यूरोप और अमेरिका जब कुछ कमजोर पड़ रहे थे और भारत, रूस, चीन, ब्राजील, साउथ अफ्रीका चमकने लगे थे, ब्रिक्स संगठन का गठन किया गया था और उम्मीद थी कि ये देश अमेरिका व यूरोप का आर्थिक मुकाबला कर सकेंगे.

अफसोस है कि ये सभी देश अपनीअपनी राजनीति का शिकार होने लगे हैं. चीन की गति कोविड के बाद धीमी पड़ गई है और अमेरिका ने उस का आर्थिक वायकौट शुरू कर दिया है. रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर के आफत मोल ले ली. भारत में नरेंद्र मोदी की पार्टी की हिंदूमुसलिम भेदभाव नीति से बहुत से देश भयभीत हैं. साउथ अफ्रीका के नेता करप्शन केसों में फंस रहे हैं. ब्राजील में भी राजनीति आर्थिक विकास पर हावी होने लगी है.

इन नेताओं की एक बड़ी भूल यह थी कि उन्होंने सोचा था कि यूरोप और अमेरिका सदा ही इन के खरीदार बने रहेंगे. इन्हें यह एहसास नहीं था कि इन देशों में लोकतंत्र की जड़ें तो गहरी है हीं, मानसिक आजादी का खून भी हर नस में बहता है. इस के मुकाबले ब्रिक्स देशों में एक तरह की तानाशाही ही है. वहां सत्ता में बने रहना ही नेताओं का काम है और इस के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं. इन सब देशों में नई सोच और नए विचारों पर सरकारी पहरा है. वे मानव विकास के मूलमंत्र, नए प्रयोग करने की क्षमता में विश्वास नहीं रखते. इन देशों के हर नेता को लगता है कि सोचने की आजादी का अर्थ है सरकार के खिलाफ सोचने की आजादी और ये जोड़तोड़ कर के चाहे हवाईजहाज, रौकेट, एटमबंद बना लें पर ये मौलिक शोध नहीं करते. इन सब का समाज बेहद दकियानूसी है.

अब जोहनसबर्ग, साउथ अफ्रीका में हुई शिखर बैठक में सिर्फ शब्दों के, कुछ और नहीं कहा गया. युद्ध क्षेत्र के अस्त्रों की बात हों, इन्फौर्मेशन टैक्नोलौजी की या क्लाइमेंट चेंज की बात हो, इन देशों में कुछ नया नहीं हो रहा. ये मिल कर ब्रिक्स को यूरोप, अमेरिका को कोसने का संगठन बना रहे हैं जिस से यूरोप, अमेरिका की सेहत को कोई असर नहीं पड़ने वाला.

जहां अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय 70 हजार डौलर है, जरमनी की 65 हजार डौलर, इंगलैंड की 50 हजार डौलर वहीं ब्रिक्स देशों के आम आदमियों की प्रति व्यक्ति आय 2 हजार डौलर (भारत) 1,500 डौलर (चीन) तक ही सीमित है. हर साल ब्रिक्स देशों का आम आदमी अमीर देशों के आम आदमी से पिछड़ता जा रहा है. ऐसे में ब्रिक्स संगठन की हैसियत एक बड़ी फैक्ट्री की यूनियन से ज्यादा नहीं है.

 

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