`सन्यास में हमने एंट्रेस तो रखा है एक्झिट नही रखा है, उसमें भीतर जा सकते हैं बाहर नहीं आ सकते, और ऐसा स्वर्ग भी नर्क हो जाता है जिसमें बाहर लौटने का दरवाजा न हो, वह परतंत्रता बन जाता है, जेल बन जाता है.कोई सन्यासी लौटना चाहे तो कोई क्या कर सकता है वह लौट सकता है लेकिन आप उसकी निंदा करते हैं अपमान करते हैं कंडेमनेशन है उसके पीछे.

और इसलिए हमने एक तरकीब बना रखी है कि जब कोई सन्यास लेता है तो उसका भारी शोरगुल मचाते हैं, जब कोई सन्यास लेता है तो बहुत बैंडबाजा बजाते हैं,जब कोई सन्यास लेता है तो फूलमालाएं पहनाते हैं और यह उपद्रव का दूसरा हिस्सा है वह उस सन्यासी को पता नहीं है कि अगर कल वह वापस लौटा तो जैसे फूलमालाएं फेंकी गईं वैसे ही पत्थर और जूते भी फेके जायेंगे.और ये ही लोग होंगे फेंकने बाले कोई दूसरा नहीं`.

अपने दौर के मशहूर चिंतक और दर्शनशास्त्री ओशो यानी रजनीश के ये विचार जो कुछ अर्थों में हमेशा प्रासंगिक रहेंगे अगर दमोह के एक जैन मुनि सुद्धांत सागर ने वक्त रहते पढ़ लिए होते तो तय है कि वे बीती 24 अगस्त को दमोह के ही हिंडोरिया थाने में बैठे न तो किसी की शिकायत कर रहे होते और न ही जैन धर्म को धता बताते कपडे पहन गृहस्थ और सांसारिक जीवन में लौटने पुलिस बालों और मीडिया के मोहताज होते.

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जैन मुनि की इस प्रेम कथा में वह सब कुछ है जो आमतौर पर आम प्रेमियों की लव स्टोरी में होता है मसलन आश्रम में रहते इश्वर का छोड़ अपनी प्रेमिका के ध्यान में लींन होकर `एक` हो जाने की सोचना, धार्मिक सिद्धांतों का डर छोड़ देना, दिल में लगातार कुछ कुछ होते रहना, कुछ भी अच्छा न लगना और इन से भी अहम बात किसी की परवाह न करते अपने प्यार को दुनिया के सामने उजागर कर देना.यही आम प्रेम कथाओं में होता है बस आश्रम की जगह घर व समाज गुरु की जगह पेरेंट्स और रिश्तेदारों की जगह दूसरे आश्रमवासी ले लेते हैं जिनकी नजर में प्यार एक संगीन गुनाह हो जाता है क्योंकि यह धर्म और समाज के बनाए भोंथरे उसूलों को तोड़ने की हिम्मत बिना किसी ईश्वरीय प्रेरणा के ले लेता है.

सन्यासी का प्यार –

दमोह का बेलग्राम जैनियों का एक प्रमुख तीर्थ है जहां देश भर के छोटे बड़े जैन मुनि चौमासा करने आते हैं.इनमें से ही एक थे 22 अगस्त को आए 41 वर्षीय मुनि सुद्धांत सागर जिनका असली यानि सन्यास पूर्व का नाम राकेश जैन है तब वे दमोह के टंडन बगीचा में रहा करते थे उनके पिता का नाम मुलायम चन्द्र जैन है.राकेश ने 16 साल की उम्र में ही सन्यास ले लिया था और सन्यासी रहते ही 25 साल जैन धर्म के कड़े सिद्धांतों का पालन करते देश भर में प्रवचन आदि करते रहे.बेलखेड़ा आने से पहले वे कथित रूप से जैनियों के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ शिखर जी में थे जो झारखण्ड के गिरीडीह जिले में है.

24 अगस्त की रात हिंडोरिया थाने में उस वक्त सनसनी मच गई जब सुद्धांत सागर एक महिला जिसका नाम प्रज्ञा दीदी है को लेकर पहुंचे.दोनों बदहबास, परेशांन और घबराये हुए थे.यह एक गैरमामूली बात थी क्योंकि दिगंबर जैन साधु और साध्वियां आमतौर पर रात में अकेले आश्रम से नहीं निकलते और न ही पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते. लेकिन ये दोनों एक एम्बुलेंस में लिफ्ट लेकर आए थे तो थाने में मौजूद पुलिसकर्मियों ने सहज अंदाजा लगा लिया कि जरुर कोई ख़ास बात है.

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यह ख़ास बात अब बजाय सुद्धांत सागर के राकेश जैन ही कहना ही बेहतर होगा की शिकायत से स्पष्ट हुई.बकौल राकेश,बेलाग्राम में प्रज्ञा दीदी नाम की एक महिला सप्ताह भर पहले रहने आई थी.हम दोनों के बीच बातचीत होने लगी.24 अगस्त को प्रज्ञा बड़े मंदिर में बैठकर किसी से फोन पर बात कर रही थी.आश्रम प्रमुख सिद्धांत सागर जिनकी देखरेख में सुद्धांत सागर साधना कर रहे थे को शक हुआ तो उन्होंने प्रज्ञा को आश्रम छोडकर चले जाने को कहा.प्रज्ञा के साथ मारपीट की गई.जब मैंने मारपीट से आचार्य को रोकने की कोशिश की तो मेरे साथ भी मारपीट की गई.साथ ही मौजूद दूसरे लोगों से भी मुझे पीटने को कहा गया.मेरे पिच्छि व कमंडल भी छीन लिए गए.इस पर मैं घबराकर वहां से भाग निकला और रात में ही जननी एक्सप्रेस एम्बुलेंस से लिफ्ट मांगकर थाने पहुंचा.

प्रज्ञा ने और गंभीर आरोप लगाये कि आश्रम में मौजूद कुछ माता और सेवक महिलाएं मुझे प्रताड़ित कर रही थीं मुझे खाना नहीं दिया जा रहा था.मुझ पर मुनि जी ( सुद्धांत सागर ) के साथ गलत संबंधों का आरोप लगाया जा रहा था जबकि हम दोनों के बीच ऐसा कुछ नहीं था हाँ फोन पर जरुर मेरी मुनि महाराज से बात होती रहती थी.

पुलिस बालों ने मामले की गंभीरता को देखते आला अफसरों को फोन खटखटाए फिर चंद मिनिटों में ही बात पूरे देश भर में फ़ैल गई कि 25 साल से सन्यासी जीवन जी रहा एक जैन साधु अपनी शिष्या या महिला मित्र कुछ भी कह लें से शादी कर रहा है.जैन समाज के कर्ता धर्ता कुछ सोच और कर पाते इसके पहले ही सुद्धांत सागर कपडे पहनकर फिर से राकेश जैन बन चुके थे और इत्मीनान से थाने की एक कुर्सी पर बैठे पैर हिलाते कुछ सोच रहे थे.थाने के बाहर जैन समुदाय के लोगों का इकट्ठा होना शुरू हो गया था.

जब अंदरूनी और बाहरी बबंडर मचा और कुछ मीडियाकर्मी कमरे लेकर थाने पहुँच गए तो असिस्टेंट पुलिस अधीक्षक दमोह शिवकुमार सिंह ने उक्त पूरा घटनाक्रम बताते कहा कि रात में सुद्धांत सागर थाने आए थे और उन्होंने पूरा घटनाक्रम बताया था लेकिन साथ ही कोई काररवाई करने और रिपोर्ट लिखाने से मना कर दिया उन्होंने ये बातें लिखित में भी दी हैं.इसके बाद वे कहीं चले गए.

आश्रम या यातना गृह  –

बात एक तरह से आई गई हो गई लेकिन थाने के बाहर मौजूद मीडियाकर्मियों को राकेश और प्रज्ञा ने जो बताया वह दिल दहला देने बाला है क्योंकि इन्ही आश्रमों से सत्य अहिंसा और अपरिग्रह जैसे पाठ भक्तों को प्रतिदिन तोते की तरह रटाये जाते हैं.पत्रकारों को प्रज्ञा ने बताया कि उसे आश्रम की 2 माताजी मारती थीं जब उसने भूख बर्दाश्त न होने पर खाना माँगा तो उसे दुत्कार दिया गया.बाहर से आए भक्तों ने उसे कुछ फल दिए.जब सिद्धांत सागर से उसकी कहासुनी हुई तो उन्होंने उसके सर पर ईंट का टुकड़ा दे मारा जिससे उसके सर में हलकी चोट आई यह चोट उसने पत्रकारों को दिखाई भी जो कि एक वीडियो में कैद है.

प्रज्ञा ने यह भी बताया कि वह आगरा में अपनी माँ से बात कर रही थी तभी आचार्य ने उसका फोन छीन लिया.आश्रम के अन्दर राकेश के झोले से पैसे माता जी निकाले जो हर कभी चोरी करती हैं उनका तो काम यही है.इस से ज्यादा हैरानी की बात यह है कि धन संचय न करने का उपदेश देने बाले जैन साधु संत मुनि खुद आश्रमों में अपने पास नगदी रखते हैं जिसे आश्रम के ही लोग चोरी भी कर लेते हैं.

कपडे पहन सन्यासी जीवन छोड़ने बाले राकेश का कहना था कि इस बाबत उसे समाज के कुछ लोगों और सिद्धांत सागर द्वारा दबाब बनाकर मजबूर किया जा रहा है.जब वह आश्रम से भागा था तब उसने अपने हाथ में ईंट का एक टुकड़ा उठा लिया था ताकि कोई अगर पीछा करे तो बचाब के लिए उसे डरा सके.यानी आश्रम में हिंसा हुई थी और राकेश और प्रज्ञा जैसे `उद्दंड`मुनि व साध्वियों को `सबक` सिखाया जाता है.नहीं तो कोई वजह नहीं थी कि राकेश हाथ में ईंट लेकर भागता.अंदाजा भर लगाया जा सकता है कि इन आश्रमों में सीनियर और दबंग संतों की दादागिरी चलती है जो बकौल प्रज्ञा आश्रम की निगरानी भी करते हैं.

ये वही आश्रम हैं जिनमें दाखिल होते ही भक्तों को खामोख्वाह की अदभुद शांति और इश्वर का भी आभास होता है.ओशो ने सिंगल डोर बाले इन आश्रमों को नर्क वेबजाह नहीं कहा जहां धार्मिक सिद्धांतों और रूढ़ियों के नाम पर घुटन थोपी जाती है यहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता नही होती और साधकों को बतौर सजा भूखा रखने का गुनाह जिसे धर्म की भाषा में पाप कहा जाता है किया जाता है.

साधु संत तो वैसे ही मानसिक गुलाम होते हैं यह गुलामी बनी रहे इस बाबत उन्हें कष्टों और अभावों में रखा जाता है, बाहर की दुनिया से डराया जाता है जिससे कि वे भागने या पलायन की कोशिश न करें.धर्म की दुकानदारी का यह शर्मनाक पहलू देश भर में आए दिन उजागर होता रहता है और आश्रमों की जिन्दगी का सच भी सामने आता रहता है लेकिन चूँकि मामला धर्म का होता है इसलिए एक मुकम्मल ख़ामोशी ओढ़ ली जाती है उलट इसके यही मारपीट और अत्याचार किसी अनाथ आश्रम महिला उद्धार गृह या किसी दूसरे शेल्टर होम में होते हैं तो हल्ला तो मचता ही है साथ ही मानव अधिकारों के हितैषी संगठन और आयोग सर पर संविधान उठाये तुरंत हरकत में आ जाते हैं.

इनका स्वागत होना चाहिए –

राकेश और प्रज्ञा धर्म और सन्यास की घुटन छोडकर अगर प्यार मेहनत और स्वाभिमान की जिन्दगी जीना चाहते हैं तो बजाय उन्हें प्रताड़ित या बहिष्कृत करने के उनका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि वे सुबह के भूले हैं.असल सुख सांसारिक जीवन में ही है जिसमें लोग तमाम सुख भोगते हुए घर समाज और देश के लिए कुछ न कुछ योगदान देते ही हैं. दुःख और परेशानियाँ आयें तो लोग उनका सामना भी एक दूसरे के साथ और सहयोग से कर लेते हैं.

राकेश और प्रज्ञा जैसे लोग सन्यास क्यों लेते हैं अब इससे ज्यादा अहम बात यह हो चली है कि क्यों वे सन्यास छोड़ने उतारू हो आते हैं.धर्म का नशा जब सर चढ़कर बोलता है तो साधकों को लगता है कि वे कीड़े मकोड़ों जैसे बिलबिलाते दुःख भोगते आम भक्तों का साक्षात्कार इश्वर से करा देंगे उन्हें मोक्ष और मुक्ति दिला देंगे.फिर वे कपडे उतारकर दीक्षा लेकर आश्रमों का हिस्सा बन जाते हैं.

आश्रम के अन्दर उन्हें एहसास होता है कि दुःख, प्रतिस्पर्धा, कलह द्वेष और छीना छपटी तो यहाँ भी है और वर्जनाएं भी बहुत हैं कि आप मर्जी से खा पी और सो नहीं सकते, सेक्स सहित जिन्दगी के दूसरे लुत्फ़ नहीं ले सकते और चौबीसों घंटे आप एक्टिंग करने मजबूर रहते हैं.अधिकतर साधु मुनि इस स्थिति से समझौता कर लेते हैं क्योंकि सन्यास शेर की सवारी सरीखा होता है कि आप अगर उतरे तो शेर खा जायेगा.

25 साल ज्ञान बांटने के बाद भी कहीं भगवान् नहीं मिला तो राकेश को प्यार हो आया यही हालत आगरा से आई प्रज्ञा की हो गई थी लेकिन उनकी राह आसान नहीं थी पर यह भी गलत नहीं कहा जाता कि इस दौड़ती भागती दुनिया में मोहब्बत एक बार जिसका दामन थाम लेती है वह इन्सान कुछ भी कर गुजर सकता है.देखा जाये तो एक तरह से इन्हें असल ज्ञान प्राप्त हो गया था कि सुख इन्द्रियों के दमन में नहीं बल्कि उनके उपभोग में है.

दोनों इस रास्ते पर चल पड़े हैं जो कर्मण्यता का है, मेहनत का है, रंगीनियों का है जिम्मेदारियों का है  लेकिन खतरा उन पर से टल गया है ऐसा कहने की कोई वजह नहीं क्योंकि प्रज्ञा को एक माताजी द्वारा धौंस दी गई थी कि थाने में सिद्धांत सागर जी के बारे में मुंह मत खोलना यह बात भी उसने पत्रकारों को बताई थी.असल में इस प्रेम कांड से जैन धर्म की इमेज और दुकान बिगड़ी है जिसे अंधभक्त कितना बर्दाश्त कर पाएंगे यह वक्त बताएगा.

नाम न छापने की शर्त पर दमोह के युवा व्यवसायी का कहना है कि किसी को जबरन साधु या मुनि बनाये रखना एक तर्कसंगत बात नहीं है आमतौर पर जैन धर्म में लोग बहुत कम उम्र में सन्यास ले लेते हैं जब वे सन्यास का अर्थ भी नहीं समझते. वक्त रहते उनकी जरूरतें और जज्बात सर उठाने लगते हैं तो वे कुंठित हो उठते हैं लेकिन तब तक धार्मिक सिद्धांतों से इतने घिर चुके होते हैं कि बाहर आने में डरते हैं और यही डर उन्हें घुटन भरी जिन्दगी जीने मजबूर करता रहता है.मेरी नजर में राकेश और प्रज्ञा ने कुछ गलत नहीं किया हाँ उनके साथ जो हुआ वह जरुर गलत और जैन धर्म के मूलभूत सिद्धांतों के विपरीत था, खैर अंत भला तो सब भला.इस व्यवसायी ने यह भी बताते कि इन दोनों ने शादी कर ली है  शादी के बाद का फोटो भी दिया जिसमें प्रज्ञा मांग भरे और मंगलसूत्र पहने खुश नजर आ रही हैं.

अंत की लिखापढ़ी –

यह अंत यूँ ही भला नहीं हो गया क्योंकि थाने के हंगामें के बाद अगर पुलिस बेलखेड़ा आश्रम पहुँचती तो बहुत कुछ और उजागर होता लेकिन बकौल सुद्धांत सागर उन्हें जैन समाज के कई लोगों ने समझाया था और कपडे पहनने सहमति दी थी.पर डर अब भी था कि कहीं राकेश और प्रज्ञा और मुंह न खोलें  दरअसल में प्रज्ञा का विवाद झारखण्ड में एक और मुनि विशुद्ध सागर से भी हुआ था जिसकी आंच इस आश्रम पर आंच न आए इसलिए दोनों पक्षों में एक लिखित समझौता हुआ था जिसके तहत दोनों एक दूसरे के खिलाफ कोई क़ानूनी काररवाई नहीं करेंगे.यह सुलहनामा प्रज्ञा और झारखण्ड दिगंबर जैन समाज चातुर्मास समिति के बीच 12 अगस्त को हुआ था.असल विवाद क्या था यह किसी को नहीं पता जो शक ही पैदा करता है.

इस समझौते की प्रति उक्त व्यवसायी ने इस प्रतिनिधि को उपलब्ध कराते आग्रह किया कि इसे आप प्रकाशित न करें क्योंकि इससे उसकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगने लगेंगे.इस आग्रह को मानते हुए हम उस कागज को प्रकाशित नहीं कर रहे हैं.मुमकिन है दमोह में भी ऐसा कोई समझौता हुआ हो.

लाख टके का सवाल यह कि जब आश्रम के मुताबिक कोई विवाद था ही नहीं और प्रेमी जोड़े के साथ कोई दुर्व्यवहार किया ही नहीं गया था तो बबंडर किस बात पर मचा.दूसरे सिद्धांत सागर और आश्रम की एक माताजी यह किस आधार पर कह रहे हैं कि राकेश और प्रज्ञा का अफेयर तो तीन साल से चल रहा है और वे शादी भी कर चुके हैं.अगर राकेश को बेलखेड़ा आश्रम आए एक महीना और प्रज्ञा को एक सप्ताह ही हुआ था तो उनके तीन साल के अफेयर का रिकार्ड कहाँ से आश्रम पहुंचा शायद ही कोई दो टूक जबाब इस मामूली से सवाल का भी दे पाए कि क्या आश्रमों में साधकों की जासूसी भी होती है.

सच जो भी हो हमेशा की तरह परदे में ही रहेगा लेकिन सन्यास छोड़ सांसारिक जीवन में आए एक और जैन मुनि मुदित सागर उर्फ़ हुकुम चंद जैन ने कोई दो साल पहले साफ़ साफ़ कहा था कि सन्यास एक तरह का बंधन है, कैद है जिससे उन्होंने आश्रम से भागकर छुटकारा पा लिया.रायपुर के हुकुम चंद जैन ने साल 2007 में सन्यास लिया था और वह गुजरात के जूनागढ़ आश्रम में रह रहा था और वहीँ से भाग गया था.इसकी गुमशुदगी पर देश भर में जैनियों ने खूब हल्ला मचाया था यहाँ तक कि प्रधानमंत्री तक को भी ज्ञापन दिया गया था आशंका अपहरण की थी पर एक दिन नाटकीय तरीके से वह खुद प्रगट हो गया और गृहस्थ जीवन में आने की इच्छा जताकर अटकलों को विराम दे दिया.

हाल यह है कि पढ़े लिखे रईस जैन युवा फेशन के चलते सन्यास ले रहे हैं जिनके सन्यासी बनने पर खूब धूम धडाका किया जाता है मसलन अरबपति की बेटी बनेगी सन्यासिन, एमबीए युवक ने सन्यास लिया बगैरह लेकिन इसके बाद क्या क्या होता है यह राकेश प्रज्ञा और हुकुम चंद जैसे उजागर उदाहरणों से उजागर होता रहता है.सुद्धांत सागर उर्फ़ राकेश जैन ने थाने के बाहर यह भी कहा था कि किसी को भी दिगम्बर मुनि बनने के पहले खूब सोच समझ लेना चाहिए.जाहिर है उनका इशारा उन नारकीय यातनाओं की तरफ था जो उन्होंने अपनी प्रेयसी के साथ भुगती थीं.

कई बार तो मुनियों को बतौर सजा गृहस्थ जीवन में जबरन धकेल दिया जाता है.2 साल पहले  एक जैन मुनि नयन सागर का वीडियों वायरल हुआ था जिसमें वे मुज्जफरपुर के एक आश्रम में हैं.एक शाम एक सुन्दर युवती उनके कमरे में साढ़े सात बजे दाखिल हुई और सुबह छह बजे कमरे से बाहर निकली. यह सब सीसीटीवी कमरे में कैद हुआ तो जैन समाज के लोग तिलमिला उठे और नयन सागर को नश्वर संसार में भेजने का फैसला लिया.

ऐसे कई मामले हैं जो सन्यास और सन्यासियों को कटघरे में खड़ा करते हैं ऐसे में सन्यास एक फिजूल की बात ही लगती है जिसका मकसद है तो धर्म की दुकानदारी ही.

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