जमीनों की मिल्कीयत के लेकर किस तरह लोगों को कानून पर भरोसा नहीं, भीड़ और हिंसा पर है और किस तरह अदालतों की देरी बेगुनाहों को ङ्क्षजदगी भर जेलों में बंद रख सकती है, इस के उदाहरण देश के हर गांव कस्बे में मिल जाएंगे. यहां जमीन पर या मकान पर कब्जा कानून और उस के पुलिस वाले हाथ नहीं दिलाते, दावेदारों की जुटाई भीड़ दिलाती हैं और चाहे जान चली जाए और चाहे हम कितने ही नारे लगाते रहें कि अदालतों पर हमें भरोसा है, असल में भरोसा तो अपनी खुद ही लाठियों, डंडों, लोहे की रौड़ों, कुल्हाडिय़ों, फारसों, मालों से लैस भीड़ पर होता है जो 2-3 को मार कर कब्जा दिलाती है.

यह पक्का है जब भी भीड़ किसी को मार डालती है तो मरने वालो के घरवाले  तो सदा के लिए मिल्कीयत को भूल जाते हैं, मारने वालों में भी कुछ महिनों, सालों जेलों में रहते है और भीड़ का मकसद कानून की मशीनरी में पिस ही नहीं जाता, पड़ेपड़े उस में घुन लग जाता है और चीटियां और चूहे उसे खा जाते हैं.

असल के एक घंटे गांव बागबर में मकान को ले कर एक झगड़ा शुरू हुआ तो एक गुट ने 15-20 को जमा कर मकान बनाने वाले के घर पर हमला कर दिया. बचने के लिए एक मकान में छिपा पर भीड़ ने उसे ढूंढ लिया और मार कर ब्रह्मïपुत्र में लाश को बहा डाला. मिल्कीयत का सवाल खत्म हो गया? नहीं मुकदमा तो बनेगा ही. पुलिस आई और 32 को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. पहला फैसला 17 साल बाद सेशन कोर्ट ने 2015 में दिया. 32 सजाएं मिलीं. जिन्हें सजा मिली उन्होंने हाई कोर्ट में अपील की जिस ने कुछ को छोड़ दिया और कुछ की सजा जारी रखी.

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उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की जहां एक को छोड़ कर बाकी सबको दरखास्त नामंजूर कर दी गई. जिस का मामला सुना गया उस का कहना था कि वह तो बस उस घर के बराबर में रहता था जहां मारने वाला छिपा था और उस ने डर के मारे बता दिया कि भाग कर आया जना वहां छिपा है. भीड़ ने उसे मारा जिस में वह शामिल नहीं था. 2021 दिसंबर में सुप्रीम कोर्ट ने उसे रिहा कर दिया. 23 साल बाद कि वह मारने वालों में शामित नहीं था चाहे उस ने बता दिया कि मरने वाला कहां छिपा है.

सवाल अदालती फैसले पर नहीं है, सवाल है कि हम कैसे कह सकते हैं कि देश में कानून का राज चलता है जब न्याय पाने के लिए 23 साल इंतजार करना पड़ता है? हम कैसे देश में रह रहे हैं जहां मिल्कीयत के मसले पर से ज्यादा की भीड़ जमा की जा सकती है और बेरहमी से एक जने को मार कर बजाए दफनाने के लाश को नदी में बहा दिया जाता है. हम किस मंदिर मसजिद की बात कर रहे हैं जब सैंकड़ों साल पुराने धर्म हम से इतनी मानवीयता की बूंदें भी पिला सकते कि यह मसला आपस में तय कर सकें या आम अदालत में जा कर करें. वहां भी देर लगती पर कोई मरता तो नहीं, जेल तो नहीं जाता?

यह कैसा देश है जहां नेताओं को वोटों की तो पड़ी रहती है पर जनता के दुखों की ङ्क्षचता नहीं है. न दड़बों से चूहों से रह रहे लोगों की फिक्र है न जेलों में सड़ रहे उन लोगों की जिन के अपराध साबित नहीं हुए? हम कैसे कह सकते हैं कि हमें संविधान पर गर्व है जो हमें हक नहीं देता, हमें धर्म पर गर्व है जो हमें आदमी नहीं बनाता. कानून और धर्म दोनों बेहद पैसा खाते हैं. पुलिस और वकील एक तरफ, पंडे, पादरी, मुल्ला दूसरी तरफ. आम जनता उन्हीं का गुणगान करती पीढ़ी दर पीढ़ी हैरानपरेशान होती, नारेबाजी के सिवा कुछ नहीं कर पाती.

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