चुनाव का सीधा मतलब अब कोई न कोई लोभ या प्रलोभन हो गया है. लगभग सभी राजनीतिक पार्टीयां मतदाताओं को लुभाने का प्रयास कर रही है और यह सीधा सीधा लाभ नकद रुपए  और अन्य संसाधन का है जिसे सारा देश देख रहा है और संवैधानिक संस्थाएं तक असहाय स्थिति में दिखाई दे रही है, कुछ नहीं कर पा रही है.

क्या हमारे संविधान में कोई ऐसा प्रावधान है कि राजनीतिक दल देश के मतदाताओं को किसी भी हद तक लुभाने के लिए स्वतंत्र हैं? और मतदाता अपना विवेक गिरवी रख कर के अपने मत को ऐसे राजनेताओं को बेच देंगे जो सत्तासीन होकर 5 साल उन्हें भूला बैठते हैं क्या यह उचित है कि चुनाव जीतने के लिए लैपटॉप, स्कूटी, मोबाइल, रुपए पैसे दिए जाना आवश्यक हो, क्या अब विकास का मुद्दा पीछे रह गया है. क्या देश की अन्य महत्वपूर्ण मसले पीछे रह गए हैं कि हमारे नेताओं को रुपए पैसे का लाली पॉप मतदाताओं को देना अनिवार्य हो गया है या फिर यह सब गैरकानूनी है.

अब देश के उच्चतम न्यायालय ने इस मसले पर एक्शन ले लिया है और अब देखना यह है कि आगे आगे होता है क्या, क्या रुपए पैसे का लोभ लालच पर अंकुश लग जाएगा या फिर  और बढ़ता चला जाएगा यह प्रश्न आज हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है.

विगत 25 जनवरी को उच्चतम न्यायालय  ने कहा है-” चुनाव में राजनीतिक दलों के मुफ्त सुविधाएं देने के वादे करना एक गंभीर मुद्दा है.”

प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण, न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने इस मामले को लेकर देश में चुनाव संपन्न कराने वाली संवैधानिक संस्था “चुनाव आयोग” और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर दिया है.

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चुनाव में “माले मुफ्त दिल ए बेरहम”जैसी हरकतें कर रहे राजनीतिक दलों  की मान्यता रद्द करने की मांग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पीठ ने यह कदम उठाया. इसके बाद अब यह बहुत कुछ संभव है कि आने वाले समय में कोई निर्णायक परिणाम सामने आ जाए.

आपको यह बताते चलें कि सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति रमण ने कहा- ‘अदालत जानना चाहती है कि इसे कानूनी रूप से कैसे नियंत्रित किया जाए. क्या ऐसा इन चुनावों के दौरान किया जा सकता है? या इसे अगले चुनाव के लिए किया जाए.निश्चित ही यह एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि मुफ्त बजट तो नियमित बजट से भी तेज है.”

दरअसल,देश की चुनाव व्यवस्था और राजनीतिक दलों की मुफ्त घोषणाओं पर यह सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण और गंभीर तंज है.

 रहस्यमय निंद्रा में चुनाव आयोग

लंबे समय से देश में चुनाव आयोग मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही घोषणाओं पर एक तरह से चुप्पी साथ कर बैठा हुआ है. लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव उसे निष्पक्ष संपन्न करवाने की जिम्मेदारी देश के संविधान ने चुनाव आयोग को सौंपी है और यह चुनाव आयोग  केंद्र सरकार की मुट्ठी में रहा है. ऐसे में राजनीतिक दलों के द्वारा किए जा रहे असंसदीय व्यवहार और कानून की दृष्टि से गलत सलत व्यवहार को देखते हुए भी  अनदेखा करता रहा है. अन्यथा लगभग 40 वर्ष पूर्व शुरू हुए मतदाताओं को लुभाने के प्रयासों पर प्रारंभ में ही अंकुश लगाया जा सकता था.

दक्षिण के बड़े नेता अन्नादुरई ने बहुत सस्ते में मतदाताओं को चावल देने की घोषणा के साथ यह चुनावी प्रलोभन की यात्रा शुरू हुई है, जिसके बाद एन टी रामाराव ने आंध्र प्रदेश में इसे आगे बढ़ाया.

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वर्तमान में उत्तर प्रदेश चुनाव में जो अपने सबाब पर है अखिलेश यादव ने मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा दी है अगर हमारी सरकार आई तो हम यह देंगे वह देंगे इसी तरह कांग्रेस की चुनाव कमान संभालने वाली प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी उत्तर प्रदेश चुनाव में मतदाताओं को कांग्रेस की सरकार बनने पर बहुत कुछ फ्री में देने का ऐलान कर दिया है.

पंजाब में कांग्रेस के नवजोत सिंह सिद्धू ने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और फ्री में बहुत कुछ देने की योजनाएं जारी कर दी हैं. अब यह रोग देश भर में महारोग बन चुका है. यही कारण है कि उच्चतम न्यायालय ने इसे गंभीरता से लिया है.

आपको यह बताते चलें कि चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के साथ एक बैठक कर उनसे उनके विचार जानना चाहा था और फिर यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया था.

उच्चतम न्यायालय में मतदाताओं को प्रलोभन वाली यह याचिका भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की है. याचिका में कहा गया है कि राजनीतिक दलों के चुनाव के समय मुफ्त चीजें देने की घोषणाएं मतदाताओं को अनुचित रूप से प्रभावित करती हैं. इससे चुनाव प्रक्रिया भी प्रभावित होती है और यह निष्पक्ष चुनाव के लिए ठीक नहीं है.

पीठ ने सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के सुब्रह्मण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार मामले के एक पुराने फैसले का भी उल्लेख किया. उसमें अदालत ने कहा था कि चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादों को जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण के रूप में नहीं माना जा सकता है. इस बारे में अदालत ने चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों के परामर्श से आदर्श आचार संहिता में शामिल करने की सलाह दी थी. याचिकाकर्ता की तरफ से वरिष्ठ वकील  ने दलील दी कि इस मामले में केंद्र सरकार से हलफनामा तलब करना चाहिए. राजनीतिक दल किसके पैसे के बल पर रेवड़ियां बांटने के वादे कर रहे हैं.  राजनीतिक दल मुफ्त उपहार की पेशकश कर रहे हैं.हर पार्टी एक ही काम कर रही है. इस पर न्यायमूर्ति रमण ने उन्हें टोका और पूछा कि अगर हर पार्टी एक ही काम कर रही है तो आपने अपने हलफनामे में केवल दो पार्टियों का ही नाम क्यों लिया है. जवाब में वकील साहब ने कहा कि वे पार्टी का नाम नहीं लेना चाहते. पीठ में शामिल न्यायमूर्ति हिमा कोहली ने उनसे पूछा कि आपके बयानों में काफी कुछ स्पष्ट है. याचिकाकर्ता के वकील का सुझाव था कि इस तरह की गतिविधि में लिप्त पार्टी को मान्यता नहीं देनी चाहिए.

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अब देखिए आगे क्या होता है क्या उच्चतम न्यायालय यह इस कदम से देश में आने वाले चुनाव में लोभ प्रलोभन का खेल बंद होगा या फिर यह बढ़ता ही चला जाएगा.

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