पर किसी ने चाक से सफेद क्रास बना दिया है.’’

सिरीकंठ के पांव तले की जमीन खिसक गई. उन दिनों शहर में यह अफवाह गरम थी कि आतंकवादी जिस मकान पर सफेद क्रास लगाते हैं उस मकान के किसी सदस्य की मृत्यु निश्चित है.

धरती ने आतंक और भय के वातावरण की काली चादर ओढ़ रखी थी. किस बात पर भरोसा किया जाए और किस बात पर नहीं, यह निर्णय कर पाना कठिन हो रहा था.

‘‘बच्चे कहां हैं?’’ हड़बड़ाहट में सिरीकंठ अपने बच्चों को ढूंढ़ने लगा.

2 मासूम बच्चियां थीं. काकी और बबली. उन्होंने अभी जिंदगी की कुछेक बहारें ही देखी थीं. बड़ी 12 वर्ष की थी और छोटी 9 वर्ष की.

मनुष्य का स्वभाव भी विचित्र है. जब जान के लाले पड़ते हैं तो सब से पहले वह आने वाली पीढ़ी की सुरक्षा के लिए चिंता करता है. अपने जीवन से ज्यादा बच्चों की जिंदगी को महत्त्व देता है क्योंकि वे उस के भविष्य के जामिन होते हैं.

‘‘आज के बाद बच्चों को हरगिज बाहर नहीं जाने देना,’’ सिरीकंठ ने पत्नी को सतर्क किया और स्वयं इसी उधेड़बुन में कमरे के चक्कर लगाता रहा कि न जाने आगे क्या होने वाला है.

‘मुझे मालूम था कि ऐसा ही होगा मगर विशंभर ने मु?ो रोक लिया. मैं तो कब का यहां से चला गया होता,’ वह बड़बड़ाने लगा. फिर पत्नी की तरफ संबोधित हुआ, ‘‘विशंभर को खबर कर दें. अब तो जाना ही पड़ेगा.’’

‘‘किस विशंभर को?’’ विशंभर का नाम सुनते ही शिवरानी के तनबदन में आग लग गई, ‘‘कितने भोले हैं आप. विशंभर…हुं…’’

‘‘क्या हुआ विशंभर को?’’

‘‘होना क्या था. वे लोग तो अंधेरा छटने से पहले ही घर छोड़ कर जा चुके हैं.’’

‘‘सच कहती हो?’’ उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उस का सगा भाई ऐसा कर सकता है. वह कई दिनों से विशंभर को यह सम?ाने की कोशिश कर रहा था कि अब हम यहां सुरक्षित नहीं हैं. सभी लोग घाटी छोड़ कर जा रहे हैं. हमें भी जितनी जल्दी हो सके चले जाना चाहिए. उस ने अपनी आंखों से हजारों आतंक पीडि़त लोगों को अपने घर छोड़ कर पलायन करते हुए देखा था.

बड़े भाई से हमेशा टका सा जवाब मिलता, ‘‘सिरी, तुम डरपोक हो. ऐसी घटनाएं तो होती ही रहती हैं. आजादी से पहले भी हुई थीं और आजादी के बाद भी हुईं. 10-15 दिन में सब ठीक हो जाएगा.’’

भाई का जवाब सुन कर सिरीकंठ को अपनी कायरता पर शर्म आ जाती. सिरीकंठ सूचना विभाग में हेडक्लर्क था इसलिए ताजा खबरें गरम हवा की तरह देरसवेर उस के कानों तक पहुंच ही जातीं. इस में अब कोई संदेह नहीं था कि इस बार उस की पूरी जातबिरादरी को घाटी से पलायन करना ही पड़ेगा. इतिहास साक्षी है कि जालिमों से बचने के लिए पहले भी कई बार कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया फिर भी कश्मीर इन लोगों से पूरी तरह खाली नहीं हुआ, लेकिन अब आतंक के तेवर ही बदले हुए थे. यही कारण था कि वह बारबार अपने भाई से परामर्श करता.

सिरीकंठ को इस बात का तनिक भी दुख नहीं हुआ कि उस के बड़े भाई ने जाने से पहले उसे बताया तक नहीं. वे भाइयों की तरह रहे ही कब थे. देखा जाए तो उस की जाति वालों की यह विशेषता है कि जियो तो अकेले जियो, मरो तो अकेले मरो. वह जाति का ब्रह्मण था. ब्राह्मणों में राजपूतों की तरह भाईचारा नहीं होता. हर व्यक्ति अपने को तीसमार खां सम?ाता है. अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के सामने समुदाय का कोई महत्त्व नहीं होता. सिरीकंठ और विशंभर के परिवारों का मेलमिलाप केवल पूजा तक ही सीमित था और वह भी मजबूरी में.

सिरीकंठ अपराधियों की तरह अपनी पत्नी के सामने खड़ा रहा. उसे कुछ सूझा ही नहीं रहा था. टेलीफोन करना चाहा, लाइन खराब थी. बाहर जाना खतरे से खाली न था. करता भी तो क्या?

जिंदगी में पहली बार वह अपने को असहाय महसूस करने लगा. उस की पत्नी भी परेशान और बेबस थी. कभी पति के कमरे में दाखिल होती तो कभी बच्चों के कमरे में जाती.

गोलियों की आवाजें लगातार आ रही थीं. स्टेनगन की निरंतर फायरिंग से कान ?ान?ानाने लगे थे. उन्हें पता नहीं था कि गोलियां कौन चला रहा है. आतंकवादी या सुरक्षाबल. दूर से गोलियां चलने की आवाजें कई बार आईं और फिर कहीं नजदीक ही राकेट के फटने की आवाज आई. धमाके से सारा मकान हिल गया.

सहमी हुई शिवरानी ने मकान की सारी खिड़कियां और दरवाजे बंद कर दिए. हर खिड़की पर परदा डाल दिया ताकि मकान के अंदर रोशनी की किरण भी प्र?वेश न कर सके. मियांबीवी दोनों चटाई पर निस्तब्ध दुबके बैठे रहे.

बाहर की हलचल के बारे में केवल टीवी या रेडियो पर कोई सूचना मिल सकती थी मगर उस का स्विच औन करने का किस में साहस था. आशंका इस बात की थी कि कहीं कोई आवाज बाहर गई तो न जाने क्या प्रलय आ जाए.

शिवरानी को न जाने क्या सूझा. वह उठी और अपने गहने और नकदी पोटली में समेट कर ले आई. ऐसी स्थिति में औरत स्त्री धन को ही अपना आखिरी सहारा मान लेती है. कुछ देर बाद वह फिर दबे कदमों से अंदर जा कर थोड़े कपड़े उठा लाई और उस की गठरी बांधने लगी. सिरीकंठ को उस की इन हरकतों पर हैरानी हो रही थी, लेकिन वह चुपचाप देखता रहा.

ऐसी परिस्थितियों में समय काटे नहीं कटता. जब मौत सिर पर मंडराती है तो जीवन बो?ा सा लगता है. हर सांस चुभने लगती है. आंखों का झपकना भी सहन नहीं होता.

इस बीच बच्चे भी जाग गए. घर की खामोशी देख कर उन्होंने वस्तुस्थिति का स्वयं ही अनुमान लगा लिया. बबली को दोचार दिन पहले ही स्कूल में किसी सहेली ने सचेत किया था, ‘‘बबली, तुम लोगों को यहां से जाना पड़ेगा. मेरे भैया कहते थे कि जैसे अफगानिस्तान से रूसी फौजों को खदेड़ दिया गया वैसे ही हिंदुस्तानी फौज को भी कश्मीर से जाना पड़ेगा. वादी में बहुत सारे अफगानी मुजाहिद घुस आए हैं. वे हमें आजाद करवाएंगे.’’

बबली ने जैसे ही यह खबर अपनी मां को सुनाई, वे भी चौकन्ना हो गईं. मगर बच्चों की खातिर मां ने बातों को न ज्यादा तूल दिया और न ही कोई महत्त्व.

बाहर फिर जोरदार धमाका हुआ. बच्चे आ कर मांबाप की बगल में दुबक गए. वे अपनी सांसों के उतारचढ़ाव को रोकने का प्रयास कर रहे थे ताकि कोई आवाज बाहर न निकले.

जैसेतैसे दिन चढ़ आया. बाहर सड़क पर फौजी गाडि़यों के आनेजाने की आवाजें आने लगीं. सिरीकंठ ने साहस बटोर कर खिड़की का परदा जरा सा हटाया और नीचे सड़क पर नजर दौड़ाई. सूनी सड़क पर दूरदूर तक कहीं कोई मुसाफिर भी नजर नहीं आ रहा था. परंतु भीड़ ने कल रात पुलिस पर जो पथराव किया था उस कारण रास्ते पर पत्थर और टूटीफूटी ईंटें इधरउधर बिखरी पड़ी थीं. सामने से पुलिस की एक गश्ती जीप गुजरी. उस के अंदर से कोई आदमी गला फाड़फाड़ कर यह घोषणा कर रहा था कि शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है.

दोनों ने राहत की सांस ली. उन्हें ऐसा लगा जैसे मौत कुछ देर के लिए टल गई हो. इस प्रकार जीवन और मृत्यु के बीच पूरे परिवार ने 3 दिन और 3 रातें गुजारीं. तीनों दिन कर्फ्यू लगातार 24 घंटे जारी रहा. कर्फ्यू के दौरान सुरक्षाकर्मी सड़कों पर गश्त लगाते रहे. आवश्यक वस्तुएं लाने के लिए भी ढील नहीं दी गई. सभी लोग अपनेअपने मकानों में कैद थे.

सिरीकंठ चाहता था कि कर्फ्यू इसी तरह लगा रहे और अंत तक जारी रहे. उसे भूख से तड़पतड़प कर मरना स्वीकार था पर अपनी मासूम बच्चियों की दुर्दशा देखना मंजूर न था.

3 दिन के बाद 1 घंटे की ढील दी गई. लोग बाजारों में ऐसे निकल आए जैसे कैदी जेल से छूटे हों. समय कम था. इसलिए सभी दौड़तेभागते नजर आ रहे थे.

इस अवसर का लाभ उठा कर शिवरानी ने साहस बटोरा और मकान के मुख्यद्वार तक पहुंच गई. वहां सुरक्षाकर्मी सावधानीपूर्वक अपने हाथों में राइफल लिए हुए खड़े थे. उस ने विनम्रतापूर्वक एक सिपाही को आवाज दी :

‘‘सुनो भैया, कर्फ्यू में यह छूट कब तक रहेगी?’’

‘‘बस, 1 घंटा,’’ काले भुजंग गठीले सिपाही ने अपनी मूंछों को ताव देते हुए कर्कश स्वर में उत्तर दिया.

‘‘भैया, आप हमारी सहायता कर सकेंगे. हम 3 दिन से परेशान हो रहे हैं?’’ शिवरानी विनम्रता से फिर बोली.

सिपाही ने इस सुंदर औरत की विवशता को देख कर अपने स्वर में थोड़ी नरमी लाते हुए कहा, ‘‘हां, क्यों नहीं. कहो, क्या बात है?’’ उस की नजर शिवरानी के गदराए बदन पर फिसल रही थी.

‘‘भैया, हमें जम्मू जाना है. अगर किसी ट्रक या गाड़ी का प्रबंध करवा दें तो हम आजीवन आप के आभारी रहेंगे. 2 छोटेछोटे बच्चे हैं नहीं तो वे मर जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं देखता हूं,’’ सैकड़ों ट्रक और गाडि़यां भागते लोगों को ढो रही थीं. हर जगह पलायन करने वालों का तांता लगा हुआ था. टिकट या रेट के बारे में कभी किसी ने कोई प्रश्न न पूछा. जिस को जो वाहन मिल जाता उसी में कूद पड़ता. किसी ने भी मुड़ कर उस वादी को न देखा जहां उस ने जिंदगी की हर धूपछांव देखी थी.

सिपाही ने वायरलैस पर न जाने किस से बात की. मुड़ कर देखा औरत गायब थी. वह अपना सामान और परिवार लाने के लिए भीतर जा चुकी थी.

15 मिनट के बाद मुख्यद्वार के सामने एक ट्रक रुका जिस में पहले ही से लोग खचाखच भरे हुए थे.

सिरीकंठ और उस के बालबच्चे 3 दिन की कैद के बाद बाहर निकल आए और सीधे ट्रक की ओर दौड़ते चले गए. शिवरानी ने जल्दी से मुख्यद्वार पर ताला लगाया और वह भी ट्रक की ओर दौड़ती चली गई.

ट्रक पर चढ़ने से पहले उस के दिल में सहसा ही एक विचार उठा. वह उस सफेद क्रास को फिर से देखना चाहती थी, जो आतंकवादियों ने मुख्यद्वार पर बनाया था. वह मुड़ी और मुख्यद्वार की ओर लपकी. उस ने सफेद निशान को ढूंढ़ने का बहुत प्रयास किया. 3 दिन के बाद अब उसे यह भी याद नहीं था कि वह निशान दरवाजे के किस ओर बना हुआ था. वह अपने दिमाग पर जोर डालने लगी पर कुछ भी याद न आ रहा था.

शिवरानी को कहीं कोई निशान नजर नहीं आया. उस ने एक बार फिर दरवाजे पर ऊपर से नीचे तक निगाह दौड़ाई. मगर वहां कुछ भी न था. न सफेद क्रास और न ही उस का कोई निशान. शिवरानी हैरान थी कि वह क्रास जो उस ने 3 दिन पहले अपनी आंखों से देखा था, कहां चला गया. क्या वह निशान उस के मन का भ्रम था या कोई सपना? उस की सम?ा में कुछ भी न आ रहा था.

पलट कर बोझल कदमों से वह ट्रक की तरफ बढ़ती चली गई. उस के पति ने उस का हाथ थाम कर उसे ट्रक पर चढ़ा लिया और फिर ट्रक डीजल का काला धुआं छोड़ता हुआ आगे बढ़ने लगा.

लंबीलंबी मूंछों वाला काला भुजंग सिपाही खूबसूरत शिवरानी को एकटक देखता रहा. उस की नजरें लगातार भागते हुए ट्रक का पीछा कर रही थीं.

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