सार्वजनिक कार्यक्रमों में दर्शकों के बीच अपने समर्थकों की भीड़ देख कर भाजपाई लोग तार्किक, अंधविश्वास व पाखंड का भंडाफोड़ करने वालों को कौर्नर करने के लिए अकसर यह राग गाने लगते हैं कि, बस, शुरू करने से पहले ‘भारत माता की जय’, ‘जय श्रीराम’ या ‘वंदेमातरम’ बोलिए. आमतौर पर विषय को तो भूल जाया जाता है और बहस इन नारों पर होने लग जाती है. कुछ चतुर समझदारों ने भाजपाइयों की इस ओछी हरकत का तोड़ निकाल लिया है कि आप पहले ‘गोडसे मुर्दाबाद’ तो बोलिए. इस पर भाजपाई असमंजस में पड़ जाते हैं क्योंकि उन की एक पीढ़ी को समझा दिया गया है कि नाथूराम गोडसे ने मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या कर के एक शुभ काम किया था.
‘भारत माता की जय’, ‘जय श्रीराम’ या ‘वंदेमातरम’ न भारत के प्रति राष्ट्रभक्ति के नारे हैं न ये यह सिद्ध करते हैं कि बोलने वाला जनता की मन के अनुरूप चल रहा है. ये नारे तो इंग्लैंड, अमेरिका में वहां की नागरिकता लिए और भारतीय नागरिकता छोड़ चुके भारतीय मूल के लोगों की सभाओं में भी लगते हैं. भारत का मां कहना या राम को पूजनीय मानना किसी भी तरह से यह सिद्ध नहीं करता कि पब्लिक फीगर देश हित में काम कर रही है. ये नारे तो गुंडे टाइप लोग दाढ़ी-टोपी वालों को मारमार कर लगवाते हैं जो पूरी तरह भारत के नागरिक हैं और उन का दूरदूर तक पाकिस्तान या बंगलादेश से कोई लेनादेना नहीं है.
ये नारे असल में गुंडागर्दी के बहाने बन गए हैं. ये ‘हेल हिटलर’ की तरह के से हैं जिस ने करोड़ों लोगों को द्वितीय विश्वयुद्ध में बेबात में मरवा डाला और यहूदियों की एक पूरी कौम को समाप्त करने का फाइनल सोल्यूशन बना डाला था. उन यहूदियों का अब अपना देश इसराईल बिना ???………??? के भी पश्चिम एशिया का समृद्ध देश है जबकि इन के साथ जरमनी, पोलैंड, आस्ट्रिया आदि में 1940 से 1945 तक वैसा ही व्यवहार किया गया था जैसा भारत में इन नारों के सहारे एक धर्म विशेष के लोगों के साथ किया जा रहा है.
नारों से देश नहीं बना करते. नारों से कानून व्यवस्था नहीं सुधरती. नारों से सामाजिक परिवर्तन नहीं होते. नारे भीड़ को जुटाने के लिए और तर्क व वास्तविकता से ध्यान हटाने के लिए लगाए जाते हैं. ‘जीत कर रहेंगे’, ‘हम एक हैं’, ‘मजदूर एकता जिंदाबाद’ जैसे नारों से भी किसी का भला नहीं हुआ. ‘जय श्रीराम’ कहने से तथाकथित कल्पित रामराज नहीं आ जाएगा. वैसे भी, रामराज में क्या कुछ ठीक भी था, इस में ही बहुत संदेह है. देश की प्रगति और सामाजिक विसंगतियों के लिए देश की राजनीति, कानून व प्रशासनिक व्यवस्था सुधारी जानी चाहिए जो नारों से नहीं सुधरेगी.
सुबह ‘राधेराधे’ कहलवा कर, असल में, अपनी रोजीरोटी पक्का करना पाखंड का व्यापार करने वालों का काम है. नारे लगा कर 2-4 शब्दों के बोल दोहरा कर सैकड़ों व्यापारी ग्राहकों को आकर्षित करते हैं और सामन बेचते हैं. नारों का यह विवाद उसी कड़ी में है कि मेरा माल अच्छा है, तुम भी इसी का नारा लगाओ. मुसीबत तब आती है जब दूसरे देशों के लोग इन नारों से बिना डरे हकीकत की बात करने लगते हैं. संयुक्त राष्ट्र की कितनी ही संस्थाएं, कितने ही विदेशी अखबार, कितनी ही विश्वभर में फैली जनमत जमा करने वाली संस्थाएं इन नारे लगाने वालों की पोल खोलती हैं तो ये तिलमिला जाते हैं क्योंकि वे मंच भाजपाइयों/पाखंडियों के समर्थकों के नहीं होते.