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“कैसी हो रजनी?” खुशी से मैं आगे बढ़ी और उसे गले लगा लिया।

“मनोज कहां है? तुम ने कभी फोन क्यों नहीं किया? न ही कभी कोई बात ही की…शादी में भी नहीं बुलाई और न ही मेरी शादी में आई…” मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी मगर रजनी चुप थी। मैं ने उस के चेहरे को देखा। यह क्या? हमेशा खुश दिखने वाला चेहरा मलीन था। जीवन से भरी आंखें आज थकीथकी सी थीं। आंखों के चारों तरफ झाइयां। न मेहंदी न चूड़ियां और रंगीन कपड़ों ने सादगी का स्थान ले लिया था।

“रजनी क्या हो गया है तुम्हें? यह तुम ही हो न?” मैं ने उत्तेजित हो कर पूछा।

“हां…मैं ही हूं। आप कहा करती थीं न कि सत्य के साथ जियो। आज मैं ने सत्य को ही जीवन मान लिया है। मगर देखिए न, इस सत्य ने मेरा क्या हाल बना दिया है…” एक पतली सी हंसी की रेखा उस के होंठों तक आई और फिर गुम हो गई ।

मैं भौंचक्की उसे देखती रह गई। रजनी जा चुकी थी। ‘यह वही रजनी  है? हंसतीखिलखिलाती, गुनगुनाती…’ मैं ने सोचा।

आज 4 साल बाद मैं इस शहर में लौटी थी। पति का तबादला इसी शहर में हो गया था। मैं ने फिर से उसी स्कूल को जौइन कर लिया था जहां पहले पढ़ाती थी। मगर इन सालों में कुछ भी नहीं बदला था इस शहर में। अगर बदली थी तो सिर्फ रजनी। इस  अप्रत्याशित बदलाव को मैं स्वीकार नहीं कर पा रही थी।

मनुष्य बडा ही विचित्र प्राणी है। वह जीवन में हरसंभव परिवर्तन चाहता है और जब अचानक परिवर्तन मिलता है तो वह चौंक उठता है और फिर सवाल यह उठता है कि उसे स्वीकार करने में इतना समय और कष्ट क्यों होता है?

मैं बीते दिनों को याद करतेकरते खो सी गई…

एमए करने के बाद लैक्चररशिप की बहुत तैयारी की मगर सफलता नहीं मिली। बहुत निराश हुई मैं। इसी सिलसिले में मैं ने स्कूल की एक जगह वैकेंसी देखी और मुझे नौकरी  मिल गई। नौकरी में व्यस्त रहने लगी तो मेरी निराशा भी कुछ कम हुई। वहां का माहौल बहुत अच्छा था। सभी लोग वहां बहुत अच्छे थे, सिवा ‘एक’ के। मैं स्वभाव से अंतर्मुखी थी। स्कूल का काम करना और सीधे घर लौटना मेरी दिनचर्या थी। सभी से मेरे संबंध अच्छे थे मगर दोस्त कोई नहीं था। सभी मुझे अच्छे लगते मगर ‘वह’ अच्छी नहीं लगती।

स्कूल आते मुझे 1 सप्ताह हो चुके थे। एक दिन स्टाफरूम में बैठी कुछ काम कर रही थी कि बगल से जोर से गाना गाने की आवाज आ रही थी। मुझे परेशानी हो रही थी। बारबार मेरा ध्यान उस तरफ चला जाता और मुझ से गलतियां हो जातीं। अंत में मैं उठी और परदा उठाया,”यह क्या तरीका है? इतने जोर से गाना क्यों गा रही हो? यह स्कूल है। गाना गाने का इतना ही शौक है तो जा कर सड़क पर गाओ,” मैं गुस्से में थी। यह थी मेरी ‘उस से’ पहली मुलाकात। जिसे मैंने डांटा, उस ने मुसकरा दिया। मेरे सामने दुबलीपतली, लंबी, सांवली एक लड़की खड़ी थी। उस ने अपना हाथ बढ़ाया,”मेरा नाम रजनी है। मैं यहां ड्राईंग टीचर हूं। पिछले 1 सप्ताह से छुट्टी पर थी, इसलिए आज आप को पहली बार देख रही हूं। अपना परिचय नहीं देंगी?” फिर वह हंसने लगी, “वैसे, मैं आप के बारे में सबकुछ जानती हूं।” मैं ने कुछ नहीं कहा। वापस अपने काम में लग गई।

रजनी की आदत थी हर समय गुनगुनाते रहना, हमेशा खुश रहना, काम के बोझ से कितनी ही दबी क्यों न रहती मगर हमेशा मुसकराना उस की आदत थी। उस का चेहरा मलीन होते मैं ने कभी नहीं देखा था। मैं उस से जितना खींची रहती, वह मेरे उतना ही करीब आना चाहती थी। मेरी उस से बहुत औपचारिक बातें होती। मुझे उस की हर बातों से चिढ़ थी। उस की लंबीलंबी उंगलियों में बढ़े हुए आकार में काटे गए नाखूनों और उस पर हमेशा नेलपौलिश का रंग चढ़ा रहता था। वह अविवाहित थी मगर हाथों में  हर समय मेहंदी और चूड़ियां देख कर ही मुझे गुस्सा आता था।

धीरेधीरे समय बीत रहा था। स्कूल में रहते मुझे 2 महीने हो चुके थे। अब मैं रजनी से खुलने लगी थी मगर उस से बात करने के बदले में उस की हर बातों का विरोध करती या उस पर  व्यंग्य करती।

एक दिन रजनी मेरे बगल में बैठी डायरी में किसी का फोन नंबर ढूंढ़ रही थी।

“इतने लोगों का फोन नंबर रख कर क्या करती हो रजनी?” मैं ने उस से पूछा।

“बातें… ” वह एक शब्द बोल कर चुप हो गई।

“स्कूल में सारा दिन बोलती हो, फिर भी बातों से मन नहीं भरता?” मैं ने पूछा।

“मन वैसी चीज ही नहीं होती जो भर जाए, ” यह कह कर उस ने ठहाका लगाया।

उस की यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी। उस की जरूरत से ज्यादा स्त्रीसुलभ गुणों को देख कर तो मुझे इतनी खुंदक होती कि क्या कहूं। स्कूल में दम मारने की फुरसत नहीं होती मगर वह पता नहीं कहां से समय निकाल लेती कि कभी नाखूनों को रंगती, कभी मेहंदी लगाती या  फिर अपने काले लंबे बालों को खोल कंघी करती। उस के भड़कीले वस्त्र उस पर बिलकुल भी नहीं फबते, मगर  फिर भी वह उसे पहनती। सीढ़ियों से कभी भी उतरती तो अपने लालपीले दुपट्टे को लहराती हुई उतरती।

यह सब देख कर मैं यही सोचती कि पता नहीं यह सुंदर होती तो क्या करती…” कभीकभी मुझे बरदाश्त नहीं होता तो पूछ बैठती,”इतने रंगीन कपङे क्यों पहनती हो? तुम पर बिलकुल नहीं फबते।” उस की जगह कोई और होता तो बुरा मान जाता मगर वह हंसती हुई अपनी आंखें बंद कर लेती और कहती, “जानती हैं आप, मैं जितने रंगीन कपड़े पहनती हूं मुझे अपनी जिंदगी उतनी ही रंगों से भरी दिखाई पड़ती है। उस एहसास के आगे यह सोचना कि मैं इस में भद्दी लगूंगी बहुत छोटा पड़ जाता है।”

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