सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि किसी भी मंदिर का मालिक पुजारी नहीं हो सकता है. वह सिर्फ सेवक या किराएदार के रूप में काम कर सकता है. इस का अर्थ है कि वह मंदिर की जमीन को न किराए पर चढ़ा कर अपनी जेब भारी कर सकता है और न ही जमीन किसी को बेच सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने मंदिरों की मिलीभगत से पुजारियों के नाम हटाने की हिदायत दी है और उन की जगह देवता का नाम डालने का आदेश दिया है. वैसे यह निर्णय डेढ़ साल पहले दिया गया था पर उस का असर अभी दिखा नहीं है.

असल में मंदिर, चर्च, मसजिद और गुरूद्वारे की जमीनों को और दूसरी संपत्तियों को ले कर विवाद चलते रहते हैं. बहुत से पुजारी मंदिर की जमीन को बेच देते हैं और कुछ पैसा मंदिर के अकाउंट में जमा कर के बाकी अपना घर सुधारने के लिए इस्तेमाल करने लगते हैं.

इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए. पुराणों में बारबार दक्षिणा की महिमा गाई है. हर आश्रम किसी ऋषि का होता था, आम जनता का नहीं. राजा तक को वहां अतिथि के कण में ही रहने की इजाजत होती थी ऋषिमुनि के अलावा वहां अन्य सब सेवक होते थे. औरतें और लड़कियां भी दान में ली जाती थी. जिन का उपयोग आश्रम के मालिक करते थे. आज यह बात पलटी जाएगी तो अधर्म होगा.

हर धर्म और ङ्क्षहदू धर्म खासतौर पर पैसे पर टिका है. धर्म ने ईश्वर की कल्पना सिर्फ लोगों से पैसा एकत्र करने के लिए की है. राजाओं ने उसे बल दिया और कमजोर बेचारी जनता के पास राजा और कहानी किस्से कहने वालों की बातें मानने के अलावा कोई चारा भी नहीं था.

इस 2019 का मामले में फैसला मध्य प्रदेश सरकार के 1973 के कानून के अंतर्गत 1994 व 200 के आदेशों पर आया जिन में राज्य सरकार ने मंदिरों के पुजारियों के नाम रेवन्यू रिकार्ड से हटा देने के आदेश दिए थे. सुप्रीम कोर्ट ने वेक्त कानूनों की व्यवस्था की है पर इस का मतलब है कि जिस पुजारी के माध्यम से भक्त अपना वर्तमान व भविष्य सुधारने के लिए भगवान की अर्चनापूजा करते हैं, उसे दानदक्षिणा देते हैं वह तो बेचारा खुए एक सेवक है. उसकी संपत्ति भगवान की मूॢत या मंदिर तक नहीं है. वह भगवान जो अपने मंदिर के पुजारी को संरक्षण व सुविधा नहीं दे सकता. भक्तों को कैसे देगा.

मंदिरों के निर्माणों में लगने वाला पैसा एक रैकेट है क्योंकि आमतौर पर भक्त इस दान में एक बार दिए पैसे का हिसाब नहीं मांगा. जब मंदिरों की निरर्थकता पर बहस की जाती है तो जुमले उछाल दिए जाते है कि वे अंदर हजारों को रोजीरोटी देते है, कुछ स्कूलकालेज चलाते हैं, कुछ अस्पताल भी चलाते हैं. पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यह सब मंदिरों में चढ़ाए पैसे के बल पर होता है और यह पैसा ब्रेनवाश कर के चढ़वाया जाता है.

जो पुजारी अपने विवादों के लिए कोर्ट की शरण में जाते हैं वे आखिर कैसे भगवान को एक भक्त को अदालत में चल रहे उस के किसी भी मामले में तरफदारी करने की सिफारिश कर सकते हैं. पुजारी अब मालिकों की तरह व्यवहार नहीं करेंगे, यह समझने की भूल न करना, वे नेताओं की तरह अपने को समाज का मालिक मानते रहेंगे.

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