कांग्रेस पार्टी का उत्तर प्रदेश विधानसभा में महिला कैंडिडेट्स को 40 प्रतिशत सीटें देना बड़े बदलाव वाला कदम है. ये महिलाएं जीतें या न, लेकिन देश की राजनीति में यह कदम महिला नेतृत्व को उभारेगा जरूर.
राजनीति में महिलाओं को मजबूत करने के लिए कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में महिलाओं को 40 प्रतिशत टिकट दिए. कांग्रेस ने 160 महिलाओं को विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिए. उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहली बार किसी दल ने महिलाओं को इतनी बड़ी संख्या में टिकट दिए हैं.
दूसरे दलों की महिला नेता भी मानती हैं कि महिला राजनीति की दिशा में यह बड़ा कदम है. समाजवादी पार्टी की महिला नेता पूनम चंद्रा मानती हैं कि प्रियंका गांधी के इस कदम का प्रभाव मौलिक और अत्यंत व्यापक होगा.
कांग्रेस की महिला नेता ममता सक्सेना कहती हैं, ‘‘अब महिलाओं को यह लगने लगा है कि किसी दल में उन के लिए भी जगह है. उन को पिछलग्गू बन कर नहीं रहना पड़ेगा. बड़े नेताओं का रहमोकरम नहीं होगा. कांग्रेस ने घरेलू और समाज के लिए संघर्ष करने वाली महिलाओं को टिकट दिया. मैं खुद हाउसवाइफ हूं. मैं कांग्रेस की राजनीति में हूं. मैं पार्टी के कई पदों की जिम्मेदारी संभाल रही हूं. अब मु झे भी भरोसा है कि हमें भी विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लड़ने का मौका मिल सकेगा.’’
लखनऊ जिले की मोहनलालगंज विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाली ममता चौधरी कहती हैं, ‘‘अगर प्रियंका गांधी ने विधानसभा चुनाव में 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने का काम न किया होता तो हम जैसी साधारण कार्यकर्ता को विधानसभा चुनाव लड़ने का मौका न मिलता.’’
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लखनऊ से ही विधानसभा का चुनाव लड़ीं सदफ जफर कहती हैं, ‘‘महिलाएं सालोंसाल राजनीतिक दलों में कार्यकर्ता के रूप में काम करती थीं. इस के बाद भी जब कट देने का नंबर आता था, राजनीतिक दल कोई न कोई बहाना बना कर महिलाओं को पीछे ढकेल देते थे. 40 प्रतिशत टिकट देने के वादे के बाद अब हर महिला को यह भरोसा हो चला है कि उस की मेहनत जाया नहीं होगी. उसे भी विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ने का हक मिलेगा.’’
सदफ जफर का नाम नागरिकता कानून के विरोध में होने वाले आंदोलनों में प्रमुखता के साथ उभरा था. पूरे प्रदेश में कांग्रेस ने ऐसी महिलाओं को भी टिकट दिया जो किसी न किसी तरह से समाज द्वारा प्रताडि़त की गई थीं. उन्नाव के बहुचर्चित बलात्कार कांड की शिकार लड़की की मां आशा सिंह को भी टिकट दिया गया. कांग्रेस ने इस के जरिए यह संदेश दिया कि हिंसा की शिकार महिलाओं व उन के परिवार के लोगों को मजबूत किया जाएगा, जिस से वे दबंगों का सामना कर सकें. कांग्रेस ने प्रियंका मौर्य, पल्लवी सिंह और वंदना सिंह को ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ अभियान की पोस्टरगर्ल बनाया. टिकट वितरण में हुई दिक्कतों के कारण ये नाराज हो गईं. इन का कद इतना बढ़ गया और इतनी इन की चर्चा हुई कि भाजपा ने इन को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में महिलाएं
उत्तर प्रदेश में 65 सालों में 336 महिलाएं अब तक विधायक बन चुकी हैं. 1957 में जहां केवल 39 महिलाएं चुनाव लड़ीं और 18 जीती थीं, वहीं 2017 में 482 महिलाएं चुनाव लड़ीं और 42 ने जीत दर्ज की. 2022 के विधानसभा चुनाव में सब से अधिक महिलाओं ने चुनाव लड़ा. कांग्रेस द्वारा 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने के बाद अब महिलाओं को राजनीति भाने लगी है.
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1957 से अब तक 65 सालों में प्रदेश में कुल 336 महिलाएं ही विधानसभा चुनाव जीत पाई हैं. महिलाओं को पीछे रखने में मनुवादी सोच का भी बड़ा हाथ है.
मनुवादी सोच का प्रभाव
मनुस्मृति के अनुसार, एक स्त्री को हर उम्र में पुरुष द्वारा संरक्षण दिए जाने की जरूरत होती है. जब वह लड़की होती है तो उस की रक्षा की जिम्मेदारी उस के पिता के ऊपर होती है. विवाह के बाद पति उस की जिम्मेदारी उठाता है. यदि वह विधवा हो जाए तो उस के पुत्र की जिम्मेदारी होती है कि वह उस की रक्षा करे.
कहने के लिए धर्म महिलाओं को देवी का स्थान देता है. उन की पूजा करता है. जबकि असल बातों में पुरुष कभी भी महिला को बराबरी का हक नहीं देता. महिलाओं को जब राजनीति में आरक्षण दिए जाने की बात होती है तो उस को नजरअंदाज किया जाता है.
इस वजह से मुख्यधारा की राजनीति में महिलाएं अलगथलग पड़ जाती हैं. इस का सीधा असर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर पड़ता है. संसद और विधानसभा में महिला मुद्दे दरकिनार कर दिए जाते हैं.
पहली बार साल 1974 में संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठा और सीटों के आरक्षण की बात चली. 48 साल बीत जाने के बाद भी महिला आरक्षण का मुद्दा जस का तस है.
महिला आरक्षण पर टालमटोल
1993 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतीराज में महिलाओं को 33 प्रतिशत का आरक्षण दिया गया. यह व्यवस्था केवल पंचायतों और नगरपालिकाओं तक सीमित रही. 3 वर्षों बाद 1996 में संसद और विधानसभा में महिला आरक्षण दिए जाने के संबंध में महिला आरक्षण विधेयक पहली बार संसद में पेश किया गया. देवगौड़ा सरकार अल्पमत में थी, जिस की वजह से यह विधेयक पास नहीं हो सका. इस का पुरुष नेताओं ने जम कर विरोध किया. साल 1998 में महिला आरक्षण विधेयक दोबारा ‘अटल सरकार’ के समय संसद में पेश हुआ. इस बार भी भारी विरोध के बाद विधेयक पास नहीं हो सका.
साल 2010 में कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक पहली बार राज्यसभा में पास तो हो गया लेकिन लोकसभा में अटक गया. तब से इस की स्थिति यही बनी हुई है. इस से भारत की राजनीति में महिलाओं के प्रवेश का रास्ता कठिन होता जा रहा है. यह विधेयक राज्यसभा से पारित होने के बाद भी तब से लोकसभा में लंबित पड़ा है. पंचायतों में जरूर महिलाओं को 33 फीसदी रिजर्वेशन मिल चुका है.
पुरुषवादी मानसिकता की खामी
भारत की राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण एक गंभीर मुद्दा है. इस की वजह है सक्रिय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 12 प्रतिशत होना. देश की आधी आबादी के हिसाब से महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण न भी मिले तो भी कम से कम 33 प्रतिशत आरक्षण तो मिलना ही चाहिए. पंचायतीराज चुनाव में यह अधिकार मिला हुआ है. इस का असर भी दिख रहा है. महिला आरक्षण की राह में तमाम मुश्किलें हैं. इन में सब से बड़ी बाधा पुरुष मानसिकता है.
विधेयक का विरोध करने वाले नेता हालांकि सीधेसीधे ऐसा नहीं कहते हैं लेकिन वे विधेयक में खामियां बताते हुए इस का विरोध करते हैं. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि दलित और ओबीसी महिलाओं के लिए अलग आरक्षण दिया जाना चाहिए. कुछ नेताओं का मानना है कि आरक्षण से केवल शहरी महिलाओं को फायदा होगा.
दुनिया के दूसरे कई देशों में महिला आरक्षण की व्यवस्था चल रही है. इन में बंगलादेश, जरमनी, आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश तक शामिल हैं. वहां राजनीति में लगभग 40 प्रतिशत महिलाएं हैं. बेल्जियम, मैक्सिको जैसे देशों में भागीदारी लगभग 50 प्रतिशत है. फ्रांस में स्थानीय निकायों से ले कर मुख्य राजनीति में भी महिलाएं काफी ऐक्टिव हैं. पेरिस की लोकल बौडी में महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा हो गया था, जिस पर वहां एतराज उठा था.