अंजलि की शादी को 6 महीने ही हुए थे कि वह कुम्हलाई सी दिखने लगी. उस के चेहरे की रौनक और हंसी कहां गायब हो गई उसे स्वयं पता न चला. ऐसा होना ही था. दरअसल, जब से वह ब्याह कर आई थी उस की स्वतंत्रता पर अंकुश सा लगा दिया गया था. वह जैसी उन्मुक्त थी उसे वैसा नहीं रहने दिया गया. उस के बोलनेहंसने, चलने पर ससुराल की तरफ से बंदिशें लगने लगी थीं.

अंजलि का विवाह हुआ तो 1 महीने तक तो सब ठीक रहा हनीमून, रिश्तेनातों में आनाजाना, मगर उस के बाद शुरू हुआ बंदिशों का दौर, जिस ने उसे तोड़ दिया. आज इस देव का व्रत है तो आज उस का, पति की दीर्घायु के लिए व्रत तो आज स्त्रीमर्यादा का त्योहार. हर दूसरे दिन कोई न कोई व्रतत्योहार, रीतिरिवाज उस की स्वतंत्रता में बाधक बनते गए. उस पर यह पाबंदी कि जींस न पहनो क्योंकि अब तुम शादीशुदा हो. मांग भरो, साड़ी पहनो, सिर ढक कर रखो जैसी बंदिशों से अंजलि जैसे खुले आसमान तले घुट कर रह गई.

दरअसल, व्रतत्योहार, रीतिरिवाज, मर्यादा, संस्कार आदि सब औरत पर शिकंजा कसने के लिए ही बने हैं. इन के जाल में उलझ कर उस की स्वतंत्रता खो जाती है. विवाह होते ही 10 दिन, फिर 1 महीना और उस के बाद 1 साल पूरा होने पर कोई न कोई व्रतत्योहार करवा कर औरत की आजादी को कैदी सी जीवनशैली में बदल दिया जाता है.

बंदिशों में महिलाएं

इन सब से औरत के बोलनेचालने, हंसनेबतियाने, उठनेबैठने, खानेपीने तक अंकुश लगाए जाते हैं और उसे ऐसे नियंत्रित किया जाता है मानो उस का अपना तो वजूद है ही नहीं. औरत को अपनी पसंद के कपड़े पहनने तक की आजादी नहीं रहती है. बहुत से परिवारों में औरत को साड़ी पहनने के लिए मजबूर किया जाता है. इस सब के चलते औरत की अपनी सारी रुचियां और प्रतिभा लुप्त सी हो जाती हैं. बंधेबंधाए ढर्रे पर जीवन चलने लगता है. इन सब बंदिशों को झेलते हुए औरत इन की इतनी आदी हो जाती है कि फिर उसे कुछ करने को तैयार करना कठिन लगने लगता है.

हिंदू समाज भी शुरू से ही पुरुषप्रधान रहा है. किसी न किसी कारण पुरुष परंपराओं, रीतिरिवाजों, रूढि़यों से खुद को बचाते रहे हैं. एक समय था जब पुरुष भी धोतीकुरता पहनते थे. आज सभी पैंटशर्ट पहनते हैं. इस की वजह पुरुष प्रधान समाज पुरुषों का घर से बाहर जा कर पैसा कमाने को बताता है. उन के अनुसार पहली स्वतंत्रता बाहर निकल कर पैसा कमाने से मिलती है, जो आज पुरुषों को तो मिलती है पर औरत को इस का हकदार नहीं माना जाता है.

इसी क्रम से जुड़ते हुए धीरेधीरे सभी क्षेत्रों में पुरुषों की स्वतंत्रता का दायरा बढ़ता जाता है जबकि औरत को शादी के बाद आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनने के लिए घर से नहीं निकलने दिया जाता है. उसे घर के काम करने, बच्चों और बड़ों की देखभाल का जिम्मा दिया जाता है. रातदिन घर में रहने के बावजूद उसे बेरोजगारों  की श्रेणी में गिना जाता है. इसी मानसिकता के चलते आज भी ज्यादातर औरतों की प्राथमिकता घर संभालना ही बन गई है.

योग्यता की कद्र नहीं

कमाने और घर चलाने के लिए हाथ में पैसा रहने के कारण पुरुष अपनी मरजी के काम करने को आजाद रहते हैं, लेकिन औरत को सभी कामों के लिए पुरुष पर निर्भर रहना पड़ता है. पुरुषों पर निर्भरता ही उसे कमजोर करती है. पुरुषवादी सोच को औरत पर थोपने का पुरुषों का यह एक बहुत अच्छा तरीका है.

घर में औरत की योग्यता उस के द्वारा बनाए गए खाने, नाश्ते और घर की साफसफाई से आंकी जाती है. उस में भी कहीं कोई चूक नहीं होनी चाहिए वरना वह औरत ही क्या जो ये सब न कर सके जैसे ताने दिए जाते हैं.

सुरभि की शादी हुई तो वह ग्रैजुएशन कर चुकी थी, साथ ही उस ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स भी किया था. मगर शादी के बाद न तो उस की पढ़ाई का मोल रहा और न ही वह बुटीक खोलने की अपनी चाह को पूरा कर पाई, क्योंकि उस के पति ने इस पर बंदिश लगा दी कि क्या करोगी बुटीक खोल कर. पैसा कमाना है तो वह तो हम कमा ही रहे हैं. हमारे परिवारों में औरतें काम नहीं करतीं.

दरअसल, पुरुषवादी दंभ तले दबे भारतीय समाज में स्त्री की किसी योग्यता की कोईर् कद्र नहीं. उस ने अपने जीवन में अन्य क्षेत्रों में अभी तक क्या हासिल किया है या वह आगे क्या करना चाहती है इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं होता है. पुरुष केवल बातें कर के वाहवाही लूट लेता है, पैसा दे कर अपने दायित्व का निर्वाह समझ लेता है.

शादी से पहले हंसतीखेलती, मौजमस्ती करती लड़की जब ब्याह दी जाती है तो उस की दिनचर्या भी बदल जाती है. यह दिनचर्या ऐसी होती है कि उसे चैन से नहीं बैठने देती है. रोज के व्रतत्योहार और तरहतरह के रीतिरिवाज उस का जीना हराम कर देते हैं. कभी नौदुर्गा के 9 व्रत या पड़वा, कभी अष्टमी, कभी एकादशी, तो कभी गौरीपूजा के नाम पर औरत को भूखे रह कर दिन गुजारना पड़ता है.

व्रत के नाम पर प्रताड़ना

नेहा 3 महीने से प्रैगनैंट थी. एक दिन उस की जेठानी ने उस से कहा, ‘‘नेहा, 2 दिन बाद करवाचौथ का व्रत आ रहा है. पूरा दिन व्रत रखना है. पानी तक नहीं पीना है. यह व्रत अपने पति की दीर्घायु के लिए रखा जाता है.’’

यह सुनते ही नेहा बोली, ‘‘दीदी, यह भी कोई लौजिक हुआ? आप पढ़ीलिखी हो कर भी ऐसी बातें करती हैं?’’

मगर परिवार के दबाव पर नेहा को व्रत रखना पड़ा, जिस का परिणाम यह निकला कि शाम होतेहोते नेहा की तबीयत ऐसी बिगड़ी कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा.

अब जन्माष्टमी के व्रत को ही लें. इसे कृष्ण के जन्म लेने पर रखा जाता है, जबकि किसी के पैदा होने पर भला व्रत रखने का क्या औचित्य है? यदि व्रत घर के सभी सदस्य रखते हैं तो घर में एक उत्सव का सा माहौल बन जाता है. लेकिन उस का खामियाजा भी एक औरत को ही भुगतना पड़ता है. उसे अपने व्रत का निर्वहन करने के साथसाथ खास तरह का खाना भी तैयार करना पड़ता है. इस से उस का काम बढ़ता है.

इसी तरह हरतालिका या तीज का व्रत अत्यंत कठिन होता है. इस व्रत के पहले तो औरतों को घबराहट होने लगती है. वे सोचती हैं कि किसी तरह यह व्रत अच्छी तरह निकल जाए.

इस व्रत का महत्त्व भी पुरुष के लिए है. औरतें इसे अपने सुहाग की सलामती के लिए रखती हैं. इसे एक बार रख लिया तो फिर जीवन भर रखना अनिवार्य हो जाता है. भूखीप्यासी रहने के कारण शाम होतेहोते ज्यादातर औरतें सिरदर्द और कमजोरी के कारण बिस्तर पकड़ लेती हैं. तब भी उन्हें घर के कार्यों के लिए जबरन उठना पड़ता है.

दोहरी जिम्मेदारी

इसी तरह त्योहारों पर कुछ खास व्यंजन बनाने अनिवार्य कर दिए जाते हैं. उन के बनाए बिना त्योहार की पूर्णता नहीं मानी जाती है. होली पर गुझिया, जन्माष्टमी पर पाग, संकट चौथ पर तिल के लड्डू, गणेश चौथ पर बेसन के लड्डू, रक्षाबंधन पर सेंवइयों की खीर यानी अलगअलग त्योहार पर अलगअलग व्यंजन बनाने में औरतों को ही खटना पड़ता.

इस सब के अलावा प्रत्येक अवसर पर घर की साफसफाई का जिम्मा भी औरतों पर ही होता है. घर में रहते सब हैं पर उसे व्यवस्थित रखने में औरतों को ही खटना पड़ता है, क्योंकि अतिथि खासकर पुरुषप्रधान समाज के नुमाइंदे औरत की खातिरदारी को परखने के साथसाथ घर की साजसज्जा के आधार पर भी उसे आंकते हैं.

सामाजिक मकड़जाल

व्रतत्योहारों के अलावा औरतों को श्राद्घ पक्ष या पितृ पक्ष के समय भी सांस लेने की फुरसत नहीं होती है. यहां भी औरत को ब्राह्मणों को खिलाने के लिए तरहतरह का खाना बनाना पड़ता है और भी न जाने कितने रिश्तेदारों को आमंत्रित किया जाता है.

वैसे किसी की मृत्यु पर तेरहवीं, बरसी या चौबरसी पर हलवाई खाना बनाता है पर श्राद्घों में बाजार से कुछ मंगवाने पर आपत्ति जताई जाती है यानी यहां औरतों को ही पिसना पड़ता है. बीमार होने पर भी औरत को खाना बनाना पड़ता है. पुरुष कतई मदद नहीं करते हैं, क्योंकि उन्होंने ये काम तो औरतों के लिए ही तय किए हैं.

औरत के जीवन का यही सच है. स्वतंत्रता न होने के कारण पुरुषप्रधान समाज के बुने गए इन जालों में उलझे हुए ही वह अपना जीवन बिता देती हैं. 

– अमिता चतुर्वेदी

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