हमारे यहां जब कोई बुजुर्ग अपनी पूरी उम्र जी कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो खूब बैंडबाजे, ढोलनगाड़ों के साथ उन्हें अंतिमयात्रा पर ले जाया जाता है. उन की तेरहवीं पर विशाल भंडारा किया जाता है. यहां तक कि पासपड़ोस में लड्डू तक बांटे जाते हैं. इस से साफसाफ यही प्रदर्शित होता है कि सारा परिवार घर के उस बुजुर्ग की मृत्यु का इंतजार कर रहा था.

गीता यादवेंदु

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मैं एक परिचित की मृत्यु होने पर उन के घर गई. वे पत्नी की मृत्यु के बाद अकेले ही रहते थे. उन के 2 पुत्र दूसरे शहर में रहते थे. वे एक साल से बिस्तर से लगे हुए थे, लेकिन कोई बेटा न तो उन के पास कभी आया, न ही वे बेटों के पास रहने के लिए कभी गए.

मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि जैसे ही उन की मृत्यु हुई, पता नहीं कैसे वे दोनों आननफानन उन के पास पहुंच गए. उन दोनों ने आते ही सभी परिचितों को उन के निधन के बारे में सूचित किया और बड़े विधिविधान से सारे क्रियाकलाप संपूर्ण किए. तेरहवीं को अच्छेखासे भोज का आयोजन किया गया और पंडितों को जीभर कर दानदक्षिणा दी गई. उन का यह ढकोसला देख कर मेरा मन वितृष्णा से भर उठा, क्योंकि उस परिचित का अकेलापन मैं ने बहुत करीब से देखा था.

काश, यह आयोजन उन के कभी जन्मदिन को मनाने के लिए किया जाता और पंडितों के स्थान पर गरीब लोगों को दान दिया जाता तो बेटों को पिता का कितना आशीर्वाद मिलता और वे कितने खुश होते.

लेकिन उन को पिता के आशीर्वाद से अधिक उन की अर्जित धनसंपत्ति प्यारी थी. इसलिए तो यह सब आडंबर रचा गया कि समाज की दृष्टि में भी वे उस के हकदार माने जाएं, क्योंकि हमारा समाज भी इन आडंबरों का ही पक्षधर है.      

सुधा कसेरा

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मारवाड़ी समाज में बछवारस नाम की एक पूजा होती है. यह बेटा होने के बाद की जाती है. उस पूजा में मोठ, चना, दही, दूब और कांटे का टुकड़ा ले कर पूजा करते हैं, फिर इसे खा लेते हैं. एक बार मेरी ननद अपनी सास के साथ यह पूजा करने बैठी. सास ने जब पूजा के बाद यह खाया तो कांटा गले में अटक गया. काफी पानी पिलाने पर भी अंदर नहीं गया. बाद में गले में उंगली डाल कर उन्हें उलटी कराई गई. तब जा कर कांटा बाहर निकला. और उन की जान बची.  

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