Romantic story : अनूप मुझे झंझोड़ कर जगा रहे थे और मैं पसीनापसीना हो रही थी. आज फिर वही सपना आया था. मीलों दूर तक फैला पानी, बीचोबीच एक खंडहर और उस खंडित इमारत में पत्थर का एक बुत… मैं हमेशा खुद को उस बुत के सामने खड़ा पाती हूं. मेरे देखते ही देखते वह बुत अपनी पत्थर की पलकें झपका कर एकदम आंखें खोल देता है।
आंखों से चिनगारियां फूटने लगती हैं, फिर वह लपट बन कर मेरी ओर आती हैं, एक अट्टहास के साथ… मैं पलटती हूं और वह हंसी एक सिसकी में बदल जाती है. मैं बाहर भागती हूं, पानी में हाथपैर मारती हूं, तैरने की कोशिश करती हूं, आंख, नाक कान सब में पानी भर जाता है और दम घुटने लगता है. मैं डूबने लगती हूं और फिर अचानक नींद खुल जाती है.
“क्या हुआ? कोई डरावना सपना देखा?” अनूप की आवाज कहीं दूर से आती प्रतीत हुई. मेरी आंखें अपनेआप मूंदने लगीं.
“मम्मा, आज सोशल साइंस की परीक्षा है,” 6 बजे ऋचा मुझे जगा रही थी. वैसे तो रोज स्कूल के लिए इसे जगाने में मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ती है, पर परीक्षा के समय बिटिया कुछ ज्यादा समझदार हो जाती है. इस की यही समझदारी मुझे निश्चिंत करने के बजाय आशंकित कर देती है. बरसों से गहरे दफन किया हुआ राज धीरेधीरे दिलदिमाग पर जमी मिट्टी खोद कर उस के खूंख्वार पंजे बाहर निकालने लगता है. मैं सिर झटक कर उठ बैठी, सब विचारों और सपने के भय को परे हटा किचन में घुस गई.
ऋचा स्कूल और अनूप औफिस जा चुके थे. बेटे ऋत्विक के रूम में जा कर देखा, महाशय जमीन पर सो रहे थे और बैड पर किताबें पसरी पड़ी थीं. उस के बेतरतीब रूम को देख कर मन फिर पुरानी गलियों में बेतरतीब भटकने लगा.
“बेटा, यह क्या है, परीक्षा का मतलब यह तो नहीं कि किताबें पूरे कमरे में बिखर जाएं…” मां अकसर मुझे डांटा करती थीं, मगर मुझ पर कोई असर नहीं होता था. परीक्षा के दिनों में एक जनून सवार हो जाता था, मुझे खूब पढ़ना है और प्रथम आना है. पहली कक्षा से ले कर 10वीं तक हमेशा स्कूल में प्रथम आई थी. 11वीं कक्षा में एक नई लड़की ने प्रवेश लिया.
“श्वेता, यह मेधा है, नया ऐडमिशन हुआ है, तुम क्लास टौपर हो, इस की मदद कर देना, पिछले नोट्स दे कर…” मैडम ने मेरा परिचय करवाया. मैं दर्प से भर उठी. उस से दोस्ती भी हुई, मदद भी की…धीरेधीरे जाना कि वह मुझ से ज्यादा होशियार थी. मैं तो सिर्फ पढ़ाई में टौपर थी, पर वह हर गतिविधि में भाग भी लेती और पुरस्कार भी प्राप्त करती.
इस वर्ष मेरा मन पढ़ाई में कुछ कम लगने लगा था. मेधा से प्रतिस्पर्धा के चलते वह मेरे दिमाग में रहने लगी, इस के विपरीत मेधा मुझे दिल में उतारती जा रही थी. हम दोनों की दोस्ती उसे खुशी और मुझे तनाव दे रही थी. फिर वही हुआ, जिस का डर था, मेधा प्रथम और मैं कक्षा में पहली बार द्वितीय आई थी.
“मम्मी, नाश्ता लगा दो…” ऋत्विक की आवाज मुझे फिर वर्तमान में ले आई.
“कितने बजे सोया था?” मैं ने खुद को अतीत से बाहर लाने के लिए पूछा.
ऋत्विक ने क्या कहा और टेबल पर नाश्ते की प्लेट और सूप का कटोरा कब खाली हुआ, मैं नहीं जान पाई. मेरा मन तो बरसों पहले मेरी जिंदगी के खालीपन को टटोलने चला गया फिर से…
“श्वेता, तू 1 नंबर और ले आती यार या मेरा 1 नंबर कम आता तो हम दोनों के मार्क्स इक्वल होते…” मेधा की आवाज को अनसुना कर मैं खुद पर गुस्सा हो रही थी कि 2 नंबर का सवाल सही किया होता तो मैं हमेशा की तरह प्रथम आती.
यही तो अंतर था उस में और मुझ में… वह जितना मुझे अपना दोस्त समझती, मैं उस में अपने दुश्मन का अक्स देखती. उस के प्रति मेरी ईर्ष्या बढ़ती जा रही थी. जीवन के सारे रंग अपने में समेटे समय भी आगे बढ़ रहा था.
स्कूल के आखिरी वर्ष में हम हमेशा स्कूल ट्रिप पर शहर से दूर जाते थे. इस बार भी गए थे. वह एक पहाड़ की तराई में बसा गांव था… बहुत बड़ी नदी और उस में बीचोबीच बना एक टापूनुमा किले जैसा था, जहां स्टीमर से जाया जाता था. वह स्थान काफी बड़ा था. मैं वहां विचर ही रही थी कि कौलबेल ने तंद्रा तोड़ दी.
“मम्मा, आज का पेपर भी बहुत अच्छा हुआ। अब बस 2 महीने की छुट्टी… भैया की पेपर्स के बाद हम घूमने चल रहे हैं न?”
“हां बेटा, इस बार डैडी ने साउथ घूमने का प्लान बनाया है, भैया की इंजीनियरिंग पूरी होने पर वह पता नहीं कहां जाएगा और अब 2 साल तू भी स्कूल और कोचिंग के बीच चकरघिन्नी बन कर घूमेगी… इस साल के बाद पता नहीं कब कहां जाना होगा…”
ऐग्जाम से फ्री ऋचा सहेलियों के साथ घूमने चली गई, बेटा पढ़ने में मशगूल और मैं फिर सोच में डूब गई. ऋचा भी मेरी तरह हमेशा प्रथम आती है। गतिविधियों में भी उस के पुरस्कार मुझे मेधा की याद दिला देते और मेरे मन में एक आशंका पैर पसारने लगती. मेरा दिल ऋचा को मेरी या मेधा की जगह देखना नहीं चाहता, मगर दिमाग कोई तीसरी जगह तलाश ही नहीं कर पा रहा था.
उस दिन स्कूल ट्रिप से मैं बहुत बड़ा बोझ ले कर लौटी थी, इतना बड़ा कि उसे ढोतेढोते मैं मरमर कर जी रही हूं. बोझ भी और खालीपन भी… कभीकभी दिल का बोझ और दिमाग का खालीपन मुझे बेचैन कर देता है. ऋचा की 10वीं की परीक्षा खत्म होना और आज फिर उस सपने का आना… मैं घबरा गई. अच्छा हुआ अनूप आ गए और मुझे सोच से बाहर आने में मदद मिली. इन्हें कैसे पता चल जाता है कि मैं गहरे गड्ढे में गिरने वाली हूं और एकदम आ कर हाथ खींच लेते हैं.
अगला महीना सफर की तैयारी में बीत गया. मैं ने दिल और दिमाग को इतना व्यस्त रखा कि कुछ और सोचा ही नहीं. हमारा टूअर काफी अच्छा चल रहा था. ऋचा और ऋत्विक अपने नए अनुभव सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे थे और अनूप भी उन के साथ पूरे मनोयोग से जुड़ कर चर्चा में हमेशा की तरह शामिल थे… बस मैं ही बारबार अतीत में पहुंच जाती थी.
कन्याकुमारी के विवेकानंद रौक मैमोरियल पहुंच कर तो मैं स्तब्ध रह गई.
“साल 1892 में विवेकानंद कन्याकुमारी आए थे. वे तैर कर इस विशाल शिला पर पहुंचे और इस निर्जन स्थान पर उन्हें जीवन का लक्ष्य एवं लक्ष्य प्राप्ति हेतु कुदरती मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था…” अनूप बोल रहे थे. मुझे उस मूर्ति की आंखों से निकलती चिनगारियां दिख रही थीं.
“इस के कुछ समय बाद ही वे शिकागो सम्मेलन में भाग लेने गए थे और वहां भारत का नाम ऊंचा किया था. उन के अमर संदेशों को साकार रूप देने के लिए ही 1970 में इस विशाल शिला पर भव्य स्मृति भवन का निर्माण किया गया…”
मुझे वे चिनगारियां लपटों में बदलती दिख रही थीं. मैं फिर पानी में डूब रही थी…
“यह शोर कैसा है?”
“किसी ने मेधा को देखा?” टीचर की आवाज आई।
“हां मैम, वह नदी में उस मूर्ति के पीछे जा रही थी… ” मेरा दिल बोलना चाह रहा था, पर दिमाग रोक रहा था।
“पागल है क्या, उस से बदला लेने का मौका मिल रहा है, होने दे परेशान उसे…”
दिमाग जीत गया था और मेधा जिंदगी हार गई थी।
“मेधा…” मेरी आवाज से ऋचा चौंक गई, “डैडी, मम्मी को क्या हुआ?”
मोबाइल बज रहा था… मुझे अनूप ने फिर गढ्ढे में से बाहर निकाल लिया.
“मम्मा, मेरा रिजल्ट आ गया, मैं इस बार थर्ड पोजीशन पर हूं. 93% आया है…” ऋचा खुश थी.
“अरे वाह, अब तो यहीं पार्टी करेंगे,” ऋत्विक और अनूप चहक रहे थे.
मैं ने मूर्ति की ओर देखा… उस का चेहरा मुसकराता लगा.
“मम्मा, मेधा कौन है?”
“मेरी पक्की सहेली थी. हमारे स्कूल ट्रिप में एक नदी में ऐसी ही मूर्ति के पीछे पानी में डूब गई थी। और….” यह कहतेकहते मैं फूटफूट कर रो पड़ी। बरसों से जमा मेरा अपराधभाव धीरेधीरे पिघल रहा था।
‘वह एक दुर्घटना थी,’ दिल ने कहा.
लेकिन दिमाग को मैं ने सोचने ही नहीं दिया.
ऋचा का मोबाइल फिर बजा, “पलका, तुझे फर्स्ट आने की बधाई… और मैं अभी कन्याकुमारी में हूं। 2 दिन बाद लौटूंगी, तब पार्टी करते हैं, चल बाई…”
“बेटा, परीक्षा की मैरिट को कभी भी सहेलियों के बीच मत आने देना…”
“हां मम्मा, मुझे पता है…”
ऋचा की थर्ड पोजीशन आज मुझे असीम राहत दे गई.
मूर्ति की आंखों में कोई आग नहीं थी, उस के चेहरे में मेधा का चेहरा नजर आया… उस की मुसकराहट मानों मुझे माफी दे रही थी. बरसों से मेरे मन के तहखाने में कैद वे लम्हे पिघल कर मानो बूंदबूंद बह रहे थे।
लेखिका : डा. वंदना गुप्ता