कांग्रेस नेता राहुल गांधी के मामले ने एक बार फिर साफ किया है कि देश की निचली अदालतों में न्याय कैसा मिलता है. गुजरात के सूरत शहर में स्थित जिले की अदालत के एक मजिस्ट्रेट ने जिस तरह से राहुल के एक रैली में बयान कि, सारे मोदी- नीरव मोदी, ललित मोदी वगैरह चोर क्यों हैं, पर भारतीय जनता पार्टी
के एक विधायक की अवमानना यानी डिफामेशन अर्जी पर 2 साल की सजा सुनाई, वह चौंकाने वाली थी.

जहां इस तरह के मामले 10 साल तक पड़े रहते हैं, वैस्ट सूरत कोर्ट के न्यायिक मजिस्ट्रेट बी एच कपाड़िया ने 16 जुलाई, 2019 को 13 अप्रैल की रैली में दिए गए कांग्रेस नेता राहुल गांधी के भाषण पर मामला संज्ञान में लिया और 23 मार्च, 2023 को उन्हें अपराधी घोषित कर दिया वह भी अधिकतम 2 साल की सजा देने के साथ, जबकि राहुल गांधी ने शिकायत करने वाले पूर्णेश मोदी का नाम तक नहीं  लिया था और जिन के नाम लिए थे उन की ओर से कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई गई थी. जज महोदय ने अपील के लिए जेल से तो जमानत दे थी पर अपराध पर स्टे नहीं लगाया.

उच्च न्यायालय में यह सुनवाई जुलाई 2023 में शुरू हुई और 4 अगस्त को गुजरात, जहां से नरेंद्र मोदी और अमित शाह लोकसभा सांसद है, के उच्च न्यायालय ने राहुल गांधी की पुनर्याचिका को ठुकरा दिया. न्यायमूर्ति हेमंत प्रच्छक ने अहमदाबाद स्थित हाईकोर्ट में कहा कि कोई कारण नहीं बनता कि निचली अदालत के फैसले पर रोक लगाई जाए.

ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट बी एच कपाड़िया ने 2 साल की जो सुनाई वह अप्रत्याशित थी क्योंकि शिकायतकर्ता का नाम तक राहुल गांधी ने नहीं लिया था. यह सजा इंडियन पीनल कोड की डिफामेशन की धारा के एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत किसी दलित समुदाय को अपशब्द कहने जैसी है पर उस में भी शिकायत उस व्यक्ति को करनी होती है जिसे अपशब्द कहा गया हो. कई मामले दायर हुए हैं जिन में दूसरों ने भी शिकायत की है मगर उन में सजा यदाकदा ही होती है. वैसे, अपमानजनक टिप्पणी से होने वाली प्रतिष्ठा की हानि पर 2 साल की सजा  अपनेआप में सही नहीं लगती और अब तो सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए राहुल गांधी की सजा पर रोक लगा भी दी है.

निचली अदालतों के मजिस्ट्रेटों के पास भारत में वही अधिकार हैं जो सुप्रीम कोर्ट के जज के पास हैं. जब तक अपील न हो, सब से निचली अदालत का फैसला पत्थर की लकीर होता है पर जिस तरह निचली अदालतों के फैसलों को पलटा जाता है, उस से साफ है कि निचली अदालतों के फैसले पूरी तरह तार्किक नहीं होते. देश की न्याय व्यवस्था की जड़ में यह सब से बड़ी कड़ी है पर अफसोस कि यह सब से कमजोर कड़ी है. जैसे, ‘जौली एलएलबी’ फिल्म में दिखाया गया था.

निचली अदालतों में मामले वर्षों लटके रहते हैं और जज स्थानीय लोगों से प्रभावित न होते हों, यह माना नहीं जा सकता. हाल के सालों में न्यायालय परिसर और उन में जजों को रहने की व्यवस्था बनने लगी है जो एक अच्छी बात है. वहीं, जब तक पहले जज को ही जनता अंतिम जज न मान ले, न्याय व्यवस्था को
मजबूत नहीं माना जा सकता.

निचली अदालतों के फैसले ऐसे होने चाहिए कि ऊपरी अदालतों को उन में न राजनीति या भेदभाव की गंध आए और न अधकचरेपन की. ट्रायल कोर्ट सही फैसले दें जिन्हें चुनौती दी जाए तो कुछ न हो, तभी देश की न्याय व्यवस्था ठीक होगी.

राहुल गांधी को मिली सजा के बाद सभी को उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट राहत देगी. ऐसी उम्मीद, दरअसल, निचली अदालतों पर भरोसा न रहना जताती है. ट्रायल कोर्ट के फैसलों के बाद अपील केवल तब नहीं होती जब सजा पाने वाले के पास वकीलों को देने के लिए पैसे नहीं होते. देश में कानून व्यवस्था की यह स्थिति
ठीक नहीं है.

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