2015 में प्रदर्शित व राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत फिल्मकार श्रीजित मुखर्जी की बंगला फिल्म ‘‘राजकहिनी’’ का हिंदी रीमेक है – बेगम जान. जिसका लेखन व निर्देशन श्रीजित मुखर्जी ने ही किया है. मगर हिंदी फिल्म ‘‘बेगम जान’’ के मुकाबले बंगला फिल्म ‘‘राज कहिनी’’ कई गुनाअच्छी फिल्म कही जाएगी. कड़वा सच यह है कि श्रीजित मुखर्जी ने अपनी ही बेहतरीन बंगला फिल्म का हिंदी रीमेक करते समय फिल्म के निर्माताद्वय महेश भट्ट व मुकेश भट्ट की सलाह पर चलते हुए फिल्म का सत्यानाश कर डाला.

यह फिल्म बंटवारे के दर्द की बनिस्बत भट्ट कैंप के अपने एजेंडे वाली फिल्म बन गयी है. भारत व पाकिस्तान के प्रादुर्भाव के वक्त के इतिहास की अनगिनत कथाएं हैं, जिनसे हर देशवासी वाकिफ नहीं है, मगर उन कहानियों को सही परिप्रेक्ष्य में पेश करना भी फिल्मकार के लिए बड़ी चुनौती होती है. कम से कम ‘बेगम जान’ तो इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती है. फिल्म का मुद्दा तो इतिहास के पन्ने को सामने लाने के साथ ही बंटवारे की पीड़ा सिर्फ आम इंसान ही नहीं बल्कि कोठे वालियों को भी हुई थी, को रेखांकित करना होना चाहिए था, पर यह बात उभरकर नहीं आ पाती है. एक सशक्त कथानक शक्तिशाली रूपक बनने की बजाय बहुत ही ज्यादा सतही कहानी बन जाती है.

यदि श्रीजित मुखर्जी अपनी बंगला फिल्म की ही पटकथा पर अडिग रहते तो ‘‘बेगम जान’’ भी एक यादगार फिल्म बनती. मर्दों की दुनिया में औरत अपने दम पर जीना व मरना जानती है, यह बात भी उतनी प्रमुखता से उभर नहीं पाती, जितनी प्रमुखता के साथ उभरनी चाहिए थी. फिल्म में औरत के अस्तित्व को लेकर कुछ अच्छे सवाल जरुर उठाए गए हैं.

फिल्म शुरू होती है वर्तमान से. दिल्ली के कनाट पैलेस क्षेत्र से रात के वक्त गुजर रही बस में एक प्रेमी जोड़ा बैठा हुआ है. कुछ दूर चलने पर कई युवा लड़के बस में चढ़ते हैं और लड़की से झेड़झाड़ करने लगते हैं. बस बीच सड़क पर रुक जाती है. लड़की बस से उतर कर भागती है. कुछ लड़के उस लड़की के पीछे भागते हैं, आगे उन लड़कों के सामने एक बुढ़िया खड़ी हो जाती है, जिसके पीछे वह लड़की है. बुढ़िया उन लड़कोंके सामने अपने वस्त्र निकालती है. लड़के भाग जाते हैं.

उसके बाद फिल्म शुरू होती है 1947 की पृष्ठभूमि में. पंजाब के एक गांव से बाहर बने बेगम जान (विद्या बालन) के कोठे से. बेगम जान पर वहां के राजा (नसिरूद्दीन शाह) का वरदहस्त है. बेगम जान किसी से नहीं डरती. उनका अपना कानून है. स्थानीय पुलिस प्रशासन व स्थानीय पुलिस दरोगा श्याम (राजेश शर्मा) भी उससे कांपते हैं. बेगम जान के कोठे पर एक बूढ़ी अम्मा (इला अरूण) के अलावा रूबीना (गौहर खान),गुलाबो (पल्लवी  शारदा), जमीला (प्रियंका सेटिया), अंबा (रिद्धिमा तिवारी), मैना (फ्लोरा सैनी), लता (रवीजा चौहाण), रानी (पूनम राजपूत), शबनम (मिष्टी), लाड़ली (ग्रेसी गोस्वामी) लड़कियां कोठेवाली के रूप में रहती हैं. बेगम जान का दीवाना एक मास्टर हर शुक्रवार को कोठे पर उपहार लेकर आता है. उसने बेगम जान को बता रखा है कि वह एक राजनैतिक पार्टी से जुड़ा हुआ है और समाज सेवक है.

बेगम जान को लगता है कि मास्टर, गुलाबो पर लट्टू है और गुलाबो भी यही समझती है. कोठे पर सुरक्षा की जिम्मेदारी सलीम मिर्जा (सुमित निझवान) पर है, जो कि कभी पुलिस विभाग में था. इन कोठेवालियों का दल्ला सुजीत (पितोबाश त्रिपाठी) है.

अचानक एक दिन अंग्रेज शासक भारत को आजादी देने के साथ ही देशके बंटवारे का ऐलान कर देते हैं. यह आजादी इन कोठेवालियों के लिए भी त्रासदी बनकर आती है. फिल्म में आजादी व हिंदू मुस्लिम आदि पर व्यंग कसते हुए बेगम जान कहती हैं-‘‘एक तवायफ के लिए क्या आजादी…..लाइट बंद सब एक बराबर…’’. मुस्लिम लीग से जुड़े इलियास (रजित कपूर) और भारतीय कांग्रेस से जुड़े श्रीवास्तव (आशीष विद्यार्थी) को भारत पाक सीमा पर तार लगवाने की जिम्मेदारी दी जाती है. पता चलता है कि दो देशों की सीमा रेखा बेगम जान के कोठे के बीच से जाती है. इलियास व श्रीवास्तव पुलिस बल के साथ सरकारी फरमान लेकर बेगम जान के पास पहुंचते हैं कि वह इस जगह को खाली कर दें, बेगम जान कोठा खाली करने से मना कर देती है.

इलियास उन्हे एक माह का समय देकर वापस आ जाते हैं. बेगम जान पहले मास्टर से मदद मांगती है. मास्टर कहता है कि वह पार्टी आलाकमान से बात करेगा. पर एक दिन मास्टर बता देता है कि बेगम जान को कोठा खाली करना पड़ेगा. वह बेगम जान के सामने अपने साथ चलकर घर बसाने का प्रस्ताव रखता है. पर बेगम जान उसे झिड़क देतीहैं, तो मास्टर, गुलाबो को बेगम जान के खिलाफ यह कह कर कर देता है कि बेगम जान उनकी शादी के खिलाफ हैं. इधर बेगम जान, राजा जी से मदद मांगती हैं, पर वह भी मदद करने में खुद को असमर्थ पाते हैं.

उधर श्रीवास्तव, इलियास की इच्छा के विपरीत एक गुंडे कबीर (चंकी पांडे) से मदद मांगता है. पता चलता है कि मास्टर भी उससे मिला हुआ है. कबीर अपने गैंग के लड़कों से बेगम जान को खत्म कराने के लिए गंदी हरकत शुरू करता है. मास्टर, गुलाबो को शादी का झांसा देकर कोठे पर से भगाता है, पर कुछ दूर जाकर उसे दूसरों के हवाले यह कह कर देता है कि कोठे वाली का शौहर नहीं सिर्फ खरीददार होता है. गुलाबो कोपश्चाताप होता है, वह बाद में मास्टर की हत्या कर देती हैं. उधर बेगम जान दस वर्ष की लाड़ली को उसकी मां के साथ भागने पर मजबूर करती है. रास्ते में दरोगा श्याम मिल जाता है, तो लाड़ली उसके सामने अपने कपड़े उतार देती है, दरोगा को अपनी दस वर्ष की बेटी याद आती है और वह उन्हे बाइज्जत जाने के लिए राह देता है. इधर कोठे की कुछ लड़कियां कबीर के लड़कों से लड़ते हुए मारी जाती हैं. बेगम जान व चार लड़कियां, अम्मा के साथ ही जलते हुए कोठे के अंदर खुद को बंद कर जल जाती हैं.

फिल्म में कभी रजिया सुल्तान, तो कभी मीरा की प्रेम कहानी सुनाने वाली अम्मा अंत में पद्मावती के जौहर की कहानी सुनाती हैं. बेगम जान व उसके कोठे की लड़कियों के साथ जो अमानवीय व्यवहार होता है,उससे इलियास परेशान हो जाता है, पर श्रीवास्तव खुश है.

फिल्म ‘‘बेगम जान’’ में सभी बेहतरीन कलाकार हैं. बेगम जान के किरदार में विद्या बालन ने बेहतरीन परफार्मेंस देने की कोशिश की है,यदि लेखक व पटकथा लेखक ने उनके किरदार को और अधिक दमदार बनाया होता, तो विद्या बालन उसे ज्यादा बेहतर ढंग से अंजाम दे पाती. फिल्म में नसिरूद्दीन शाह की प्रतिभा को जाया किया गया है. यह बात समझ से परे है कि नसिरूद्दीन शाह ने यह फिल्म क्या सोचकर की. कबीर के किरदार को चंकी पांडे ने जिस तरह से निभाया है, वह लंबे समय तक याद किया जाएगा. रजित कपूर के अलावा कोठे वाली के किरदार में हर अभिनेत्री ने अच्छा अभिनय किया है.

फिल्म की पटकथा की अपनी कुछ कमियां हैं. आशीष विद्यार्थी और रजित कपूर के बीच जो संवाद है, वह महज दो धर्म ही नहीं बल्कि इंसानों में विभाजन को चौड़ा करने की ही बात करते हैं. फिल्मकार ने सारा दोष हिंदूओं पर मढ़ने का प्रयास किया है, अब यह जानबूझकर किया गया है या उस वक्त के इतिहास में इसका कोई साक्ष्य मौजूद है,इसका जवाब तो श्रीजित मुखर्जी और महेश भट्ट ही दे सकते हैं. जहां तक इतिहास की बात है, तो 1947 में देश का बंटवारा पश्चिमी पाकिस्तान,भारत और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में हुआ था, फिल्म में इस बात का जिक्र नहीं है, फिल्म में भारत व पाकिस्तान की बात की गयी है.

फिल्म के क्लायमेक्स को देखकरयह बात दिमाग में आती है कि यदि फिल्मकार व पटकथा लेखक ने समझदारी से इस विषय को उठाया होता, तो फिल्म में यह बात बेहतर ढंग से उभरकर आ सकती थी कि आप लोगों को अपने जोखिम के साथ विभाजित कर सकते हैं, पर इससे आपको कोई स्थायी लाभ नहीं मिलने वाला. मगर यहां भी फिल्मकार पूर्णरूपेण असफल ही रहते हैं.

फिल्म के संवाद महज दमदार ही नही हैं, बल्कि समाज पर तमाचा भी जड़ते हैं. फिल्म कहीं कहीं श्याम बेनेगल की फिल्म ‘‘मंडी’’ की याद दिलाती है. फिल्म के कैमरामैन बधाई के पात्र हैं. फिल्म का गीत संगीत फिल्म के कथानक के साथ चलता है.

दो घंटे 15 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘बेगम जान’’ का निर्माण‘‘विशेष फिल्मस’’ और ‘प्ले इंटरटेनमेंट’ ने किया है. लेखक व निर्देशक श्रीजित मुखर्जी, संवाद लेखक कौसर मुनीर, संगीतकार अनु मलिक व खय्याम, कैमरामैन गोपी भगत तथा फिल्म को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं- विद्या बालन, नसिरूद्दीन शाह, आशीष विद्यार्थी, रजित कपूर, गौहर खान, रिद्धिमा तिवारी, इला अरूण, पल्लवी शारदा,प्रियंका सेटिया, फ्लोरा सैनी, रवीजा चौहाण, पूनम राजपूत, मिष्टी, ग्रेसी गोस्वामी, पितोबास त्रिपाठी, सुमित निझवान, चंकी पांडे, विवेक मुश्रान, राजेश शर्मा व अन्य.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...