“अरु, हमारा प्रेम सफल तो होगा न?” अनुराग ने अरुंधति की लटों से खेलते हुए कहा।
“ऐसा क्यों कह रहे हो अनुराग? क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं या अपनेआप पर?”
“तुम अमीर घराने से और मैं आर्थिक चक्रव्यूह में फंसा किसी तरह पढ़ाई पूरी करने की कोशिश कर रहा हूं।”
“तो क्या हुआ? तुम इतने प्रतिभाशाली हो कि तुम्हें आसानी से अच्छी नौकरी मिल जाएगी। अब चलो, क्लास का टाइम हो गया, यह क्लास तो बंक कर लिया क्योंकि अजय सर पढ़ाते कम और ऊंघते ज्यादा हैं। अब अगला क्लास बहुत जरूरी है,” दोनों अकसर अजय सर का क्लास बंक कर अपने दिल की बातें करते रहते, कालेज के मैदान में लगे बेंच पर बैठ कर।
अरुंधति कोलकाता के एक बड़े बिजनेसमैन की इकलौती बेटी थी। उस की मां शोभा की साहित्य में काफी रुचि थी। बड़े नाजो से पाला था शोभा ने अपनी बेटी को। तितली सी चंचलता देख कर कभी मुग्ध होती तो कभी उस के भविष्य की चिंता में डूब जाती।
“मम्मा, आज मैं कालेज कैंटीन में ही कुछ खा लूंगी।”
“नाश्ता तो करती जा…”
“नहीं मम्मा, देर हो जाएगी… आज फर्स्ट पीरियड में ही मेरा प्रैक्टिकल है जिसे मिस नहीं करना चाहती। ओके, बाय…”
“अरे, रुक तो…एक ऐपल ही ले ले…” शोभा बेटी के पीछे दौड़ती, इस से पहले ही अरुंधति स्कूटी स्टार्ट कर चुकी थी। अकसर सुबह का यही दृश्य होता।
अरु इकलौती संतान थी शोभा की। शोभा को साहित्य से बहुत लगाव था। उस ने लगभग सभी महिला साहित्यकारों को पढ़ा था। मन्नू भंडारी और अरुंधति राय उस की प्रिय साहित्यकारों में से थीं। उन की रचनाओं से प्रभावित हो स्वयं भी जबतब लेखनी चला लिया करती थीं। वह अरुंधति राय की इतनी फैन कि उन के उपन्यास ‘द गौड आफ स्मौल थिंग्स’ के बुकर पुरस्कार मिलने पर सोच लिया था कि उस की पुत्री होगी तो वह उस का नाम अरुंधति ही रखेगी।
अरुंधति हर क्षेत्र में अच्छी, पर मस्तमौला स्वभाव की थी। उस का चित्त तो कभी स्थिर रहा ही नहीं। यह स्वभाव हमेशा ही उसे असमंजस में डाल देता। मम्मीपापा की तरफ से पूरी आजादी थी कि वह जिस भी क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहे, वे उसे हमेशा सपोर्ट करेंगे। पर अरुंधति ठहरी चंचला… कभी विज्ञान अच्छा लगता तो कभी अभिनय। कभी पाककला सीखने की कोशिश करती, पर मन ऊबने पर खेल का मैदान दिखाई देता। कबड्डी बहुत अच्छा खेलती थी। मम्मीपापा के लाख समझाने पर विज्ञान का विषय ले कर कालेज में ऐडमिशन ले लिया था। शोभा जानती थी कि अरु जन्मजात प्रतिभासंपन्न है और जिस क्षेत्र का भी चुनाव करेगी उस में अच्छा ही करेगी, पर अरुंधति तो कुछ और ही थी जिस की कल्पना शोभा ने नहीं की थी कभी।
कालेज में एक लड़का था अनुराग जो अरुंधति के मन को भा गया। स्कूल के अनुशासित जीवन से निकलने के बाद कालेज का उन्मुक्त और बिंदास जीवन… यौवन की गलियों में प्रथम कदम… हर किसी को एक सतरंगी दुनिया में ले जाता है जहां वह किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता। अरुंधति ने अब तक का जीवन अपनी शर्तों पर जीया था। उसे पूरा विश्वास था कि उस की पसंद पर मम्मीपापा को कोई ऐतराज नहीं होगा, पर जब उस ने उस लड़के से शादी करने की इच्छा जताई तो पापा एकदम से भड़क उठे,”आजादी देने का यह मतलब नहीं कि तुम मनमानी करो…”
पापा की आपत्ति से हतप्रभ रह गई वह। उसे लगा कि यह आजादी देना महज एक दिखावा है। पापा को अपने स्टेटस की पड़ी है। अनुराग हमारे स्तर से थोड़ी 19 जो बैठता है। यह विचार दिमाग में आते ही अरुंधति विद्रोही बन बैठी। 12वीं पास करने तक चुप रही। जैसे ही 18 की उम्र पार हुई, मम्मीपापा की मरजी के खिलाफ अनुराग से कोर्टमैरिज कर ली।
अरुंधति की मम्मी पर तो मानो वज्रपात ही हो गया था। कितने सपने संजोए थे बेटी के भविष्य के लिए। लाखों में एक दामाद ढूंढ़ कर लाएगी, पर उस ने आवेश में आ कर इतना बड़ा कदम उठा लिया। दरअसल, यह उम्र ही ऐसी होती है जहां ख्वाबों की दुनिया हकीकत पर भारी पड़ने लग जाती है। यदि सावधानी और धैर्य से काम न लिया जाए तो मामला नाजुक हो उठता है और फिर रिश्तों की जमीन में दरारें पड़ जाती हैं। अरुंधति के पापा अपनी जातिगत कट्टरता के साथसाथ अपनी सामाजिक साख को ले कर कुछ ज्यादा ही सजग थे।
अरुंधति द्वारा चुना गया लड़का न केवल दूसरी जाति का था, बल्कि उस की आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल थी। अनुराग के पिता कोलकाता में ही किसी फैक्टरी में मजदूर थे, मगर फैक्टरी में अधिक उम्र के मजदूरों की छंटनी के शिकार हो नौकरी से हटा दिए गए। 4 भाईबहन और वृद्ध मातापिता। बड़ा बेटा होने के नाते परिवार की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी। हालांकि वह पढ़ने में अव्वल था पर आर्थिक पहिया दलदल में धंसे होने के कारण ग्रैजुएशन के बाद जो भी नौकरी मिली उस ने तत्काल स्वीकार कर लिया। फिर तो जीवन की गाड़ी खींचने में ही उस की प्रतिभा जाया होने लगी। फिर भी उस ने छोटे भाईबहनों की पढ़ाई पर कोई आंच नहीं आने दी। अरुंधति ने शादी तो कर ली, पर उस का ग्रैजुएशन पूरा नहीं हो पाया जिस कारण उसे कहीं ढंग की नौकरी भी नहीं मिल सकती थी। दूसरे जौइंट फैमिली के कारण आएदिन किसी न किसी बात पर पैसों को ले कर घर में क्लेश बना ही रहता था।
बड़े ही संघर्ष के दिन थे अरुंधति के, मगर अनुराग के प्रेमिल व्यवहार एवं उस की पारिवारिक मजबूरी ने उसे अपने नेह की डोर में बांध रखा था। अरुंधति के पापा को उस स्थिति का अनुमान था। जैसाकि आमतौर पर होता है कि अमीर घराने की लड़कियां भावनाओं में बह कर ऐसा कदम तो उठा लेती हैं, मगर यथार्थ के कठोर धरातल का स्पर्श होते ही भावनाएं कपूर की भांति उड़ जाती हैं। अरुंधति के पिता इसी दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने अपने वकील से मिल कर बेटी के तलाक से संबंधित बातचीत भी कर ली थी। बस, जिस दिन बेटी ससुराल से तंग हो कर मायके आएगी उस के अगले दिन ही कोर्ट में तलाक की अर्जी दिलवा देंगे। वे शोभा को बराबर सांत्वना देते रहे,”शोभा, क्यों रोरो कर इतनी हलकान हो रही हो? हमारी बेटी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाएगी वहां। तुम तो उस का स्वभाव जानती ही हो। एक जगह टिक कर रह पाई है कभी…”
“वह तो ठीक है जी, पर अपनी ममता का क्या करूं? हम यहां ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं और वहां वह छोटेछोटे सुख के लिए भी तरस रही होगी। एक मां का दिल कैसे माने…”
शोभा की तड़प और बढ़ गई।
“तुम क्या समझती हो, मुझे तकलीफ नहीं हो रही? कोई भी इंसान किस के लिए कमाता है। कड़ी मेहनत कर चार पैसे इकट्ठा करता है तो किस के लिए? अपनी संतान के लिए ही न?”
“नहीं, तुम अपनी संतान के लिए कुछ नहीं सोचते। जल्लाद का दिल है तुम्हारा… नहीं तो कुछ करते नहीं? 1-1 दिन पहाड़ के समान लग रहा है मेरे लिए…” शोभा अपना आक्रोश नहीं दबा पाई।
“देखो, यदि स्वाभाविक तौर पर ही कोई काम हो जाए तो फिर उस के लिए अपनी टांग क्यों अड़ाएं? तुम बस यह समझो कि हमारी अरु उच्च शिक्षा के लिए विदेश गई है। पूरी होते ही लौट आएगी। 1-2 साल नियंत्रण में रखो अपनी ममता को। फिर सब ठीक हो जाएगा।”
मगर अरुंधति के पिता का अनुमान गलत साबित हुआ, मगर अनुराग को परखने में अरुंधति से कोई भूल नहीं हुई। शादी के बाद लड़कियां कितनी जिम्मेदार हो जाती हैं, अरुंधति उस की एक उत्कृष्ट उदाहरण थी। उस ने अपने पति की सच्ची सहधर्मिणी बनने का फर्ज निभाया। हालांकि कभीकभी झल्ला भी उठती थी। मानव सुलभ अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करते हुए अनुराग और उस के परिवार को संभालने की कोशिश करती रही।
शोभा किसी न किसी बहाने बिटिया की खबर लेती रहती। फोन करने पर अरुंधति कभीकभार ही रिप्लाई करती। स्वयं कितनी भी तकलीफ में रही, पर मां को इस की भनक भी न लगने दी। कभी किसी चीज का रोना नहीं रोया। शोभा समझ ही नहीं पा रही थी कि जो उस के मोहल्ले से अनुराग की आर्थिक बदहाली की जानकारी मिली, वह सही है या बेटी के साथ वार्तालाप में मिली संतुष्टि की महक वास्तविक है। ममता के मोह में अंधी हो कर बारबार कुरेदती रहती… तरहतरह की सुखसुविधाओं का लालच देती। शोभा की मंशा सिर्फ यही थी कि उस की बेटी को अभावों में न जीना पड़े।
अरुंधति को बहुत बुरा लग रहा था कि जहां मांबाप को अपने बच्चों को परिस्थितियों से जूझने, संघर्ष करने और धैर्य से उस का सामना करने की सीख देते हैं, वहीं उस के मातापिता मैदान छोड़ कर भागने की बात कर रहे हैं। कायरों की तरह पीठ दिखाने की बात कर रहे हैं। इस सोच की प्रतिक्रिया स्वरूप उस का मन विद्रोह कर उठा। विद्रोही तो थी ही। मन में एक संकल्प लिया जिस ने उसे इतनी हिम्मत दी कि उस ने ठान लिया कि चाहे जो हो जाए, वह अनुराग का साथ नहीं छोड़ेगी। उस की कुछ जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले ली।
10वीं कक्षा के स्तर तक विज्ञान विषय पर उस की अच्छी पकड़ थी। उस ने प्राइवेट ट्यूशन लेना शुरू किया। धीरेधीरे छात्रों की संख्या इतनी बढ़ गई कि उसे ट्यूशन 2 शिफ्टों में करना पड़ा। अच्छाखासा पैसा मिलने लगा तो उस ने अनुराग को किसी अच्छे संस्थान से एमबीए कर लेने की सलाह दी। मेधावी तो था ही, स्कौलरशिप मिलने की भी पूरी संभावना थी। अनुराग को उस की सलाह अच्छी लगी। अनुराग की मेहनत और अरुंधति का संकल्प एक नई खुशी ले कर आया। वह एक ख्यातिप्राप्त कंपनी का सीईओ बन गया।
अरुंधति मिठाई का डब्बा ले कर अपने पति अनुराग के साथ आज मायके गई है। उस के पापा अपने दामाद को देख कर फूले नहीं समा रहे और उस की मम्मी बड़े स्नेह से अपनी बेटी का मुखड़ा निहार रही थीं जो आत्मविश्वास की आभा से दमक रहा था।