नीतीश कुमार ने करीब 5 महीने पहले पटना पुस्तक मेले के उद्घाटन में पद्मश्री चित्रकार बऊआ देवी द्वारा बनाए कमल के फूल में रंग भरा था, वह आखिर सच साबित हो गया. उसी समय से कयास लगाए जाने लगे थे कि नीतीश कुमार भाजपा की ओर बढ़ रहे हैं. लालू नीतीश गठबंधन का टूटना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. यह शुरू से ही दिख रहा था. 20 महीने पहले दोनों नेता जब बिहार में भाजपा को पटखनी दे कर सरकार बना रहे थे तभी कहा जाने लगा था कि यह बेमेल गठजोड़ है, ज्यादा नहीं चलेगा.
अब जब लालू के बेटे और बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के भ्रष्टाचार का मामला सामने आया, लालू के बेटे, बेटी और दामाद के घरों पर सीबीआई के छापे पड़ने शुरू हुए तो नीतीश कुमार खुद को असहज महसूस करने लगे. उन पर तेजस्वी को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने का दबाव बढ़ने लगा. कई बार इशारों में तेजस्वी को इस्तीफे का इशारा करने के बावजूद तेजस्वी और लालू यादव पर कोई असर नहीं पड़ा तो भ्रष्टाचार के नाम पर नीतीश को मुख्यमंत्री पद त्यागने का दिखावा करना पड़ा.
जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहियो के समाजवादी आंदोलन से निकले लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान 80 के दशक में मंडल के आते आते दलितों, पिछड़ों के नेता के रूप में चर्चित हो चुके थे. यह सही है कि इन नेताओं ने इस दौर में दलितों, पिछड़ों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने को काम किया.
शुरू में जनता दल बना तो इस से नेताओं ने देश में सामाजिक बराबरी की मुहिम की खुल कर अगुआई की. वीपी सिंह और एचडी देवगौडा की सरकारों ने पिछड़ों और दलितों में राजनीतिक और सामाजिक जागृति पैदा की. पिछड़ों को आरक्षण मिलने लगा. दलितों, पिछड़ों के कल्याण की हुंकार भरी गई. इसी का नतीजा है कि पिछले करीब ढाई तीन दशक के दौरान दलितों और पिछड़ों की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक हैसियत में बदलाव दिखाई देने लगा. उत्थान हुआ, इन वर्गों में पैसा आया पर सामाजिक भेदभाव की खाई कम नहीं हुई.
1989 के बाद भाजपा लगातार आगे बढ़ने लगी. अयोध्या में राममंदिर निर्माण आंदोलन ने भाजपा की लोकप्रियता को आसमान तक पहुंचा दिया. इस आंदोलन में बड़ी तादाद में पिछड़े भी जुड़ गए. इस से पहले तक भाजपा ब्राह्मण, बनियों की पार्टी मानी जाती थी, लेकिन भाजपा संघ ने हिंदू एकता के नाम पर मंडल के बदले कमंडल की राजनीति चली और पिछड़े भाजपा की छतरी के नीचे आ गए. कल्याण सिंह, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान, साहिब सिंह वर्मा, विनय कटियार जैसे पिछड़े नेता भाजपा की दूसरी पंक्ति में गिने जाने लगे.
नीतीश लालू गठबंधन टूटने से सामाजिक बराबरी के आंदोलन पर असर पड़ेगा. रामविलास पासवान पहले ही भाजपा के सहयोगी बन चुके हैं. नीतीश गठबंधन बदलते रहे हैं. 2014 में उन्होंने भाजपा के साथ 17 साल पुराना गठबंधन सांप्रदायिकता के मुद्दे पर तोड़ा था. अब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लालू से संबंध तोड़ा है पर भाजपा गठबंधन छोड़ कर वह लालू से मिल रहे थे तब भी तो लालू भ्रष्टाचार मामले में सजा पा चुके थे.
इन नेताओं के बिखरने से दलितों, पिछड़ों, वंचितों के पक्ष में खड़े रहने वाले समाजवादी, वामपंथी दलों की जो राजनीतिक एकता थी उसे झटका लगा है. यह ऐसे समय में हुआ है जब दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ रहे हैं. नीतीश भाजपा से हाथ मिला कर उस सोच की सहायता कर रहे हैं जो सामाजिक एकता, आपसी भाईचारा, प्रेम और सौहार्द की भावना के बदले नफरत, हिंसा, भेदभाव को बढ़ावा दे रही है.
भाजपा अपने मकसद में कामयाब हो रही है. पिछड़ों को साथ रखने के लिए नीतीश जैसे सूबेदारों की जरूरत है. यह बात अलग है कि 2019 के चुनाव में मंदिर निर्माण, आरक्षण का खात्मा, दलित, अल्पसंख्यकों पर हमले और हिंदुत्व के प्रचार प्रसार जैसे भाजपा के प्रमुख मुद्दों पर नीतीश कुमार भाजपा के साथ कब टिके रहेंगे?
यह ठीक है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चाहे कोई भी हो, सख्त कारवाई होनी चाहिए पर नीतीश ने जिस सामाजिक बराबरी के आंदोलन को त्याग कर हिंदुत्व के झंडाबरदारों के साथ हाथ मिलाया है वह और ज्यादा खतरनाक है. वह सामाजिक तानेबाने को तहसनहस करने वाली, समाज में घृणा फैलाने वाली, धार्मिक और जातिवादी अलगाव रखने में यकीन करने वाली और हिंसा करने वालों की मददगार है. यह भ्रष्टाचार से ज्यादा नुकसानदेह है.