नवीन कुमार लारोयिआ
घर में हर तरफ चहलपहल थी. सब लोग तैयार हो रहे थे मेरी शादी जो थी. पिताजी ने जिस लड़के को मेरे लिए चुना था, मैं ने चुपचाप उस से शादी करने के लिए हां कर दी थी. मेरे पास और विकल्प नहीं था. पिताजी ने काफी साल पहले यह स्पष्ट कर दिया था की वे मुझे केवल इसलिए पढ़ा रहे थे ताकि मुझे अच्छा वर मिल सके. लड़कियों के नौकरी करने के वे सख्त खिलाफ थे. मेरे लिए परिवार भी उन्होंने ऐसा ढूंढा था जिसे घरगृहस्थी संभालने वाली बहू चाहिए थी, ज़्यादा पढ़ीलिखी लड़की में उस परिवार वालों की कोई दिलचस्पी नहीं थी.
जब भावी ससुराल वाले मुझे देखने आए तो मैं ने अपने होने वाले पति को देखा था. मुझे उन का व्यक्तित्व साधरण सा लगा. कुछ ज्यादा बात नहीं हुई. एक सरकारी कंपनी में इंजीनियर थे. उम्र 25 साल थी. 3 वर्षों से कार्यरत थे वहां. उन की पोस्टिंग एक छोटे से शहर के पास बसी उन की कंपनी की एक कालोनी में थी. अच्छा वेतन था और एक छोटा सा फ्लैट उन्हें अलौट हो चुका था. इसलिए उन के मातापिता चाहते थे कि अब उन की शादी हो जाए और उन का घर बस जाए. एक स्त्री के रूप में घर बसाने का दायित्व अब मुझे निभाना था और उस के लिए उन लोगों ने मुझे उपयुक्त पाया. लड़के के बारे में मुझ से कोई राय नहीं मांगी गई. घर वालों ने देख लिया था, बस, इतना काफी था.
ऐसा नहीं था कि मेरे पिताजी मुझे पढ़ा नहीं सकते थे. वे काफी समृद्ध थे और अगर चाहते तो मैं आगे पढ़ सकती थी. मेरी इच्छा थी कि मैं ग्रेजुएट होने के बाद मास्टर्स करूं और फिर पीएचडी कर के किसी अच्छी यूनिवर्सिटी या कालेज में प्रोफैसर बनूं. पिताजी ने जो एक अच्छा काम किया था वह था मुझे कौन्वेंट स्कूल में पढ़ाना. बचपन से ही मुझे इंग्लिश बहुत पसंद थी और में इंग्लिश लिटरेचर में ही में मास्टर्स और पीएचडी करना चाहती थी पर अब वे सारे सपने गृहस्थी के बोझ तले दबने वाले थे.
पार्लर से आई 2 लड़कियां मुझे तैयार कर रही थीं. मैं चुपचाप उन के सामने बैठी श्रृंगार करवा रही थी. अगर वे मुझ से कुछ पूछती भी थीं तो मेरा यही जवाब होता था, ‘ठीक है.’ और कहती भी क्या. तैयार तो मैं होने वाले पति और ससुराल के लिए हो रही थी, अपने लिए नहीं. पार्लर का चुनाव मेरी सास ने किया था. शादी के कपड़े भी उन्होंने भिजवाए थे और पार्लर वालों को निर्देश भी उन्होंने ही दिया था. लड़कियां भी खुश थीं कि ज़्यादा नानुकुर करने वाली दुलहन नहीं मिली.
तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और मेरी सहेली अलका अंदर आई. अलका का विवाह 2 महीने
पहले ही हुआ था और वह मेरी शादी में शामिल होने आई थी. उस के पति एक व्यापारी परिवार से थे और वे लोग पास के शहर में ही रहते थे.
‘कैसी हो, मेरी लाडो प्रेमिला?’ उस ने पूछा, ‘तो तुम्हारा नंबर भी लग ही गया?’
‘मैं ठीक हूं. जीजाजी नहीं आए?’ मैं ने पूछा.
‘आ जाएंगे. उन्हें छोड़ो और अपने बारे में बताओ. ठीक हो तुम?’ यह कह कर उस ने मेरी ओर देखा, ‘आज तुम्हारा दिन है, उन का नहीं.’
उस का इस तरह से उत्तर देना मुझे थोड़ा अजीब लगा. मेरे विपरीत वह तो शादी के लिए बहुत
उत्सुक थी. पढ़नेलिखने में उस की रुचि साधारण थी. जब उस की शादी पक्की हो गई तो उस के पांव धरती पर नहीं पड़ते थे. अब ऐसी बेरुखी क्यों? शादी को तो अभी सिर्फ 2 ही महीने हुए थे. मैं कुछ कहने ही जा रही थी कि मेरी नज़र उस की बांहों पर पड़ी. मुझे लगा वहां पर चोट के दाग थे.
‘यह क्या है?’ मैं ने उस की बांहों की तरफ इशारा करते हुए पूछा.
‘कुछ नहीं,’ उस ने जल्दी से कहा और मुंह दूसरी तरफ फेर लिया. मुझे लगा उस की आंखें गीली हो गईं हैं.
मैं ने पार्लर वाली लड़कियों को दो मिनट के लिए बाहर जाने को बोला और अलका को अपनी
तरफ खींचा.
‘बता न, क्या हुआ है, उदास क्यों लग रही है?’ मैं ने थोड़ा ज़ोर से पूछा.
‘और क्या होना है, बस, शादी हुई है,’ यह कहते हुए वह फफक पड़ी.
फिर उस ने बताया कि कैसे उस के पति को उस में नहीं, बस, उस के साथ संबंध बनाने में ही दिलचस्पी है. शादी की पहली रात वह रजस्वला थी पर उस के पति ने फिर भी जबरदस्ती संबंध बनाए. अब भी अगर वह उस की इच्छा पूरी न करे तो वह हाथ उठाने में भी नहीं चूकता. अमीर आदमी है, धमकी देता है कि वह किसी के भी साथ संबंध बना सकता है. शादी तो उस ने परिवार को एक बहू देने के लिए और अपनी मौजमस्ती के लिए की है. एक इंसान के रूप में उसे अपनी पत्नी में कोई दिलचस्पी नहीं है.
अलका की बातें सुन कर मेरा दिल कांप गया. क्या मेरी भी यही नियति होने वाली है? क्या मैं भी एक भोग की वस्तु बन कर रह जाऊंगी?
शादी विधिवत संपन्न हो गई.
सारा समय मेरा ध्यान अलका की बातों में ही अटका रहा. यंत्रवत मैं सारी रस्में करती गई. एकदो बार मैं ने अपने पति की तरफ देखा और अंदाजा लगाने की कोशिश करने लगी कि क्या इस साधारण से दिखने वाले व्यक्ति को मुझ में एक इंसान नज़र आएगा या उस का उद्देश्य केवल मेरा शरीर पाना ही है. पर वह एकदम तटस्थ से बैठे रहे. रस्मों के बाद फोटो खिंचवाने वालों का तांता लग गया और फिर विदाई की बेला आ गई. मुझे बिलकुल रोना नहीं आया. पिता के लिए तो मैं एक बोझ थी जो आज उतर गया था.
दोतीन आंसू छलका के मैं अपने ससुराल पहुंच गई. अब आगे की जिंदगी के लिए मुझे तैयार होना था.
मेरे ससुराल वाले ठीकठाक लोग थे. अच्छा, बड़ा घर था उन का. वहां पर भी कुछ रस्में हुईं और
फिर मेरी ननद मुझे मेरे कमरे में ले गई.
‘लो भाभी, अब आराम करो. भैया अभी आते होंगे,’ यह कह कर वह हंसती हुई चली गई.
कमरा अच्छा था और फूलों से सजाया हुआ था. फर्नीचर पुराना था पर उस पर अच्छे रखरखाव
की झलक दिख रही थी. खैर, अब तो पिताजी का दिया हुआ फर्नीचर आने वाला था. यह सब सोचते हुए मैं दर्पण के सामने जा कर खड़ी हो गई. अपने वजूद को दुलहन के लिबास में निहारा. फिर अपने गहने उतारने लगी. गहनों के भारीपन से सिर दुखने लगा था. इतने में दरवाज़ा खुला और मेरे पति अंदर आ गए.
‘आप ठीक हैं? खुश तो हैं?’ उन्होंने पूछा.
मैं चुप रही पर ‘आप’ शब्द सुन कर थोड़ा अच्छा लगा. पर तभी, अलका का सारा वृत्तांत आंखों के सामने आ गया. अब जबरदस्ती का रिश्ता शुरू होगा क्या?
शादी इतनी जल्दी हो गई कि हमें एकदूसरे को जानने का मौका ही नहीं मिला. वे फिर
बोले, ‘पतिपत्नी तो हम बन गए पर मैं चाहता हूं कि अपने रिश्ते को आगे ले जाने से पहले हम दोस्त बनें. आप क्या सोचती हैं?’
मैं ने सिर उठा कर उन को देखा. उन का चेहरा अब कुछ अलग दिख रहा था. सारी उम्र मेरे पिता ने कभी मेरी मरजी नहीं पूछी और अब यह आदमी मेरी मरजी पूछ रहा है, वह भी उस घडी में जब मर्दों को अपनी मनमरजी करने की जल्दी होती है.
‘जैसा आप कहें,’ मैं ने किसी तरह अपना मुंह खोला.
‘नहींनहीं. अब हम पतिपत्नी हैं. एकदूसरे पर अधिकार ज़माने के लिए अपनी मनमरजी नहीं कर
सकते. आगे जो भी होगा, दोनों की रज़ामंदी से होगा,’ वे फिर बोले, ‘दोस्ती हमारे रिश्ते का आधार होगी – जबरदस्ती नहीं.’
‘वह मेरी सहेली, अलका. उस ने कहा था…’ और मैं ने अलका का सारा किस्सा उन्हें सुना दिया. वे चुपचाप सुनते रहे.
फिर वे मेरी तरफ आए और मेरा हाथ पकड़ कर बोले, ‘मैं कोई बलात्कारी नहीं हूं. आप का पति
हूं, ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से आप को तकलीफ पहुंचे. पहले हम डेटिंग करेंगे, घूमेंगेफिरेंगे, सचमुच में प्यार करेंगे और फिर उस प्यार को उस की पराकाष्ठा तक ले कर जाएंगे. यह मेरा आप से वादा है.’
जिसे मैं ने साधारण समझा था, वह तो असाधारण निकला. उस रात हम एक ही पलंग पर सोए. पर बीच में उन्होंने खुद ही तकियों की एक दीवार बना ली.
‘आप सो जाइए, मैं भी सोना चाहता हूं. बाकी बातें कल करेंगे.’
उन की इस बात से मेरे अंदर चल रही खलबली शांत हो गई.
अगले दिन मेरी ननद ने शरारती अंदाज़ में पूछा, ‘रात कैसे गुज़री, भाभी?’
‘दोस्ती में,’ मैं ने कहा. वह शायद समझी नहीं.
उन्होंने अपना वादा निभाया. ससुराल में एकदो दिन रुक कर हम उन के क्वार्टर पर उन की
पोस्टिंग वाली जगह पर चले गए. प्यार होने में अधिक समय नहीं लगा. हमारी शादी को आज 5 वर्ष हो गए हैं. हम 2 वर्ष के एक बेटे के मांबाप भी बन गए हैं. पर हमारी दोस्ती आज भी कायम है. कोई जबरदस्ती नहीं है. और हां, मेरे ‘दोस्त’ ने मेरी इच्छा पूरी की है. मैं ने अपना मास्टर्स पूरा कर लिया है और अब इन की कालोनी के स्कूल में मैं ने इंग्लिश पढ़ाना शुरू कर दिया है.