“तुम मुझे अपनी सब्जी क्यों नहीं खिलातीं कभी? जब देखो तब बहाने लगाती रहती हो. नहीं खिलाना चाहती, यह बोल कर सीधा मना ही कर दिया करो. इस से तो कम ही बुरा लगेगा,” प्रिया गुस्से व अपमान के मिश्रित भाव से दीपा पर चिल्लाई.

दीपा व प्रिया 8वीं कक्षा की छात्राएं हैं, दोनों परम मित्र भी हैं. दोनों के बीच हर चीज का सहज लेनदेन है. लेकिन प्रिया को यह महसूस होता है कि दीपा उस से हर चीज, बात शेयर करती है लेकिन जब भी उस ने उस के लंचबौक्स से सब्जी मांगी, उस ने तुरंत कुछ न कुछ बहाना बना कर मना कर दिया, जैसे मिर्च ज्यादा है या मेरी मम्मी सब्जी अच्छी नहीं बनातीं, तेरा जायका बिगड़ जाएगा आदि .

आज भी जब वे दोनों लंचटाइम में अपना टिफिन बौक्स खोल कर बैठीं तो दीपा के टिफिन से आती खुशबू ने प्रिया के मुंह में पानी ला दिया.

खुशबू के वशीभूत हो उस ने जैसे ही रोटी का कौर दीपा की सब्जी में डालने का प्रयत्न किया, दीपा ने टिफिन को हाथ से ढक कर प्रिया को रोक दिया.

प्रिया को बुरा लगा. उस ने खीझते हुए कहा, “क्या है?”

“तुझे कितनी बार बताया है कि मेरी मम्मी बहुत ही तीखी सब्जी बनाती हैं और तुझे ज्यादा मिर्च पसंद नहीं है,” दीपा ने सफाई दी.

कभी चखने देगी तो पता चलेगा न कि आंटी कितना मिर्च डालती हैं. नहीं पसंद आएगी तो खुद ही मना कर दूंगी. खाने तो दे पहले,” प्रिया ने दीपा का हाथ टिफिन पर से हटाने की कोशिश की.

“प्रिया, मैं मना कर रही हूं न”.

“नहीं दूंगी मैं तुझे,” दीपा ने गुस्से से कहा.

“क्यों, क्यों नहीं देगी? मैं कभी मना करती हूं तुझे? तू यह बोल न कि अपना खाना मुझे खिलाना ही नहीं चाहती. शायद तू मेरा जूठा नहीं खा सकती, इसीलिए बहाने बनाती है. ठीक है, आज के बाद कभी नहीं कहूंगी तुझे कुछ भी और न ही तेरे साथ बैठ कर खाऊंगी, समझी? रह खुश,” प्रिया गुस्से में बरस कर उठी और अपना टिफिन उठा कर कमरे से बाहर चली गई.

दीपा की आंखें छलछला उठीं.

सब्जी को ले कर दोनों में अबोला हो गया. यह शीतयुद्ध 3 दिन जारी रहा और चौथे दिन भोजनावकाश के समय दीपा उधर चल दी जहां प्रिया बैठी थी. वहां जा कर उस ने अपना टिफिन खोल कर प्रिया के सामने रख दिया.

प्रिया ने देखा और फिर अनदेखा किया.

दीपा ने टिफिन और आगे खिसकाया प्रिया की नजरों की बिलकुल सीध में, फिर उस के सामने खुद बैठ गई. देखा, प्रिया बात करने को तैयार ही नहीं है तो एक लंबी सांस ली और प्यार से बोली, “खा ले, आलूमटर है, तेरा पसंदीदा.”

सब्जी की खुशबू प्रिया के नथुनों से हो कर उस के पेट व दिमाग में उथलपुथल मचा रही थी लेकिन यों एक सब्जी के लिए वह अपना आत्मसम्मान नहीं छोड़ सकती थी. उस ने खुद को मजबूत किया. अपना ईगो नहीं छोड़ा और बोली, “नहीं खानी, मेरे पास है.”

दीपा (प्यार से) बोली, “खा ले न, स्पैशल तेरे लिए बनवा कर लाई हूं मम्मी से, प्लीज.”

प्रिया ने आंखें तरेरीं, “आज आंटी मिर्च डालना भूल गईं?”

“देख, ज्यादा दिमाग मत लगा, चुपचाप खा ले,” दीपा ने प्यार से झिड़कते हुए कहा.

प्रिया बोली, “नहीं खानी.”

दीपा बोली, “क्यों?”

प्रिया ने जवाब दिया, “जब मांगती हूं तब तो देती नहीं. अब बिना जरूरत के कटोरा लिए बैठी है सामने. नहीं चाहिए.”

दीपा के चेहरे पर पीड़ा उभर आई.

उस ने मनुहार की, “खा ले, प्रिया, पैर पकडूं? देख, नया टिफिन भी लाई हूं तेरे लिए.”

“प्लीज, मुझे ये चोंचले मत दिखा…नया टिफिन? हुंह,” प्रिया ने मुंह बनाया और अपने इरादे पर दृढ़ रही.

दीपा ने कहा, “प्रिया, खा ले वरना मैं तुझ से कभी बात नहीं करूंगी.”

प्रिया बोली, “मत कर. मैं कौन सी मरी जा रही हूं.”

दीपा के आंसू नयनों की परिधि लांघ गए. उस ने एक पल प्रिया को निहारा और उठ कर चल दी.

उस का जाना प्रिया के आत्माभिमान पर चोट कर गया और वह एक पल में तूफान में औंधे पड़े वृक्ष की तरह छटपटा उठी और पीछे से जा कर दीपा का हाथ पकड़ रोक लिया.

अपनी बेस्ट फ्रैंड का दिल दुखाने पर उपजी पीड़ा को छिपाने की नाकाम कोशिश करती हुई वह नाटकीय गुस्से में बोली, “क्या है? खा रही हूं न. जब देखो, भागने की जल्दी लगी रहती है. जरा सा गुस्सा भी न कर सकूं?”

दीपा (आंसू पोंछते हुए विस्मय से), “जरा सा?”

प्रिया बोल पड़ी, “और क्या, बदला तो लेना ही चाहिए न? मुझे भी इतना ही बुरा लगता है जब तुम झट से सब्जी के लिए न कर देती हो.”

दीपा मुसकराई, “ले लिया बदला?”

प्रिया बोली, “हां, चल, अब खाना खाते हैं, भूख लगी है.”

दोनों मुसकरा देती हैं और मेज पर रखे टिफिन के सामने खाना खाने को बैठ जाती हैं.

खाते हुए प्रिया ने कहा, “दीपा, सचसच बता, तू हमेशा मुझे सब्जी खिलाने से मना क्यों कर देती है जबकि परांठे और अचार के लिए तू कभी मना नहीं करती? तुझे किसी का जूठा खाना पसंद नहीं, तो अलग से भी तो दे सकती है.”

दीपा खामोशी से कौर चबाते प्रिया को देखती रही लेकिन बोली कुछ नहीं.

प्रिया फिर बोली, “और आज यह नया टिफिन क्यों?”

दीपा ने अब भी कोई जवाब नहीं दिया.

प्रिया (अब खीझ कर) बोली, “बता न.”

दीपा गहरी सांस ले कर शांत स्वर में बोली, “सचमुच जानना है?”

प्रिया ने कहा, “हां.”

दीपा ने कहा, “पता नहीं तुझे कैसा लगेगा इस के पीछे की वजह जान कर. लेकिन सुन, चौथी क्लास में मैं ने पड़ोस में रहने व साथ पढ़ने वाली एक लड़की को अपने साथ खाना खिला लिया था. वह लड़की उस समय मेरी बहुत अच्छी दोस्त थी. हम बचपन में साथ खेले, साथ पढ़े थे. एक दिन वह अपना टिफिन लाना भूल गई तो मैं ने उसे अपने साथ लंच करवा लिया. यह बात जब उस के घर वालों को पता चली तो उसे बहुत डांट पड़ी और उन लोगों के ताने बातोंबातों से सफर कर हम लोगों तक पहुंचे थे. बहुत बुरा लगा. मेरी मम्मी से भी मुझे डांट मिली. उस के बाद धीरेधीरे हम दोनों के बीच दूरी बनती चली गई जो अब तक कायम हैं .

प्रिया (अचरज से) बोली, “ऐसा क्यों?”

दीपा ने कहा, “क्योंकि वह लड़की ब्राह्मण थी.”

प्रिया ने कहा, “तो?”

दीपा बोली, “मैं धानक हूं.”

प्रिया (हलका चौंक कर) बोली, “अच्छा.”

दीपा ने कहा, “और तू भी ब्राह्मण है.”

प्रिया ने कहा, “इस से क्या फर्क पड़ता है? मैं ऐसा नहीं सोचती.”

दीपा ने कहा, “तुझे मैं समझती हूं लेकिन तेरे घर वाले? उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगेगा.”

प्रिया बोली, “क्या यार, तू भी. पिछली क्लास में हम ने पढ़ा नहीं था कि अस्पृश्यता, छुआछूत, जातिवाद कानूनी अपराध बोलियां हैं और सामाजिक कुरीतियां भी?”

दीपा ने कहा, “पढ़ा था हम ने, हमारी मम्मियों ने नहीं.”

प्रिया बोली, “अब बदल रहा है यार सब. तू कैसी बातें कर रही है.”

दीपा ने कहा, “हां, मानती हूं यह बात. बहुतकुछ बदला है लेकिन सबकुछ नहीं. तू ही बता हम जैसों के लिए तेरे घर में चाय के कप अलग से रखे हुए हैं न, क्यों?”

दीपा ने सवाल गंभीर आवाज व गहरी निगाह के साथ पूछा था जिस की उम्मीद प्रिया को कतई न थी. वह ऐसे सकपकाई जैसे चोर की चोरी रंगे हाथों पकड़ी गई हो. क्या बोलती वह.

दीपा (प्रिया की आंखों में झांकते हुए) आगे बोली, “प्रिया, मेरी दोस्त, हमारी किताबों में क्या लिखा है, इस से अधिक माने हैं हमारे दिमागों में क्या लिखा है? बातों को रटने की नहीं, समझने की जरूरत होती है. तुझे मैं जानती हूं, समझती हूं. तेरा मन बहुत अच्छा है लेकिन तेरा मन सारे समाज का मन नहीं है. हम लोग अंडे खाते हैं, कभीकभी मांस भी. मुझे पता है कि तू शुद्ध शाकाहारी है, इसलिए तुम्हें मैं अपने घर की सब्जी नहीं खिलाना चाहती क्योंकि हम मांस और सब्जी एक ही कड़ाही में बनाते हैं,” यह कहतेकहते दीपा ने गहरी सांस ली.

प्रिया का सिर चकराने लगा था. समझ नहीं आ रहा था उसे कि वह क्या बोले. कहां सब्जी की बात और कहां यह मुद्दा? उलझ गई वह.

उस ने अजीब सी निगाहों से दीपा से सवाल किया, “तू मांस खाती है?”

दीपा ने कहा, “अब नहीं.”

प्रिया ने पूछा, “मतलब?”

दीपा ने कहा, “पहले खाती थी, अब छोड़ दिया.”

प्रिया ने आगे पूछा, “क्यों?”

दीपा (शरारत से मुसकरा कर) बोली, “तूने कहा था, इसलिए.”

प्रिया हैरत से बोली, “मैं ने… कब…?”

दीपा बोली, “तब जब ‘जैव विविधता एवं संरक्षण’ पाठ पढ़ते हुए तूने मांसाहार पर भावुक होते हुए कहा था, ‘यार, कैसे लोग हैं दुनिया में? अपने स्वाद के लिए मासूम जानवरों का दर्द भी महसूस नहीं करते. संसार में खाने की चीजों की कमी है क्या?’ यह बात लगी मुझे भीतर तक. तब से मैं वैजिटेरियन हूं.”

इतना कह कर दीपा मुसकराई. उस की इस मुसकराहट में प्रिया ने भी साथ दिया.

कुछ देर दोनों खामोश बैठी रहीं, फिर दीपा ने टिफिन खोला और बोली, “अच्छा सुन, खाना खाते हैं. आज तेरे लिए मम्मी से कह कर स्पैशल नई कड़ाही में सब्जी बनवाई है और टिफिन भी नया है. भई, तुम ऊंची जाति वालों का धर्म…” कहतेकहते दीपा की नजर प्रिया पर पड़ी. उस की आंखों में आंसू थे. दीपा घबरा गई, पूछा, “क्या हुआ, प्रिया? अब तो सब्जी का मसला हल हो गया है, यार. तो फिर ये आंसू?”

प्रिया उठी और दीपा के पास आ कर उसे कस कर गले लगा लिया. फिर भर्राए गले से बोली, “बकवास बंद कर अपनी, समझी? तू क्या है, मैं क्या हूं, ये छोटी बातें नहीं सोचती मैं. हम दोस्त हैं, बस. कल भी, आज भी और आगे भी. बात खत्म.

इतना कहकर दोनों ने एकदूजे पर अपनी बांहों की पकड़ और अधिक कस ली और एकदूसरे के कंधे भीगने लगे प्रेमनीर से.

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