लेखक-देवेंद्रराज सुथार
‘मौताणा’ राजस्थान के आदिवासी समुदाय के बीच प्रचलित प्रथा है जो अब वसूली करने की कुप्रथा बन कर रह गई है. कुछ वर्षों से देखने में आया है कि यह प्रथा अब जबरन वसूली का तंत्र बन गई है. पिछले दिनों राजस्थान के उदयपुर जिले के आदिवासीबहुल क्षेत्र कोटड़ा में शराब पीने से रोकने पर पत्नी की गोली मार कर की गई हत्या के मामले में पुलिस द्वारा कराए गए 10 लाख रुपए के मौताणा समझौते के बाद मृतका का अंतिम संस्कार हो पाया. डूंगरपुर जिले में युवक की हत्या के बाद उस का शव 20 घंटे तक मोर्चरी में पड़ा रहा. पोस्टमार्टम के बाद जब पुलिस ने शव को अंतिम संस्कार के लिए परिजनों को सौंपा तो वे मोलभाव करने लगे. पुलिस परिजनों को समझाने का प्रयास करती रही,
लेकिन वे नहीं माने. आखिरकार, 5 अगस्त की शाम को पुलिस की मौजूदगी में दोनों पक्षों के बीच 4 लाख रुपए में शव का निबटारा कर दिया गया. राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में लगातार ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिन में बेवजह मौत का जिम्मेदार ठहरा कर मौत की रकम वसूल की जा रही है. मंडवाल में वृद्ध रणछा 23 अगस्त की दोपहर करीब 2 बजे अपने घर पैदल जा रहा था. रास्ते में बदमाशों ने उसे रोक कर 20 साल पुराने मामले में मौताणे की मांग करते हुए मारपीट की. साथ ही, जबरन बाइक पर बैठा कर जान से मारने की धमकी देते हुए अपहरण कर लिया. इधर, आबूरोड समीपवर्ती आवल गांव में डामरो की फली में धर्माराम पुत्र भूराराम गरासिया ने अपनी पत्नी काली गरासिया के साथ लाठियों से मारपीट की, जिस से उस की मौत हो गई. हत्या के बाद आरोपी पति फरार हो गया. मृतका के पीहर व ससुराल पक्ष के बीच मौताणे की मांग को ले कर पंचायती का दौर शुरू हो गया. पुलिस की मौजूदगी में ससुराल व पीहर पक्ष के बीच पंचायती चलती रही, जिस से मृतका का 2 दिन तक अंतिम संस्कार अटका रहा. दरअसल, ‘मौताणा’ का मतलब ‘मौत’ पर ‘आणा’ यानी रुपए. शव का सौदा करने की इस प्रथा का इतिहास सदियों पुराना है. प्राचीन जमाने में कोई कानून तो था नहीं. तब दक्षिणी राजस्थान में अरावली पर्वत शृंखला से सटे उदयपुर, बांसवाड़ा, सिरोही व पाली जिले के आदिवासियों में अस्वाभाविक या अप्राकृतिक मौत होने पर उस के लिए जिम्मेदार व्यक्ति से मौताणा वसूलने की प्रथा शुरू हुई.
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देश की आजादी के 75 साल बाद भी उदयपुर के आदिवासीबहुल क्षेत्र खेरवाड़ा, झाडोल, कोटड़ा, गिरवा, सलूंबर और निकटवर्ती डूंगरपुर जिले के कुछ हिस्सों में भील, गरासिया और मीणा जाति में आज भी यह प्रथा कायम है. इस प्रथा के तहत किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर कथित दोषी परिवार के सदस्यों से 20 लाख रुपए तक का मुआवजा वसूल किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, यदि किसी कारणवश गर्भवती महिला की मृत्यु हो जाती है तो महिला के परिजन उस के पति से जुर्माना वसूल सकते हैं क्योंकि गर्भधारण के लिए वह जिम्मेदार है. इस प्रथा में यदि किसी व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति की हत्या कर दी तो वह जेल जाने के बजाय निर्धारित राशि का जुर्माना भर कर स्वतंत्र रूप से घूम सकता है. यदि पंचों द्वारा निर्धारित दंड का भुगतान नहीं किया जाता है तो संभव है कि सामने वाला आप के गांव पर हमला भी कर दे. कई बार ‘करे कोई और भरे कोई’ की तर्ज पर आरोपी के परिजनों को भी जुर्माना भरना पड़ता है. यह प्रथा सामाजिक न्याय के उद्देश्य से शुरू हुई थी, जिस में अगर किसी ने किसी व्यक्ति को मार डाला तो दोषी को सजा के रूप में मुआवजा देना पड़ता था.
लेकिन अब आदिवासी अन्य कारणों से भी मौताणा की मांग करते हैं. वहीं, पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि किसी कारणवश अपनों की मौत का दोष दूसरों पर मढ़ा जा रहा है और जबरन मौताणा वसूल किया जा रहा है. मृत्युराशि न मिलने पर आदिवासी चड़ोतरा करते हैं. इस में सामने वाले के घर को लूट कर आग लगा दी जाती है. चड़ोतरा में दोषी पक्ष पर हमला किया जाता है. दरअसल, जब मृतक के परिवार वाले किसी को दोषी मान कर मौत की राशि देने के लिए मजबूर करते हैं तो आदिवासियों का अपना दरबार होता है जहां पंच अपराधी को स्पष्टीकरण का मौका दिए बिना ही मौताणा भुगतान करने का आदेश जारी करता है. भुखमरी से जूझ रहे आदिवासी परिवारों को लाखों रुपए का मौताणा भुगतान करना पड़ता है, जिस से गरीब आदिवासी बरबाद हो जाते हैं. इन पर न तो पुलिस का और न ही कानून का कोई नियंत्रण है.
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यह प्रथा पूरी तरह पंचायतों के अधीन है. इस प्रथा में विवाद के कारण कई बार अंतिम संस्कार न करने पर शव सड़ भी जाते हैं. आस्था, सेवा, मंदिर सहित कुछ स्थानीय गैरसरकारी संगठनों ने भी इस कुप्रथा पर केस स्टडी की है और राजस्थान वनवासी कल्याण परिषद जैसे संगठन आदिवासियों में जागरूकता पैदा करने के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन वे इस प्रथा को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. कई बार दोनों पक्षों को इस बात पर सहमत होने में इतना समय लग जाता है कि शव कंकाल में तबदील हो जाते हैं. पंचायत प्रावधान अनुसूचित क्षेत्र विस्तार अधिनियम 1996 के तहत आदिवासियों को छोटेमोटे विवादों को पारंपरिक तरीके से निबटाने की अनुमति है लेकिन इस प्रथा के नाम पर हिंसा ठीक नहीं है. कई मामलों में पीडि़त को कुछ मिलता भी नहीं और कई बार पीडि़त मौताणा की मांग भी नहीं करना चाहते, लेकिन वे अपनी जाति के पंचों के आगे स्वयं को बेबस पाते हैं. अब मौताणा किसी विवाहित महिला या पुरुष की अकाल मृत्यु तक सीमित नहीं है. सड़क हादसों में पशुओं की मौत या अस्पताल में बीमारी से मौत जैसे मामलों में भी इस प्रथा की आड़ में जबरन वसूली की जाने लगी है.