रेटिंग : 1 स्टार

निर्माता : गीता शर्मा और अशोक शर्मा

लेखक व निर्देशक : प्रकाश सैनी

कलाकार : निधि उत्तम,मानसी जैन,दीप्ति गौतम,कमल शर्मा,ब्रजेंद्र काला,सानंद वर्मा व अन्य.

अवधि :2 घंटा 23 मिनट

लगभग पूरे देश में हर गांव के तमाम पुरूष शहरों में अकेले रहकर नौकरी करते हुए धन कमाने के लिए प्रयासरत नजर आते हैं.इनकी पत्नियां गांव में रहती हैं और अपने पतियों के आने का इंतजार करती रहती हैं.पुरूष हो या औरत,यौन सुख सभी की शारीरिक जरुरत है.

पुरूष शहर में रहते हुए छोटी नौकरी करने की वजह से जल्दी गांव नहीं जा पाते.पुरूष अपनी पत्नियों को पैसे भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैंपर औरतें पति के प्यार व सैक्स की भूखी रह जाती है.पुरूष शहरों में वह अपनी सैक्स की भूख वेश्याओं के पास जाकर पूरी कर लेते हैंपर बेचारी गांव में रह रही पत्नियां अपनी सैक्स की भूख कैसे मिटाए?

यदि वह मजबूरन अपनी शरीर की इस जरुरत को गांव के किसी मर्द से पूरा करती हैं,तो उन पर बदचलन होने का आरोप लगता है.इसी मूल मुद्दे पर फिल्मकार प्रकाश सैनी फिल्म ‘चार लुगाई’लेकर आए हैं.

कहानी

फिल्म की कहानी ऊषा (निधि उत्तम), रश्मि (मानसी जैन), मीनू (दीप्ति गौतम) और रंजू (कमल शर्मा) की है जो कि मथुरा स्थित पानीगांव नामक गांव में एकदूसरे की पड़ोसी हैं. इन चारों के पति मुंबई में नौकरी करते हैं और सालदो साल घर नहीं आते हैं, जिसकी वजह से इन चारों की शारीरिक जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं.

अपने सासससुर की प्यारी उषा ने अपनी शारीरिक जरुरतों को पूरा करने के लिए गांव के एक युवक डुग्गू (अभिनव सीशोर) को फांस रखा है.डुग्गू का रोमांस गांव के डाक्टर रस्तोगी (ब्रजेंद्र काला) की बेटी संग भी चल रहा है.यह बात रंजू को पता चल जाती है.तब एक दिन रंजू, रश्मि और मीनू को बताती है कि हम सभी की शारीरिक जरूरतें पूरी नहीं होती है.

अब रश्मि और मीनू फैसला करती हैं कि वह भी ऊषा को बोलकर डुग्गू के जरिए अपनी जरूरतें पूरी करेंगी.

एक दिन जब सभी लोग गांव के प्रधान के भाई की शादी में चले जाते हैंतो उसी रात ऊषा,डुग्गू को घर पर बुलाती है और बताती है कि उसे अब उसके अलावा रश्मि और मीनू की भी जरूरतें पूरी करनी होगी.

डुग्गू,ऊषा के नजदीक पहुंचता है कि बिजली चली जाती है और धड़ाम से गिरने की आवाज आती है. जब लाइट आती है तो इन चारों सहेलियों को पता चलता है कि डुग्गू की मौत हो चुकी है.

रश्मि अपने आकर्षण का उपयोग करके डा. रस्तोगी (बृजेंद्र काला) को शरीर को ठिकाने लगाने में मदद करने के लिए मना लेती है.फिर पुलिस इंस्पेक्टर संतोष (सानंद वर्मा) अपराध की जांच शुरू करते हैं.

लेखन व निर्देशन

लेखक व निर्देशक प्रकाश सैनी ने अपनी फिल्म में एक ऐसे ज्वलंत मुद्दे को उठाया है,जिस पर कोई बात ही नहीं करतालेकिन अफसोस लचर कहानी,लचर पटकथा व लचर निर्देशन के चलते यह मानवीय और शारीरिक जरुरत का मुद्दा महज एक ‘सैक्स’ की घटिया भूख बनकर रह गया है.

इंटरवल के बाद पूरी फिल्म हास्य के साथ हत्यारे की तलाश में बीतती है.जबकि इस समस्या के सबंध में काफी कुछ कहा जाना चाहिए था.पुरूष प्रधान समाज में औरतों के अकेलेपन,शारीरिक अंतरंगता के लिए उनका तरसना आदि तथा इस वजह से उत्पन्न होने वाली शारीरिक व मानसिक बीमारियों की बात की जानी चाहिए थी,मगर फिल्मकार ऐसा कुछ नहीं कर पाए.

फिल्म का ट्रीटमेंट काफी कमजोर है. वास्तव में निर्देशक प्रकाश सैनी ने एक मानवीय व औरत की जरुरत की बात करने की बजाय पूरी कहानी को अपराध व रोमांच के साथ हास्य का जामा पहना कर फिल्म का सत्यानाश कर डाला.

फिल्मकार ने प्यार और भावनात्मक समर्थन की लालसा की बजाय सारा ध्यान शारीरिक जरूरतों पर कर डाला.परिवार और आसपड़ोस के पुरुषों की चारों दोस्तों पर नजर डालने वाली बात कुछ मजबूर सी लगती है.

एक दृष्य में चारों महिलाएं अपने रुख को सही ठहराने की कोशिश करती हैं और अनुचित व्यवहार के बारे में बात करती हैंतब वह उतना उत्साहजनक नहीं हैजितना होना चाहिए था.

वह विषयवस्तु के साथ न्याय करने में बुरी तरह से विफल रहे हैं. गांव की स्थापना और पात्रों के रूप और बोली प्रामाणिक हैंलेकिन कथा असंगत है.

अभिनय

निधि उत्तम और मानसी जैन ने जोखिम भरी महिलाओं के रूप में अच्छा अभिनय किया है. कमल शर्मा, मासूम और मददगार रंजू के रूप में, और बृजेंद्र काला अपनी भूमिकाओं में जमे हैं.सानंद वर्मा का अभिनय ठीकठाक है.

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