अदरक जिंजिबर औफिसिनेल रोस जाति के पौधे का जमीन के अंदर रहने वाला रूपांतरित तना यानी प्रकंद है. इन प्रकंदों को फसल की कटाई के बाद हरे और सुखा कर दोनों रूपों में इस्तेमाल करते हैं. ताजा अदरक व्यंजनों को खुशबूदार और चरपरा बनाने व मुरब्बा बनाने के काम आता है. चाय का स्वाद बढ़ाने के लिए खासतौर पर सर्दियों में अदरक का इस्तेमाल एक आम बात है. अदरक या इस के रस का कई देशी दवाओं में इस्तेमाल होता है.
यह सर्दीजुकाम और पेट संबंधी रोगों में दिया जाता है. अदरक का छिलका उतारने के बाद 10-12 दिनों तक धूप में सुखाने पर सूखा अदरक बनता है, जो तेल व अदरक चूर्ण वगैरह बनाने के काम में आता है.
भारत में अदरक पैदा करने वाले सूबों में केरल, मेघालय, आंध्र प्रदेश, ओडि़शा, हिमाचल प्रदेश व पश्चिम बंगाल खास हैं.
जलवायु व जमीन
अदरक समशीतोष्ण से गरम जलवायु वाले क्षेत्रों तक में उगाया जाता है. यही वजह है कि उत्तरी पर्वतीय इलाकों से ले कर दक्षिण की पूर्वी व पश्चिमी घाटियों तक इस की खेती की जाती है. इस की खेती समुद्री सतह से 1500 मीटर ऊंचाई तक की जा सकती है. फसल का सही समय बारिश की शुरुआत से उस के आखिर तक होता है.
ज्यादा बारिश व गरमी से इस की उपज पर बुरा असर पड़ता है. 150 से 200 सैंटीमीटर बारिश वाले इलाकों में बिना सिंचाई के इसकी खेती की जा सकती है. बारिश कम होने पर इस की सिंचाई करनी पड़ती है. अदरक के लिए दोमट और बलुई मिट्टी मुनासिब रहती है. मिट्टी से पानी का निकास ठीक होना चाहिए और जीवांश काफी मात्रा में होना चाहिए. क्षारीय मिट्टी में इस की फसल अच्छी नहीं होती.
उन्नत किस्में
अदरक की उन्नत किस्मों का पूरा ब्योरा तालिका में दिया गया है.
खेत की तैयारी
अदरक की खेती के लिए खेत की तैयारी गरमी का मौसम शुरू होते ही करें. गरमी में खेत जोत कर छोड़ देना चाहिए, ताकि मिट्टी उपजाऊ और पानी जज्ब करने लायक हो जाए.
गरमी की जुताई से जिंजर रोग (गलन) लगने का खतरा भी कम हो जाता है. मई के शुरू में खेत में प्रति हेक्टेयर लगभग 200 क्विंटल अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद और
10 क्विंटल अरंडी की खली डाल कर अच्छी तरह जुताई करें. इस के बाद पलेवा कर के सिंचाई के लिहाज से मुनासिब क्यारियां बनाएं.
खेत की 5-6 बार जुताई करनी चाहिए, ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाए और खाद भी अच्छी तरह मिल जाए. अदरक मेंड़ों पर और समतल क्यारियों में बोया जाता है. अदरक की फसल को बहुत ज्यादा भोजन तत्त्व चाहिए, लिहाजा इसे दूसरी फसलों के चक्र में बोते हैं.
खाद व उर्वरक
अदरक एक लंबा वक्त लेने वाली व अधिक खाद व उर्वरक चाहने वाली फसल है. इस के लिए 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद के अलावा भूमि की उर्वराशक्ति व अदरक की किस्म के मुताबिक 80 से 120 किलोग्राम नाइट्रोजन,
30 से 50 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश की जरूरत होती है. फास्फोरस की पूरी मात्रा और पोटाश की आधी मात्रा जुताई के समय दें. पोटाश की बाकी बची मात्रा व नाइट्रोजन की पूरी मात्रा खड़ी फसल में 2 समान भागों में पहली बोआई के 2 महीने बाद व दूसरी मात्रा इस के 1 महीने बाद खड़ी फसल में दें. उर्वरक छिड़कने के बाद अगर बारिश न हो, तो सिंचाई जरूर करें.
देशी खाद या कंपोस्ट खाद अगर बोआई के बाद खेत में पलवार के रूप में दी जाए, तो यह भोजन तत्त्व मुहैया करने के साथसाथ अंकुरों को धूप से बचाएगी और जमीन पर पपड़ी भी नहीं बनने देगी. लिहाजा, जहां पलवार लगाने के लिए पत्तियों का इंतजाम न हो, वहां गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद को बोआई के तुरंत बाद पलवार की परत के रूप में लगा देते हैं, ताकि खाद का काम भी हो जाए और पलवार भी लग जाए.
बोआई का समय
अदरक की बोआई अलगअलग जगहों पर 15 अप्रैल से 15 जून तक की जाती है. हिमालय के तराई वाले इलाकों में इस की बोआई मई में की जाती है, जबकि केरल में मानसून के पूर्व बारिश के साथ अप्रैल में बोआई करना बेहतर पाया गया है. फसल की बोआई सही समय पर करना जरूरी है, ताकि सर्दी आने से पहले फसल बढ़ने के लिए काफी समय मिल जाए.
बीज व बोआई
बोआई के लिए डेढ़ से 2 इंच आकार के टुकड़े सही रहते हैं. एक हेक्टेयर के लिए तकरीबन 700 से 1,000 किलोग्राम बीज के टुकड़े की जरूरत होती है. अगर बोआई के लिए डेढ़ इंच से छोटे टुकड़े इस्तेमाल किए जाएं, तो उपज घट जाती है. केरल में इस से भी ज्यादा मात्रा (1,200 से 1,400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) बीज के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं.
अगर बीज ठंडे गोदाम में रखे हों, तो बोने से काफी समय पहले उन्हें सामान्य तापमान में रखना चाहिए. ऐसा न करने से बीजों के सड़ने का डर रहता है. बीज के टुकड़ों को क्यारियों में 22×22 सैंटीमीटर की दूरी पर खुरपी की मदद से तकरीबन 5 सैंटीमीटर गहरा बोना चाहिए. कुछ परीक्षणों में 22×15 सैंटीमीटर कतारों व पौधों की दूरी से अच्छे नतीजे हासिल हुए हैं. कहींकहीं पर अदरक की बोआई 30×20 सैंटीमीटर पर भी करते हैं.
बीजों को खुला नहीं छोड़ना चाहिए. बोने के फौरन बाद खेत को पत्तियों से ढक देना चाहिए और जमीन में नमी की कमी हो तो पानी भी देना चाहिए.
पलवार लगाना
अदरक के लिए पलवार लगाना जरूरी है. पलवार से बारिश के अंत में बनने वाली पपड़ी का डर नहीं रहता. इस के अलावा जमीन या नए अंकुरों पर सूरज की किरणें भी सीधी नहीं पड़तीं और मिट्टी काफी समय तक नम बनी रहती है, जिस से अदरक का अंकुरण अच्छा व कम समय में होता है.
पलवार से खरपतवार भी नहीं उग पाते. पलवार की पत्तियां बाद में सड़ कर जीवांश के रूप में बदल जाती हैं. लिहाजा, बोआई के बाद क्यारियों में हरी पत्तियों की पलवार लगा देनी चाहिए. एकएक महीने के अंतराल से 3 बार पलवार लगाना ठीक रहता है. एक बार पलवार लगाने के लिए प्रति हेक्टेयर 5,000 किलोग्राम हरी पत्तियों की जरूरत पड़ती है.
सिंचाई
बरसात के मौसम में पानी न बरसने पर ही सिंचाई करें. बारिश शुरू होने तक और बारिश के बाद 4-5 बार सिंचाई करनी चाहिए. अदरक की गहरी सिंचाई की जाती है. अदरक के खेत में पानी नहीं भरना चाहिए. पानी भरने से रोगों का खतरा बढ़ जाता है. लिहाजा, खेत में सही जल निकास जरूरी है.
निराईगुड़ाई
पलवार की वजह से आमतौर पर खेत में खरपतवार नहीं उगते. अगर खरपतवार उगे हों, तो उन्हें निकाल देना चाहिए. जब पौधे तकरीबन 20 सैंटीमीटर ऊंचे बढ़ जाएं, तो उन की जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. जब अदरक के कंद बनने लगते हैं, तो जड़ों के पास कुछ कल्ले निकलने लगते हैं. उन कल्लों को खुरपी से काट देना चाहिए. ऐसा करने से कंद बड़े बनते हैं.
बीमारियां व रोकथाम
प्रकंद गलन : यह बीमारी पीथियम वंश की कवक प्रजातियों से होती है. मैगट व नेमाटोड्स भी इस बीमारी से संबंधित पाए गए हैं. बीमार पौधे की पत्तियां शुरू में छोटी और किनारों पर पीली पड़ जाती हैं. बाद में सारी पत्तियां पीली पड़ कर झुक जाती हैं व आखिर में सूख जाती हैं. बीमारी से प्ररोह कालर सड़ जाता है. नतीजतन, रोग प्रकंद में पहुंच जाता है. रोगग्रसित प्रकंद का रंग बिगड़ जाता है और वह धीरेधीरे सड़ने लगता है.
यह बीमारी अदरक को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाती है. रोगग्रसित बीज सामग्री या जमीन में मौजूद कवक बीजाणु से यह बीमारी फैलती है. इस बीमारी की रोकथाम का कोई सही इलाज तो नहीं है, पर स्वस्थ बीज सामग्री को इस्तेमाल करने, बीमारी की शुरुआत में खेत में डेक्सोन, केप्टाफोल या चेस्टनट मिश्रण के (0.2 फीसदी) घोल का छिड़काव करने, खेत में जल निकास का सही इंतजाम करने और सही फसलचक्र अपनाने से बीमारी का असर कम हो जाता है.
अगर बीज सामग्री में रोग के बीजाणु मौजूद होने का अंदाजा हो तो उन को इस्तेमाल करने से पहले डाईथिन एम 45 के 0.2 फीसदी घोल में डुबो लेना चाहिए, ताकि कवक बीज खत्म हो जाएं.
पीलिया (यैलो डिजीज) : यह बीमारी फ्यूजेरियम औक्सीस्पोरम उपजाति जिंजिबर और फ्यूजेरियम सोलेनाई के आक्रमण से होती है. रोग के असर वाले पौधों की नीचे की पत्तियां किनारों से पीली पड़नी शुरू होती हैं. बाद में यह पीलापन सारी पत्तियों में फैल जाता है और पौधा सूख जाता है.
प्रकंद गलन रोग की तरह यह बीमारी भी रोगग्रसित बीज सामग्री व भूमि में मौजूद कवक बीजाणुओं से फैलती है. स्वस्थ बीज सामग्री इस्तेमाल करने और बीज प्रकंदों को डाईथिन एम 45 या बेनलेट या बाविस्टीन के 0.3 फीसदी घोल में 2 घंटे तक उपचारित कर के इस्तेमाल करने से रोग की रोकथाम की जा सकती है.
अगर अदरक की बोआई के लिए चुने हुए खेत में रोग के बीजाणुओं की मौजूदगी का अंदाजा हो, तो ऐसे खेतों में बोआई के समय और उस से 15 दिन पहले 2 बार ऊपर बताई गई दवाओं के 0.3 फीसदी घोल से 6 लिटर प्रति वर्गमीटर की दर से छिड़काव करें. सही फसलचक्र अपनाने से जमीन में रोग के बीजाणु कम हो जाते हैं.
कीट व नेमाटोड
ऊतक छेदक कीट व प्रकंद मेगट अदरक के मुख्य हानिकारक कीट हैं. अभी तक इन का प्रकोप खासतौर पर केरल तक ही सीमित है. इन के अलावा केरल में नेमाटोड मेलाडोगाइनी और रोडोफोलस भी फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. इन कीटों व नेमाटोड्स की रोकथाम के लिए खोज चल रही है.
प्रकंदों की खुदाई
अदरक लंबा समय लेने वाली फसल है, जो 8 से 10 महीने में तैयार होती है. पकने पर इस की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और मुरझा कर सूखने लगती हैं. यही खुदाई का सही समय होता है. खुदाई के समय अगर जमीन में नमी न हो, तो हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. खुदाई खुरपी या फावड़े से करनी चाहिए.
खोदते समय कंदों को कटने या टूटने न दें. कंदों को इकट्ठा कर के पानी से 2-3 बार धो कर साफ कर लें, फिर एक दिन तक धूप में रख कर हरे कंदों को बाजार में भेज दिया जाता है या उन से सूखी अदरक या सोंठ बना ली जाती है.
इस साधारण खुदाई के अलावा फसल जब तकरीबन 3 महीने की हो जाती है, तो उस पर मिट्टी चढ़ाते समय बीज कंद को निकाला जा सकता है. 3 महीने की फसल से बीज कंद को निकालने से फसल की बढ़ोतरी पर कोई बुरा असर नहीं होता है.
बीज कंदों को बाजार में बेच कर अतिरिक्त मुनाफा कमाया जा सकता है.
सूखी अदरक व सोंठ बनाने की विधि
सूखी अदरक : धुलाई करने के बाद प्रकंदों को रातभर साफ पानी में डुबो कर रखते हैं. दूसरे दिन प्रकंदों को हाथ से ही पानी के अंदर अच्छी तरह मसल कर साफ कर लेते हैं. साफ किए हुए प्रकंदों का ऊपरी छिलका बांस की खपच्चियों से छील कर उतारते हैं.
ध्यान रहे, न तो छिलका ही बचे और न छिलाई गहरी हो. छिलाई गहरी होने से वाष्पशील तेल में कमी आ जाती है, क्योंकि वाष्पशील तेल छिलके के ठीक नीचे ही रहता है. चाकू का इस्तेमाल करने से अदरक का रंग बिगड़ने का डर रहता है.
छिले हुए प्रकंदों को फिर धो कर तकरीबन एक हफ्ते तक धूप में सुखा कर जलविहीन कर लेते हैं.
सोंठ : ऊपर बताई गई विधि से सुखाई हुई अदरक का रंग थोड़ा फीका (क्रीमी) होता है. चमकदार सफेद रंग पाने के लिए अदरक को पूरी तरह सूखने से पहले 4-5 बार चूने के पानी में डुबोया जाता है. चूने के पानी से उपचारित सूखी अदरक का रंग सफेद चमकदार होता है. इस सूखी अदरक को सोंठ कहते हैं. देश के बाजार में सुखाई हुई अदरक की तुलना में सोंठ की मांग ज्यादा है.
थोड़ीबहुत मात्रा में सोंठ का ब्रिटेन और जर्मनी को निर्यात किया जाता है. भारत में अदरक के लिए ज्यादातर अविकसित विधि ही इस्तेमाल की जाती है. यही वजह है कि विदेशों में भारतीय अदरक को गुणवत्ता के लिहाज से मध्यम दर्जे का ही माना जाता है. लिहाजा, अदरक के निर्यात को बढ़ाने के लिए इस की गुणवत्ता को बढ़ाने के साथसाथ उत्पादन की सही विधियां भी विकसित करनी और अपनानी होंगी.
उपज
हरे अदरक की उपज तकरीबन 100 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है, जो सुखाने के बाद 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक बैठती है.