कर्नाटक में मुसलिम छात्राओं द्वारा हिजाब पहनने की जिद हजम नहीं होती. हिजाब महिला आजादी की पहचान नहीं हो सकता, बल्कि यह गुलामी को दर्शाता है. हिजाब विवाद की आग एक जिले से निकल कर पूरे राज्य में ही नहीं बल्कि देश के दूसरे राज्यों तक पहुंच चुकी है.
शबनम (बदला हुआ नाम) को जब पहली दफा हिजाब उतार कर फ्रांस में अपने परिवार के साथ घूमनेफिरने का मौका मिला तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह पहली बार अपनी जुल्फों को हवाओं के साथ उड़ते हुए महसूस कर रही थी. हवाओं का स्पर्श उसे रोमांचित कर रहा था. वह पहली बार अपने बालों को अपने हिसाब से स्टाइल कर सकती थी.
आज वह खुद को बहुत स्वतंत्र और खुश महसूस कर रही थी, पर कहीं न कहीं एक डर भी उस के दिल में था. उसे याद था अपनी मातृभूमि में कैसे उसे सिर न ढकने पर पुलिस द्वारा पकड़ लिए जाने का खौफ सताता था. वह एक पल को भी घर के बाहर बाल खोल कर नहीं घूम सकती थी.
शबनम का बचपन और युवावस्था ईरान में बीता जहां महिलाओं को घरों से बाहर हिजाब पहनने के लिए मजबूर किया जाता है. अफगानिस्तान जैसे कई देशों में भी ऐसा ही होता है. वैसे बहुत से मुसलिम देशों की सरकारें महिलाओं को हिजाब पहनने के लिए बाध्य नहीं करती हैं. इस के बावजूद रूढि़वादी परिवार धर्म के नाम पर अपनी बेटियों पर बड़े होने के बाद हिजाब थोपते हैं.
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अरबी में ‘हिजाब’ का अर्थ ‘बाधा’ या ‘विभाजन’ है. इस शब्द का उपयोग उस परिधान के लिए किया जाता है जिस का उपयोग कई मुसलिम महिलाएं शरीयत, इसलामी धार्मिक कानून के तहत शील बनाए रखने के उद्देश्य से सार्वजनिक रूप से अपने सिर को ढकने के लिए करती हैं.
इस के कई रूप हैं. उदाहरण के लिए हिजाब के अलावा नकाब और बुर्का भी इसी के रूप हैं. नकाब में आंखों के ऊपर एक स्लिट होती है ताकि महिला सामने देख सके. उस के बालों के साथ चेहरा भी ढका होता है. केवल आंखें खुली होती हैं. जबकि बुर्के में आंखों के स्थान पर या तो एक खिड़कीनुमा जाली बनी होती है या हलका कपड़ा होता है जिस से आरपार दिख सके. इस के साथ ही पूरे शरीर पर एक बिना फिटिंग वाला लबादा होता है. यह अकसर एक ही रंग का होता है.
हाल ही में 7 मुसलिम बहुल देशों (ट्यूनीशिया, मिस्र, इराक, लेबनान, पाकिस्तान, सऊदी अरब और तुर्की) में मिशिगन विश्वविद्यालय के सामाजिक अनुसंधान संस्थान द्वारा कराए गए एक हालिया सर्वेक्षण में पाया गया कि ज्यादातर मुसलिम लोग पसंद करते हैं कि महिलाएं अपने बालों को पूरी तरह से ढक कर रखें. केवल तुर्की और लेबनान के 4 में से एक से अधिक लोग सोचते हैं कि एक महिला के लिए सार्वजनिक रूप से अपना सिर न ढकना उचित है.
सर्वेक्षण के दौरान ज्यादातर लोगों ने महिलाओं के उस रूप को सही बताया जिस में उन के बाल और कान पूरी तरह से एक सफेद हिजाब से ढके हुए थे. इस में ट्यूनीशिया के 57 फीसदी, मिस्र के 52 फीसदी, तुर्की के 46 फीसदी और इराक के 44 फीसदी लोगों की सोच यही थी. इराक और मिस्र के ज्यादातर लोगों ने महिलाओं के उस रूप को वरीयता दी जिस में उस के बाल और कान काले हिजाब से ढके थे.
पाकिस्तान के ज्यादातर लोगों ने उस नकाब को पसंद किया जिस में महिला की केवल आंखें दिख रही हों. सऊदी अरब के (63 फीसदी) ज्यादातर लोगों ने महिलाओं को नकाब में देखना पसंद किया. जबकि इन से अलग एकतिहाई (32 फीसदी) तुर्क इस दृष्टिकोण को मानते हैं कि एक महिला के लिए सार्वजनिक रूप से अपने बालों को नहीं ढकना स्वीकार्य है. लेबनान में लगभग आधे (49 फीसदी) भी इस बात से सहमत हैं कि एक महिला के लिए बिना सिर ढके सार्वजनिक रूप से उपस्थित होना स्वीकार्य है.
इस बात को ज्यादा समय नहीं हुआ है जब अफगानिस्तान में महिलाओं ने अपने अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाले तालिबान सरकार के नियमों के खिलाफ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया जिस के तहत हिजाब पहनना अनिवार्य है. बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए. कुछ महिलाओं ने प्रतिरोध के संकेत के रूप में अपना बुर्का उतार कर जला दिया. ऐसा ही कुछ अफगानिस्तान में भी हुआ. महिलाओं के प्रदर्शनों की एक लहर चल पड़ी. इधर हमारे देश में मामला उलटा है. यहां खुद मुसलिम महिलाओं द्वारा हिजाब पहनने की पैरवी की जा रही है.
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आज दुनियाभर में लोग जिंदगी आसान करने के तरीके ढूंढ़ रहे हैं, विकास और आधुनिक सोच की धारा बह रही है, नएनए आविष्कार हो रहे हैं, विचारों की क्रांति आ रही है, परंपरागत रूप से चले आ रहे बंधनों व संकीर्णताओं से इंसान आजाद हो रहा है, स्त्रीपुरुष समानता, धार्मिक सहिष्णुता और सब के लिए शिक्षा का चलन बढ़ रहा है, दुनियाभर में लड़कियों व महिलाओं को परदे में रखने वाले परिधानों का लगभग परित्याग किया जा चुका है. हमारे देश में भी घूंघट का चलन कुछ पिछड़े गां?वों तक ही सिमट कर रह गया है. ऐसे में कर्नाटक में मुसलिम छात्राओं द्वारा हिजाब पहनने की जिद हजम नहीं होती. पिछले साल शुरू हुए इस हिजाब विवाद की आग एक जिले से निकल कर देश के दूसरे राज्यों तक पहुंच चुकी है.
देखा जाए तो यह जिद खुद को सदियों पहले के जमाने में धकेलने जैसी है. इसे हम कूपमंडूकता या एक किस्म की धर्मांधता व कट्टरता भी कह सकते हैं. यह स्त्री स्वतंत्रता में बाधक उन कुरीतियों से खुद को जकड़े रखने की सनक जैसा है जिन का मकसद ही महिलाओं को दोयम दर्जे का साबित करना होता है. इस हिजाब या बुर्के की पैरवी खुद लड़कियां करें तो अजीब सा लगता है. खुल कर सांस लेने के बजाय सुरक्षा के नाम पर चेहरा या सिर छिपाने का फैसला कहीं से भी उचित नहीं लगता.
हिजाब को लेकर हल्ला क्यों
हिजाब के लिए प्रोटैस्ट करने वाली कुछ वे लड़कियां भी हैं जिन के सोशल मीडिया अकाउंट में जींस और शौर्ट ड्रैसेस में बहुत सारी तसवीरें भरी पड़ी हैं. वैसी लड़कियां जो चिल करने, घूमनेफिरने या दोस्तों के साथ कहीं जाते समय अगर मौडर्न ड्रैसेस पहनने में कोताही नहीं करतीं तो फिर वे कालेज या स्कूल में हिजाब की अनिवार्यता पर जोर क्यों दे रही हैं. यह बात सम?ा नहीं आती.
आखिर स्त्री हो या पुरुष, हर किसी को आजादी से जीने व आधुनिक समाज में सब के साथ कदम से कदम मिला कर चलने का पूरा हक है. आज के समय में जब हम महिलाओं को चांद पर भेज रहे हैं, देश की बागडोर संभालने की जिम्मेदारी दे रहे हैं, बेटियों को परिवार में बेटे से कहीं ज्यादा प्यार व सुविधाएं दे रहे हैं, ऐसे में यदि हम हिजाब या बुर्के के रूप में घूंघट प्रथा का समर्थन करें तो यह एक तरह से खुद को सालों पीछे ले जाने जैसा है.
सदियों तक भारतीय महिलाएं पुरुषवादी समाज की ज्यादतियों का शिकार रहीं. धर्मगुरुओं ने उन्हें पुरुषों से दब व ढक कर रहने के उपदेश दिए. महिलाओं को दोयम दर्जा दिया गया और उन से उम्मीद की गई कि वे अपना वजूद भूल कर केवल पुरुष वर्ग की दासी की तरह रहें. मुसलिम महिलाओं को भी अपने शौहर की कनीज बन कर रहने की तालीम दी गई. ज्यादातर हक शौहर को दे दिए गए, उन्हें कईकई शादियों की इजाजत के साथ ही जब चाहा बेकुसूर बीवी को तलाक देने का हक भी मिला.
हिंदुओं में भी औरतों को घूंघट प्रथा के जरिए आगे बढ़ने से रोका गया, सती प्रथा उन के जीने के हक को निगल गया, दहेजप्रथा ने उन की कीमत कम कर दी तो बाल विवाह ने बहुत नादान उम्र में ही उन के कदमों को बांध दिया. इन प्रथाओं से लड़ कर वापस अपना वजूद स्थापित करने में महिलाओं ने बहुत कुर्बानियां दीं. सामाजिक क्रांति की लौ जली और तब सालों प्रयास करने के बाद आज महिलाएं फिर से खुद को साबित कर रही हैं. वे अपनी आजादी का जश्न मना रही हैं. ऐसे में हिजाब के नाम पर फिर से उसी घूंघट प्रथा को बड़े नाज के साथ स्वीकारना और उस की पैरवी करना क्या अजीब नहीं है?
जहां तक बात सुरक्षा की है तो उस के लिए स्त्रियों को खुद पर परदे डालने के बजाय अपनी शक्ति और मनोबल बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए. यदि बिना हिजाब या बुर्के के स्त्री को देख कर पुरुषों की नजरें खराब होने का अंदेशा होता हो तो इस के लिए परदादारी के बजाय आंखें मिला कर बात करने और गरदन ऊंची कर चलने का रिवाज अपनाना ज्यादा उचित है. अगर किसी की नजर खराब होती है तो महिला अपनी एक नजर से सामने वाले को सीधा करने का हौसला भी रखती है. अपनी बेटियों को मजबूत बनाना जरूरी है न कि परदे में छिपाना.
स्कूलकालेज में हिजाब से समस्या
गौर करने वाली बात यह है कि यदि हिजाब या बुर्का पहन कर छात्राएं स्कूलकालेज में जाती हैं तो यह वहां के मैनेजमैंट के लिए भी गलत ही होगा. बुर्के के अंदर से यदि कोई छात्रा कुछ अनुचित बात करती है, सहेली से बातें करती है या फिर शोर मचाती है तो टीचर के लिए यह सम?ाना कठिन होगा कि यह शरारत किस ने की. क्लास में डिसिप्लिन के लिए हिजाब बड़ी बाधा है.
यही नहीं, एग्जाम के समय यदि कोई छात्रा चाहे तो हिजाब के अंदर बहुत आराम से कई सारी चिटें छिपा सकती है. नकल करने के लिए वह बड़े आराम से अपने हिजाब की सहायता ले सकती है. एग्जाम के दौरान हिजाब के साथ छात्राओं की चैकिंग आसान नहीं होगी. इसलिए अगर कोई छात्रा हिजाब पहन कर कालेज आती भी है तो उचित यही होगा कि वह कालेज परिसर में आ कर उसे उतार दे.
विवाद की शुरुआत
हिजाब विवाद की शुरुआत हुई देश की राजधानी नई दिल्ली से लगभग 2 हजार किलोमीटर दूर कर्नाटक प्रदेश के उडुपी जिले से. अक्तूबर 2021 में सरकारी पीयू कालेज की कुछ छात्राओं ने हिजाब पहनने की मांग शुरू कर दी. इस के बाद 31 दिसंबर को 6 छात्राओं को हिजाब पहनने के कारण कालेज में नहीं जाने दिया गया. छात्राओं ने कालेज के बाहर प्रदर्शन शुरू कर दिया.
कालेज प्रशासन ने 19 जनवरी, 2022 को छात्राओं, उन के मातापिता और अधिकारियों के साथ बैठक की थी. लेकिन इस बैठक का कोई परिणाम नहीं निकला. 3 फरवरी को पीयू कालेज में हिजाब पहन कर आने वाली छात्राओं को फिर से रोका गया. इस के बाद 5 फरवरी को कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी हिजाब पहन कर स्कूल आने वाली मुसलिम छात्राओं के समर्थन में आ गए.
छात्राओं ने कर्नाटक हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. 5 फरवरी को यूनिफौर्म का आदेश जारी हुआ और राज्य सरकार ने कर्नाटक शिक्षा अधिनियम 1983 की धारा 133(2) लागू कर दी. इस के अनुसार, सभी छात्रछात्राओं के लिए कालेज में तय यूनिफौर्म पहनना अनिवार्य कर दिया गया. यह आदेश सरकारी और निजी दोनों कालेजों पर लागू किया गया.
8 फरवरी को विवाद ने हिंसक रूप ले लिया. कर्नाटक में कई जगहों पर ?ाड़पें हुईं. कई जगहों से पथराव की खबरें भी सामने आईं. शिवमोगा का एक वीडियो सामने आया जिस में एक कालेज छात्र तिरंगे के पोल पर भगवा ?ांडा लगा रहा था. मांड्या में बुर्का पहनी हुई एक लड़की के साथ अभद्रता की गई. इधर उडुपी जिले के एमजीएम कालेज में हिजाब और भगवा की लड़ाई शुरू हो गई. कुछ हिजाब पहने छात्राएं कालेज में आईं. दूसरा पक्ष भगवा पगड़ी और शौल डाल कर कालेज आया.
इस बीच कर्नाटक के शिवमोगा जिले में रात लगभग 9 बजे बजरंग दल के एक 23 साल के कार्यकर्ता की चाकू मार कर हत्या कर दी गई. मारे गए बजरंग दल कार्यकर्ता की पहचान हर्ष नाम के युवक के तौर पर की गई है. घटना के बाद इलाके में स्कूलकालेज बंद कर दिए गए. मृतक के समर्थक सड़कों पर उतर आए और अपना आक्रोश प्रकट किया. कुछ दिनों पहले इस युवक ने सोशल मीडिया पर हिजाब विवाद को ले कर पोस्ट लिखी थी. अपनी इस पोस्ट में युवक ने हिजाब का विरोध किया था और भगवा गमछे का समर्थन किया था.
कर्नाटक में हिजाब विवाद नया नहीं
कर्नाटक में हिजाब पहनने को ले कर विवाद नया नहीं है. यहां 2009 में बंटवाल के एसवीएस कालेज में ऐसा मामला सामने आया था. उस के बाद 2016 में बेल्लारे के डा. शिवराम करांत सरकारी कालेज में भी हिजाब को ले कर विवाद हुआ था. 2018 में भी सैंट एग्नेस कालेज में बवाल हुआ था. उडुपी जैसा विवाद बेल्लारे में भी हुआ था. उस समय कई छात्रों ने हिजाब पर प्रतिबंध लगाने की मांग को ले कर भगवा गमछा पहन कर प्रदर्शन किया था.
फिलहाल हिजाब विवाद का मसला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया. शीर्ष अदालत ने इस मामले में तुरंत सुनवाई से इनकार कर दिया. कोर्ट ने कहा कि मामले की सुनवाई उचित समय पर की जाएगी.
वैसे कर्नाटक एजुकेशन एक्ट के तहत सभी शैक्षिक संस्थानों को अपनी यूनिफौर्म तय करने का अधिकार दिया गया है. शर्त बस, इतनी है कि यूनिफौर्म कोड की घोषणा सत्र शुरू होने से काफी पहले करनी होगी और उस में 5 साल तक बदलाव नहीं होना चाहिए.
हिजाब के पक्ष में दलील
यह दलील दी जा रही है कि यदि हिंदू लड़कियों को बिंदी लगाने से कभी नहीं रोका गया तो फिर मुसलिम लड़कियों को हिजाब या बुर्का पहनने से क्यों रोका जा रहा है, पर यहां सोचने वाली बात यह है कि बिंदी से इंसान का चेहरा नहीं ढकता, यह इंसान की पहचान को नहीं छिपाता. मगर नकाब या बुर्के में लड़की की सिर्फ आंखें नजर आती हैं, इसलिए यह ड्रैस शिक्षण संस्थानों के लिए मान्य नहीं हो सकती. यहां सब बराबर होते हैं और एकदूसरे के साथ मिल कर रहते हैं, साथ में पढ़ते हैं, जीवन में आगे बढ़ने के गुर सीखते हैं. ऐसे में कुछ छात्राएं अगर अलग दिखना चाहें तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता. प्रैक्टिकली देखें तो लड़कियां परिसर में हिजाब पहन सकती हैं लेकिन कक्षाओं में नहीं.
छात्राएं पहले भी कक्षाओं में प्रवेश करने के बाद हिजाब और बुर्का हटाती रही हैं. इसलिए यह कोई बड़ी बात नहीं है. जिन के घर में हिजाब को ले कर ज्यादा सख्ती है उन्हें कोएड कालेज के बजाय किसी वूमन कालेज में दाखिला लेना चाहिए क्योंकि वहां नकाब की जरूरत ही नहीं होगी.
गौर करने की बात यह है कि जिस सऊदी अरब से हिजाब, बुर्का आदि का चलन शुरू हुआ, आज वह देश आधुनिक तौरतरीके अपना रहा है. नए तौरतरीकों के साथ आगे बढ़ रहा है. सिर्फ वही नहीं, बल्कि दुनिया के कई अन्य इसलामिक देशों में भी हिजाब को ले कर कोई सख्त या अनिवार्य प्रावधान नहीं हैं.
आज यह बात सब को सम?ा आने लगी है कि कोई भी समाज स्त्रियों को पीछे रख कर आगे नहीं बढ़ सकता. स्त्रीपुरुष मिल कर, कंधे से कंधा मिला कर चलेंगे तभी उन्नति के पथ पर आगे बढ़ सकेंगे. अफसोस, भारत में कुछ लड़कियां और उन के घर वाले इस बात को सम?ा नहीं पा रहे.
कई देशों में प्रतिबंधित है हिजाब
जहां भारत में कुछ लोग इसलाम की दुहाई दे कर हिजाब की पैरवी करने में लगे हैं वहीं दुनिया के कई मुसलिम देशों में शिक्षण संस्थानों, सरकारी भवनों आदि में हिजाब प्रतिबंधित है. इन देशों ने माना कि महिलाओं पर जबरन पहनावा थोपना सही नहीं है. अपने यहां महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए समानता का माहौल देना सुनिश्चित किया.
मिस्र : मिस्र में पढ़ालिखा तबका हिजाब का विरोध करता है. कई संस्थानों ने अपने स्तर पर हिजाब, नकाब को प्रतिबंधित किया हुआ है और इन प्रतिबंधों को लोगों का समर्थन मिला है.
सऊदी अरब : यहां हिजाब पहनना अनिवार्य नहीं है.
इंडोनेशिया : यहां हिजाब पूरी तरह वैकल्पिक है. जौर्डन में भी ऐसा ही है.
कजाखिस्तान : यहां सितंबर 2017 में कुछ स्कूलों ने हिजाब प्रतिबंधित कर दिया था. इस के खिलाफ अभिभावकों ने अपील की थी लेकिन प्रतिबंध बना रहा. 2018 में सरकार ने नकाब और इस तरह के परिधानों को सार्वजनिक स्थलों पर प्रतिबंधित कर दिया.
सीरिया : विश्वविद्यालयों में चेहरे को ढकने वाले पहनावे पर प्रतिबंध लगा है. हिजाब पर कोई व्यवस्था नहीं है.
कुछ देशों में अनिवार्य
अफगानिस्तान, इराक समेत कुछ देशों में सार्वजनिक स्थान पर महिलाओं के लिए हिजाब, नकाब और बुर्का जैसे परिधान अनिवार्य किए गए हैं. ईरान में भी पिछली सदी के 8वें दशक में हुई इसलामिक क्रांति के बाद से महिलाओं के लिए ढीले कपड़े और हिजाब अनिवार्य हैं. इसलामिक कट्टरपंथी महिलाओं के लिए ऐसे पहनावों की वकालत करते हैं हालांकि इन देशों में भी समयसमय पर इन के विरोध में आंदोलन देखने को मिले हैं.
इस मसले पर गरम होती सियासत और अदालती लड़ाई के बीच फैसला कुछ भी आए लेकिन एक बात तो तय है कि इस मसले को समर्थन वाली जिद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से महिलाओं के सशक्तीकरण को कुंद करने वाली है.
कुछ छात्राएं मानती हैं कि हिजाब उन की धार्मिक पहचान का हिस्सा है, पर क्या जरूरी यह नहीं कि लड़कियों को इस उम्र में हिजाब या धर्म के मुकाबले शिक्षा और कैरियर पर ज्यादा जोर देना चाहिए. लड़कियों को सभी वर्ग के लोगों से दोस्ती करनी चाहिए और एक जैसा रहना चाहिए.