समाज के 2 वर्ग हमेशा से महलनुमा मकानों, घरों से निकले बिना मोटी कमाई करते रहे हैं. राजा और उस के दरबारी, पंडित व धर्म के सौदागर हमेशा ही बिना जमीनी मेहनत के सुख की जिंदगी जीते रहे हैं. राजा कहता रहा कि उस ने या उस के पुरखों ने कभी लड़ाई में भाग लिया था, इस के लिए उसे धूप, आंधी, बर्फ में मेहनत के काम से छूट मिली हुई है. कुछ ऐसी ही बात पंडितपादरीमौलवी कहते रहे कि उन्हें ‘ऊपरवाले’ ने नियुक्त किया है, वे समाज को ‘तथाकथित’ ऊपरवाले तक भलीभांति ले जाएंगे, इसलिए वे घर में बैठ कर खाने के हकदार हैं.

अब इस में एक नया वर्ग घुस गया है टैक सैवी मैनेजरों का, जो वर्क फ्रौम होम के बहाने टैक्नोलौजी का लाभ उठा कर घर बैठेबैठे ठाठ से कमा सकते हैं. जबकि, आमलोग, जिन की संख्या कहीं ज्यादा है, कीड़ेमकोड़ों की तरह जमीन पर, खेतों में, कारखानों में, फौज में, पुलिस में, सेवा क्षेत्रों में मेहनती काम करने को मजबूर हैं. आज पूरी चर्चा वर्क फ्रौम होम की हो रही है. इसी का गुणगान किया जा रहा है.

ये भी पढ़ें- देश में सबसे बड़ी जातिवादी पार्टी

यह उन खास लोगों के लिए किया जा रहा है जिन्हें टैक्नोलौजी के बावजूद फिजिकल मीटिंगों में पहुंचने के लिए घंटों ट्रैफिक में फंसना होता था, मैट्रो या बसों के जरिए दफ्तर पहुंचना होता था. दिन के 24 घंटों में से 6-7 घंटे आनेजाने या दफ्तर में इधर से उधर चलने को मजबूर होना पड़ता था. इस वर्ग के लिए कोविड-19 खास उपहार छोड़ गया है कि हर रोज दफ्तर आने की जरूरत क्या है, घर पर रहो, क्लब में एंजौय करो, रैस्तराओं में खाओपियो, घूमोफिरो और दफ्तर का काम भी करते रहो, कमाई करते रहो. यह ठीक है कि इन लोगों की उत्पादकता घटी नहीं है, उलटे हो सकता है बढ़ गई हो, पर जो भेद व्हाइटकौलर वर्कर और ब्लूकौलर वर्कर में पहले था, अब वह और बढ़ गया है, उन की दूरियां और बढ़ गई हैं.

ये भी पढ़ें- नौकरियों के लिए सवा करोड़ आवेदन आखिर हुए क्यों?

कोविड-19 ने तो कोई भेद नहीं रखा था पर आखिर ऐसा क्या हुआ कि दुनिया की सारी सरकारों ने लौकडाउन थोप दिए लेकिन कारखाने चलते रहने दिए, बिजली आती रही, खानेपीने व पहनने का सामान बनता रहा, मनोरंजन का क्षेत्र सिनेमा से हट कर घर की स्क्रीन पर आ गया, पर चालू रहा.

यह सब इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण हुआ जिसे गतिशील बनाए रखने के लिए कोविड-19 के संपर्क में आ सकने के अंदेशे के बावजूद वर्करों को घरों से निकलना पड़ा. अस्पताल चालू रहे, एंबुलैंस चलीं, एंबुलैंस बनीं, दवा कंपनियों ने वर्करों की सहायता से रातदिन काम किया, फौज ने अपनी ड्यूटी की, पुलिस वाले कदमकदम पर सक्रीय दिखे. फिर, वर्क फ्रौम होम का गुणगान करने वालों में कौन सी ऐसी छूत लगी थी कि वे दफ्तरों में जाते तो उन्हें भयंकर कोविड-19 हो जाता.

यह (वर्क फ्रौम होम) कोई साजिश सा लगने लगा है कि राजाओं और धर्म बेचने वालों की तरह आज के नए हथियार -कंप्यूटर टैक्नोलौजी- वालों ने अपने लिए खास जगह बना ली कि वे आलीशान मकानों में बने रहेंगे जबकि आम लोग सडक़ों की धूल खाते रहेंगे.

ये भी पढ़ें-  परजीवी लोगों की एक नई किस्म वायरस की तरह फैल रही है!

इस प्रकार कहा जा सकता है कि आज परजीवी लोगों की एक नई किस्म वायरस की तरह फैल गई है जो वर्क फ्रौम होम का फायदा उठा रही है और हार्ड वर्क औन रोड्स एंड फ्रैक्ट्रीज को और ज्यादा चूस पा रही है. इतनी गुलामी कामगारों ने इतिहास में पहले कभी नहीं देखी होगी क्योंकि पहले मुखियाओं को मकान जरूर मिलते थे लेकिन प्रकृति की मार उन्हें भी बराबर सहनी पड़ती थी. अब उन की ईजाद, कंप्यूटर टैक्नोलौजी, को इस्तेमाल कर सकने लायक बनाए गए गुलामों की गिनती बढ़ गई है और उन पर काम का बोझ भी.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...