मैं वह स्त्री हूं जो सदियों से

कारागृह में सहमी, मृतप्राय रही

जहां पगपग कांटे बिछे मिले

क्यों उसी मिट्टी में आदिकाल से

पनप रही हूं मैं

सभ्य समाज भी किस काम का

जहां पलपल अपमानित हुई हूं मैं

आज वेदना के तीर छूटे म्यान से

आखिर क्यों इतने वर्षों के उपरांत भी

यह पक्षपात मौन साधे

देख रही हूं मैं

समय का चक्र घूमा फिर भी

रीतिरिवाजों के तपोवन में

अपने आत्मसम्मान की

प्रतिक्षण आहुति दे रही हूं मैं

क्यों इस चिंता की चिता की

लपटों में दहक रही हूं मैं?

क्यों वर्षों से तिरस्कार की सहभागिनी

बन रही हूं मैं?

अनगिनत बार असहनीय यंत्रणा के

शूल बिंध गए अंतर्मन को

अब भी पीढ़ीदरपीढ़ी

किस उम्मीद के साथ जी रही हूं मैं

आखिर क्यों यह यातना

सह रही हूं मैं?

– अनुभूति गुप्ता

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