आम शहरी लोगों की जिंदगी में सांसद या विधायक की जगह पार्षदों की भूमिका ज्यादा अहम होती है. पार्षद ही हैं जो महल्ले की छोटीबड़ी चीजों के लिए जनता से सीधे जुड़ते हैं. पार्षद आसानी से उपलब्ध भी होते हैं. क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि इन के बल पर सिटी बनाई जाए. शहरी जीवन में सब से खास यह होता है कि घर के आसपास सफाई रहे. बरसात के दिनों में जलभराव न हो. सीवर की समस्या न खड़ी हो. घरपरिवार में कोई परेशानी हो तो मददगार मिल जाए.
सांसद और विधायक से मिलना आज के दौर में बहुत बड़ी बात है. अगर मिल भी जाएं तो उन से अपने काम के बारे में कहना और कुछ कराना उस से भी बड़ी बात है. ऐसे में आम लोगों की असल जिंदगी में सांसद और विधायक का कोई बहुत रोल नहीं रह जाता है. आम शहरी लोगों की जिंदगी में असल मददगार पार्षद होते हैं. इन की सब से खास बात यह होती है कि ये सहज रूप से उपलब्ध होते हैं. हमारे आसपास रहते हैं. ऐसे में यह जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारों की तरह की सिटी सरकार बनाई जाए. पार्षद अभी मेयर, नगर पालिका अध्यक्ष और नगर पंचायत अध्यक्ष के अधीन काम करते हैं. नगर पालिका अध्यक्ष और नगर पंचायत अध्यक्ष दोनों को ही चेयरमैन कहते हैं.
शहरी निकाय अधिनियम के तहत इन के चुनाव हर 5 साल में होते हैं. पार्षद, मेयर, नगर पालिका अध्यक्ष और नगर पंचायत अध्यक्ष का चुनाव सीधे जनता द्वारा होता है. मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की तरह से विधायक और सांसद की जगह पर इन को पार्षद नहीं चुनते हैं. ये सीधे जनता द्वारा चुने प्रतिनिधि होते हैं. इस वजह से ये जनता के बीच रहते हैं. किसी भी क्षेत्र की जनता अपने सांसद और विधायक से जरूरत पड़ने पर नहीं मिल सकती. इस के 2 प्रमुख कारण हैं. एक तो वह अपने क्षेत्र के साथसाथ देश या प्रदेश की राजधानी में रहता है. वह या तो चुनाव के समय सक्रिय होता है या फिर क्षेत्र में उस के किसी करीबी के घर कोई आयोजन हो तो वह दिख जाता है. एक तीसरा कारण यह भी होता है कि वह बड़ा नेता होता है. उस की सुरक्षा का बड़ा ताम झाम होता है. लिहाजा, वह जनता से दूर हो जाता है.
ऐसे में आम शहरी के लिए सब से प्रमुख पार्षद, मेयर, नगर पालिका अध्यक्ष और नगर पंचायत अध्यक्ष होता है. लखनऊ की मेयर संयुक्ता भाटिया सुबह 8 बजे से 11 बजे तक अपने आवास पर लखनऊ की जनता से मिलती हैं. जो भी लोगों की परेशानी होती है उस के संबंध में अधिकारियों को फोन कर या पत्र लिख कर कहती हैं. ज्यादातर परेशानी जलभराव, सीवर, सफाई, किसी पशु के मरने आदि की रहती है. घर का किराया, नाम का बदलना, महल्ले की सड़क, नाली ठीक कराने की रहती है. आज के समय में लखनऊ में 110 वार्ड हैं. 10 नगर पंचायत हैं. जैसेजैसे लखनऊ का विस्तार हो रहा है वैसेवैसे वार्डों की संख्या भी बढ़ेगी. इन की परेशानियों को ले कर जनता या तो पार्षद यानी कौर्पोरेटर से मिलती है या फिर मेयर से. परेशानी की बात यह है कि पार्षद और मेयर के वित्तीय अधिकार बेहद कम हैं.
ये नगर विकास विभाग के अधीन काम करते हैं. मेयर लंबे समय से संविधान संशोधन कर अधिकार देने की मांग कर रहे हैं. इस के बाद भी केंद्र और प्रदेश सरकारें इन्हें ये अधिकार देने की पहल नहीं कर रही हैं. पार्षद, चेयरमैन और मेयर क्यों महत्त्वपूर्ण हैं और इन को क्यों अधिकार दिए जाने चाहिए? इस बारे में मोहनलालगंज नगर पंचायत में चेयरमैन पद के प्रत्याशी विनीत सिंह कहते हैं, ‘‘सांसद और विधायक के पास लंबा क्षेत्र काम करने के लिए होता है. वे जनता की बेहतर सेवा नहीं कर सकते क्योंकि उन को केंद्र और प्रदेश की राजधानी में भी रहना होता है. पार्षद, चेयरमैन और मेयर उसी शहर और महल्ले में रहते हैं, इस कारण जनता से सीधे जुड़े रहते हैं.
जनता की असली सेवा यही लोग कर सकते हैं, इसलिए इन को अधिकार दिए जाएं.’’ राजनीति की पहली सीढ़ी एक समय था जब कालेज और विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों से युवा राजनीति सीख कर आगे बढ़ते थे. उन में से कुछ लोग विधायक और सांसद भी बन जाते थे. अब छात्रसंघ के चुनाव हाशिए पर चले गए हैं. ऐसे में निकाय चुनाव राजनीति की पहली सीढ़ी जैसे हो गए हैं. यहां महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिला है. ऐसे में 33 फीसदी टिकट उन को मिलते हैं. हर चुनाव में परिसीमन होता है, उस के हिसाब से यह तय होता है कि क्षेत्र से चुनाव कौन लड़ेगा? जातिवार आरक्षण भी होता है. अगर देखा जाए जो पिछले निकाय चुनाव, जो 2017 में हुए थे, में करीब 40 फीसदी पार्षद और चेयरमैन 45 साल से कम आयु के थे. 50 फीसदी लोग 55 साल से कम के थे.
10 फीसदी लोग ही 65 साल से कम के थे. विधानसभा और संसद के मुकाबले निकाय सरकार अधिक युवा थी. इस बार और अधिक युवाओं का प्रतिनिधित्व होगा. लखनऊ में बाबू बनारसीदास वार्ड के रहने वाले हर्षित दीक्षित 30 साल की उम्र में पार्षद चुने गए. वे कहते हैं, ‘‘जब से हम पार्षद बने हैं, अपने क्षेत्र में रहने वाले हर घरपरिवार से व्यक्तिगत रूप से जुड़े हुए हैं. किसी के यहां कोई परेशानी हो, इस की जानकारी मिलने पर पहुंच जाते हैं. कोविड काल का बड़ा दौर इसी समय आया. उस में अलग तरह के हालात का सामना करना पड़ा. दवा, खाना, पानी से ले कर अंतिम संस्कार तक कराना पड़ा. ‘‘मेरा फोन हमेशा सब की पंहुच में रहता है.
कोई भी किसी समय फोन कर के अपनी परेशानी कह सकता है. इस के साथ ही साथ हम अपने घर पर मिलते हैं. कोई परेशानी हो तो हम खुद चल कर लोगों के पास चले जाते हैं. विधानसभा और संसदीय क्षेत्र के मुकाबले महल्ला छोटा होता है. इस कारण हमें संपर्क में रहना सरल होता है. इस के अलावा हमारे पास युवा कार्यकताओं की टीम होती है. वह हमें पूरी जानकारी देती है, जिस से हम लोग क्षेत्र की परेशानियों से वाकिफ होते हैं. हमें अपने से बड़े नेताओं का मार्गदर्शन मिलता है, जिस से जिस समस्या का समाधान हमारे पास नहीं होता, वे लोग सु झा देते हैं.’’ महिला आरक्षण का मिल रहा लाभ जो लोग यह तर्क देते हैं कि संसद और विधानसभा में महिलाओं को आरक्षण देने से क्या लाभ होगा, उन्हें निकाय चुनाव में पार्षद चुन कर आने वाली महिलाओं के कामों को देखना चाहिए.
लखनऊ के ही भारतेंदु हरिश्चंद्र वार्ड की पार्षद रूपाली गुप्ता पहले अपने घर पर ही ब्यूटीर्पालर चलाती थीं. इस कारण उन का अपने महल्ले की महिलाओं से अच्छा संपर्क था. 2017 के जब निकाय चुनाव आए तो महल्ले के लोगों ने कहा कि ‘दीदी इस बार आप भी चुनाव लड़ जाओ’. शुरुआत में रूपाली गुप्ता को ि झ झक लग रही थी कि कैसे वे इस काम को करेंगी. पिता की सलाह पर उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया. रूपाली गुप्ता ने चुनाव जीत लिया और पार्षद बनने के बाद अपने वार्ड की परेशानियों को हल करना शुरू किया. भारतेंदु हरिश्चंद्र वार्ड से हो कर ही सीतापुर, हरदोई और अयोध्या जाने वाले लोग जाते हैं. कोरोना के समय जब बहुत सारे लोग पैदल सड़क पर इधर से उधर जा रहे थे तो उन्होंने ऐसे भूखेप्यासे लोगों के लिए खाने का प्रबंध किया.
सड़क पर ही स्टौल लगा कर अपने वार्ड के लोगों की मदद से काम किया. कोरोना के समय दवाओं का प्रबंध कराया. इस के बाद महल्ले के पार्क ठीक कराए. सड़क, नाली और सफाई का ध्यान रखा. कोरोना के दौरान दवाओं का छिड़काव कराया. रूपाली गुप्ता कहती हैं, ‘‘हमें लखनऊ की मेयर और अपने विधायकजी का पूरा सहयोग मिलता रहा है. कोरोना के दौरान संसाधनों की कमी को पूरा किया. इस के अलावा जब हम लोगों को सीखना पड़ता है तो सलाह लेते हैं. मेरे लिए घर और बिजनैस से निकल कर काम करना सरल नहीं था. पार्षद बनने के बाद महल्ले के लोग घर पर मिलने आने लगे. ऐसे में घर में जगह कम पड़ रही थी. पार्लर बंद करना पड़ा. उस के लिए हम समय भी नहीं निकाल पा रहे थे. अब जनता की सेवा के लिए यह करना पड़ा तो हमें कोई शिकायत नहीं है.’’
घरपरिवार के साथ कर सकते हैं राजनीति असल में निकाय चुनाव की राजनीति महल्ले के लोगों के साथ जुड़ने की होती है. ऐसे में घरपरिवार साथ ही रहता है. महिलाओं को अपना घरशहर छोड़ कर किसी दूसरे शहर जाना नहीं होता है. ऐसे में वे घरपरिवार की देखभाल और राजनीति के सहारे महल्ले व शहर की सेवा कर सकती हैं. निकाय चुनाव में बड़ी संख्या में महिलाओं को चुनाव लड़ने का मौका मिल रहा है. यह कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार की सोच का असर है जिस ने महिलाओं को निकाय चुनाव में 33 फीसदी का आरक्षण दिया.
संसद और विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस महिला आरक्षण का बिल ले कर आई थी लेकिन बहुमत न होने के कारण वह इस को कानून नहीं बनवा पाई. अगर सिटी सरकार को बनाया जाएगा तो महिलाएं अपने कानून खुद बना सकेंगी. बजट में किचन और घर की जरूरतों पर ध्यान रख सकेंगी. स्कूल, बच्चों की पढ़ाई, शहर सुरक्षा और सफाई जैसे स्थानीय मुद्दे प्रभावी ढंग से सामने आ सकेंगे. महिलाओं की संख्या ज्यादा होने से एकदूसरे को देख कर ये सब राजनीति में दखल रखने लगेंगी. राजनीतिक चर्चा में इन की रुचि बढ़ेगी, जिस से संसद और विधानसभा चुनावों में भी असर बढ़ेगा. ज्यादातर लोगों के काम अपने आसपास के रहते हैं, इसलिए भी सिटी सरकार जरूरी है. यही शहरों का बेहतर प्रबंधन कर सकती है.