‘‘क्या बात है, इतनी ङ्क्षचतातुर क्यों लग रही हो?’’ शाम को घर में दाखिल होते हुए अनिमेष ने स्मिता से पूछा.

‘‘इस लडक़ी ने मुझे परेशान कर दिया है. इस के पीछे इतना चिल्लाती हूं कि पूरा मोहल्ला मुझे पागल समझता है, लेकिन मजाल है जो इस के कानों पर जंू रेंग जाए.’’ स्मिता का क्रोध फूट पड़ा. पत्नी का इशारा किस ओर था, अनिमेेष समझ चुके थे. अब ज्यादा पूछताछ से कोर्ई लाभ नहीं होने वाला था. अत: वे थकान का बहाना बनाते हुए वाशरूम में घुस गए. ‘‘मैं जानती थी अपनी लाड़ली का नाम सुनते ही तुम्हारा मौन व्रत शुरू हो जाएगा. तुम्हारी ही शह पाकर वो और मट्ठर होती जा रही है.’’ स्मिता भुनभुनाने लगी.

हाल में बैठे अनिमेष के हाथ में न्यूजपेपर देख कर स्मिता समझ गई कि वे उस की बात को टालने की कोशिश कर रहे हैं. अत: वो भी गुस्से में बिना कुछ बोले टेबल पर चाय का कप पटक रसोईघर में वापस आ गई.

वो जानती थी, अनिमेष सब कुछ सुन सकते हैं लेकिन बेटी के खिलाफ एक  शब्द भी नहीं. पर वो ये क्यों नहीं समझते, वो भी तो उस की मां है कोई दुश्मन नहीं. अगर वो कुछ कह रही है तो कम से कम ध्यान से पूरी बात तो सुनें. जरूरत से ज्यादा लाड़प्यार बच्चों को बिगाडक़र रख देता है और फिर ईशा तो उन की इकलौती औलाद है. अगर उस के कदम गलत दिशा में बहक गए तो क्या होगा? ये सोच के ही स्मिता घबरा जाती थी.

वैसे भी आजकल माहौल इतना खराब है कि मांबाप के सिखाये संस्कार बच्चों को नौटंकी लगते है. वो तो टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट से अपनेआप सब कुछ सीखते हैं. उन के दोस्त, यार ही उन के सब से बड़े हितैषी और सलाहकार होते हैं, जिन से दिनभर फेसबुक और व्हाट्सऐप पर चैङ्क्षटग होती रहती है. ऐसा लगता है जैसे मांबाप की जरूरत सिर्फ जन्म देने तक सिमट कर रह गई है.

ईशा भी तो आजकल उस की किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेती है. जब छोटी थी तो उस के बगैर एक पल भी नहीं चाहती थी. पर आजकल अपने दोस्तों और मोबाइल में ही बिजी रहती है. पढ़ाई पर भी पूरा ध्यान नहीं देती. और जब कुछ समझाने चलो, तो तुनक जाती है. क्या मां जब देखो तब सिखाती रहती हो, अब मैं बच्ची नहीं हूं, अपना अच्छाबुरा सब समझती हूं. अनिमेष से कुछ कहो तो वे भी बेटी का पक्ष ही लेते हैं. कहते हैं आजकल के बच्चे सेल्फ मोटिवेटेड और बहुत टैलेंटेड होते हैं. उन के मांबाप बन कर नहीं बल्कि दोस्त बनकर रहना सीखो, तभी उन से तालमेल बैठा पाओगी.

ये कोई बात हुई, मांबाप मांबाप न रहकर बच्चों के दोस्त बन जाएं. यानी मांबाप का रिश्ता सिरे से खलास. एक छोटे से कस्बे से ताल्लुक रखने वाली सीधी सरल महिला स्मिता को पति का ये तर्क बेमानी लगता. वो अपनी बेटी को छोटेछोटे डिजाइनर कपड़ों में देख कर ही असहज हो जाया करती. अनिमेष एक मल्टीनेशनल कंपनी में सेल्स मैनेजर की पोस्ट पर थे. वे दकियानूसी सोच से परे एक आधुनिक इंसान थे, जो अपनी बेटी को खुले आकाश में स्वछंद उड़ान भरते देखना चाहते थे. वो उसे पढ़ालिखा कर इस योग्य बनाना चाहते थे कि वो अपनी स्वयं की पहचान बना सके तथा अपनी ङ्क्षजदगी के निर्णय खुद ले सके.

बापबेटी की ये मौर्डन विचारधारा स्मिता के पल्ले न पड़ती थी. वो इस इतना चाहती थी कि ईशा सलीके से कपड़े पहने, उस से तमीज से बात करे और अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे, चीजों की केयर करना और उन्हें व्यवस्थित रखना सीखे. इधर पापा की लाड़ली उन की शह पा कर थोड़ी ढीठ और मनमौजी हो चुकी थी. नतीजतन वो मां को कुछ समझती ही नहीं थी. न ही वो किसी काम से पहले मां की राय लेना जरूरी समझती और न ही कहीं जाने से पहले उन्हें कुछ बताना. उस का सामान और कमरा भी हमेशा बिखरा डला रहता था. वो पहले तो अपनी चीजें संभालकर नहीं रखती फिर जब जरूरत पड़ती तो पूरा घर सर पर उठा लेती. इन बातों पर स्मिता को बहुत गुस्सा आता था. लेकिन जब भी वो उसे समझाने की कोशिश करती ईशा बिफर उठती. इन बातों पर अक्सर मांबेटी के बीच जबरदस्त कहासुनी हो जाती, फलत: स्मिता का मुंह फूल जाता लेकिन ईशा के चेहरे पर एक शिकन भी न होती.

आज दोपहर भी यही हुआ था कालेज से आई ईशा ने अपना बैग एक तरफ फेंका, और बिना कपड़े बदले, बिना हाथमुंह धोए मोबाइल लेकर पलंग पर औंधे मुंह जा पड़ी. कुछ देर तो स्मिता देखती रही पर आखिरकार उसे टोकना पड़ा, ‘‘ईशा पहले कपड़े तो बदल लेती.’’

‘‘हां मां, थोड़ा रुको न.’’ लापरवाही से ईशा ने जवाब दिया.

‘‘ये चैट बाद में भी तो हो सकती है. पहले हाथ मुंहधो कर कुछ खा लो.’’

‘‘क्या मां सारा मजा किरकिरा कर देती हो. कह तो दिया कि जा रही हूं. थोड़ी देर में, मगर आप तो जब देखो तब पीछे पड़ जाती हो. वैसे भी आपने कोई पिज्जा, बर्गर नहीं बनाया होगा. वही बोङ्क्षरग दालचावल सब्जीरोटी…और तो कुछ आता ही नहीं है बनाना. दूसरों की मम्मी को देखो क्याक्या मस्त चीजें बनाती है.’’ ईशा झल्ला उठी और बाथरूम में घुस कर भड़ाक से दरवाजा बंद कर लिया.

‘‘हांहां मुझे कुछ टेस्टी बनाना नहीं आता, क्यों नहीं दोस्तों के घर ही जा कर खा लेती हो. कम से कम मां के हाथ का बोङ्क्षरग खाना तो नहीं खाना पड़ेगा.’’ स्मिता को भी गुस्सा आ गया. अपमानित होने के भाव से उस की आंखें छलक उठीं. बहुत देर तक वो यूं ही बड़बड़ाती रही.

शाम को अनिमेष ने भी जब उस की बात को गंभीरता से नहीं लिया तो उसे बड़ा दुख हुआ. वो बारबार अनिमेष को आगाह करती की इतनी छूट मत दो वरना लडक़ी हाथ से निकल जायेगी. लेकिन अनिमेष को ईशा पर जरूरत से ज्यादा भरोसा था. परेशानी तो तब हुर्ई जब फस्र्ट ईयर की मिड सैम में ईशा को बहुत कम माक्र्स आये. फलत: उस ने अपना रिजल्ट भी घर में नहीं बताया. बाद में उस की सहेली से उस के रिजल्ट का पता चलने पर अनिमेष काफी नाराज हुए.

मगर ईशा ने इस में भी अपनी गलती न मानते हुए इस बात का सारा दोष स्मिता के मत्थे मढ़ दिया ये कहते हुए, ‘‘कि आपकी बारबार की टोकाटोकी की वजह से ही हुआ है ये सब, अब तो खुश हैं आप पापा और मेरे बीच दुश्मनी करा के.’’ इसी तरह स्मिता और ईशा के बीच फासला बढ़ता जा रहा था. स्मिता समझ नहीं पा रही थी कि कैसे इस रिश्ते की कडुवाहट दूर की जाए. पलपल दूर होती बच्ची के अंदर आखिर उस की सांसें भी तो अटकी पड़ी थीं और इधर ईशा मां का प्यार समझने को बिलकुल तैयार न थी.

एक दिन कालेज से आई ईशा अपने कमरे में बेड पर लेटी किसी से मोबाइल पर बातें कर रही थी कि तभी जोर की चीख और गिरने की आवाज सुनाई दी. दौड़ कर कमरे से बाहर निकली तो देखा सीढिय़ों के पास मां बेहोश पड़ी हैं और उन के सर से खून निकल रहा है. पास ही धुले हुए कपड़े बिखरे पड़े थे. शायद ऊपर से धुले कपड़े लाते वक्त स्मिता का पैर सीढिय़ों से फिसला और वो गिर पड़ी.

ईशा को काटो तो खून नहीं. उस ने मां को होश में लाने की कोशिश की मगर कोई हरकत न होती देख वो बुरी तरह घबरा गई. जल्दी से औफिस में पापा को फोन लगाया. अनिमेष ने फौरन ही पास के हास्पिटल में फोन कर वहां से एम्बुलेंस बुलवाई. आननफानन में स्मिता को अस्पताल में भर्ती किया गया. इस पूरे वक्त ईशा ने पलभर भी मां के हाथ को नहीं छोड़ा.

स्मिता को तुरंत आईसीयू में भर्ती कर लिया गया. इतने में अनिमेष भी अस्पताल आ चुके थे. पापा को सामने देख इतनी देर से बंधा हुआ सब्र का बांध आखिर टूट गया. पापा के गले लग कर ईशा फूटफूट कर रो पड़ी. ‘‘ओह्ह पापामम्मी को बचा लो, बहुत खून बह रहा है उन के सर से.’’

‘‘घबराओ मत, तुम तो मेरी बहादुर बेटी हो. देखना मम्मा बिलकुल ठीक हो जाएंगी. अनिमेष ने बेटी को तो बहला दिया परंतु भीतर ही भीतर उन के मन में सैकड़ों तूफान उठ खड़े हुए. स्मिता के बगैर वो जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे. स्मिता मात्र उन की जीवनसंगिनी ही नहीं अपितु उन के जीवन की धुरी थी. जिस के दूर ही कल्पना मात्र से ही वे सिहर उठे.

लगभग दो घंटे ईशा पापा के साथ आईसीयू के बाहर बैठी रही. डाक्टर ने बताया कि स्मिता की हालत अब स्थिर है. कमर व दाहिने पैर में अंदरूनी चोटों के कारण दर्द और सूजन है जो धीरेधीरे ही ठीक होगी. भौंह के पास एक गहरा कट शायद सीढ़ी के कोने से लग गया है. जिस में सातआठ टांके आये हैं. वे अब होश में हैं, आप उन से मिल सकते हैं. पर ज्यादा देर बात नहीं कर सकते क्योंकि मरीज को अभी आराम की सख्त जरूरत है.

ईशा को तेज रोना आ रहा था, पर उस ने अपने ऊपर कंट्रोल किया और मुस्कुराकर मां से मिली. थोड़ी देर मां से मिलकर वो घर चली आई क्योंकि हास्पिटल में मरीज के संग एक व्यक्ति ही अलाऊ था. पर घर के अंदर घुसते ही वहां का सूनापन जैसे उसे काटने लगा. फ्रेश होकर बेमन से उस ने कुछ खाया. बहुत देर तक मां की याद ने उसे सोने न दिया. सच वो कितना परेशान करती है अपनी मां को, जबकि वे दिनभर काम में लगी रहती हैं. वो इतनी बड़ी हो गई कालेज में पढ़ती है, पर घर के कामों में मां की कोई मदद नहीं करवाती उलटे बातबात पर बेवजह उन पर झुंझला उठती है. उन्हें उस वक्त कितना बुरा लगता होगा. उस की गलतियों की फेहरिस्त तो बहुत लंबी है. अगर आज मां को कुछ हो जाता तो…नहीं नहीं. पर मां के खोने का डर उसे रातभर सताता रहा. उस ने मन ही मन कुछ तय किया. देर रात न जाने कब उस की आंख लगी.

पूरे दो दिन बाद अनिमेष की बाहों का सहारा ले कर स्मिता ने धीरेधीरे घर में प्रवेश किया. अस्पताल में जब तक वो रही थी उसे ईशा और घर की ङ्क्षचता खाए जा रही थी. लेकिन घर में कदम रखते ही वो चौंक पड़ी. उस का घर बेहद ही सुरुचिपूर्ण ढंग से व्यवस्थित और साफसुथरा था. ठीक जैसे वो हमेशा रखा करती थी.

तभी हाथ में ट्रे लेकर आई ईशा ने मम्मीपापा को पानी का ग्लास पकड़ाया और वहीं मां के पास बैठ गई. ‘‘कैसी है मेरी रानी बिटिया?’’ बात की शुरूआत स्मिता ने की.

‘‘मम्मा, बिलकुल ठीक हूं मैं, वैसे ये बात तो मुझे आप से पूछनी चाहिए थी.’’ ईशा ने मां के दोनों हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा. ‘‘मम्मा, आप से आज कुछ कहना चाहती हूं मैं. आज तक मैं ने ढ़ेरों गलतियां कीं, पर आप हमेशा बड़ा दिल रख कर मुझे माफ करती रहीं. मैं ने आप को बहुत दुखी किया है और उस के लिए दिल से शॄमदा हूं. आप मुझे माफ कर दोगी न? आप की एबसेंस ने मुझे आप के प्यार और डांट दोनों की वैल्यू समझा दी है.’’ कहते हुए ईशा थोड़ा सा रुकी. ‘‘सच मां, आप विश्वास नहीं करोगी की इस बीच मैं ने आप के हाथ से बने दालचावल, रोटीसब्जी को कितना मिस किया है. अपनी नासमझी के कारण आप को बहुत सताया है मैं ने. पर अब समझ चुकी हूं कि एक बच्चे की ङ्क्षजदगी में मां की क्या अहमियत होती है. अब मैं कभी आप को परेशान नहीं करूंगी, आप दोनों की बात मानूंगी और खूब मन लगाकर पढ़ाई करूंगी. मैं आप की आंखों की नमी नहीं बल्कि आप का गौरव बनना चाहती हूं.’’ कहतेकहते ईशा की आंखें भर आईं.

‘‘ओह्ह मेरी नन्हीं परी आज इतनी बड़ीबड़ी बातें करने लगी. मैं ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि तुम इतने अच्छे से घर को मैनेज करोगी. तुमने तो कमाल कर दिया मेरी बच्ची. मैं ही तुम्हें गलत समझ बैठी, आखिर हो तो तुम मेरी परछाईं.’’ स्मिता ने ईशा के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उस की ओर गर्व भरी नजर डाली.

‘‘हां मम्मा, मैं आप की परछाईं ही हूं.’’ कहकर ईशा मां के गले लग गई.

‘आअई…’’

‘‘सौरी मां, मैं ने आप की चोट दुखा दी.’’ ईशा ने दुखियारा सा चेहरा बना लिया.

‘‘अरे बाबा, मजाक कर रही थी.’’ स्मिता हंस पड़ी.

इधर चुप हो कर देर से मां बेटी की प्यार और मस्तीभरी बातें सुन रहे अनिमेष ने खुशी से छलक आये अपने आंसुओं को धीरे से पोंछ लिया. आज उन्हें भी अपनी गलतियां नजर आ गई थीं और उन्होंने मन ही मन स्मिता की बातों को हल्के में न लेने का फैसला किया. वे आज बड़े खुश थे, मांबेटी के बीच की खाई पटने की कगार पर जो थी.

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