दुनिया में लोग अगर सभ्य और खुशहाल हुए हैं तो किसी और वजह से पहले उस की बुनियादी वजह सैक्स है क्योंकि शरीर सुख ने ही लोगों के दिलों में लगाव, प्यार और भावनाएं पैदा की हैं. मशहूर मनोविज्ञानी सिगमंड फ्रायड की इस थ्योरी को आज तक कोई चुनौती नहीं दे पाया है कि सैक्स एक एनर्जी है और जिंदा रहने के लिए बहुत जरूरी है. खाने के बाद की सब से बड़ी जरूरत सहवास केवल संतति आगे बढ़ाने का जरियाभर नहीं है बल्कि एक प्राकृतिक आनंद और उपहार भी है जिस का लुत्फ लोग जब जैसे चाहें, उठा सकते हैं. इस पर रोकटोक हो, तो जिंदगी कुंठित और तनावग्रस्त हो जाती है. क्या आप चाहेंगे कि जब आप अपने पार्टनर के साथ सैक्स कर रहे हों तो कोई आप के सिरहाने खड़ा हो? निश्चितरूप से आप का जवाब न में होगा, क्योंकि यह सोचना ही आप को असहज कर देगा.
यदि सिरहाने खड़ी या बैडरूम में आप की निगरानी कर रही वह अदृश्य चीज ‘कानून’ है तो यकीन मानें, आप सहवास नहीं कर सकते क्योंकि आप ही क्या, कोई भी इन अंतरंग क्षणों पर किसी तरह की पहरेदारी बरदाश्त नहीं कर सकता. लेकिन ऐसा होने वाला है. कानून आप के सैक्स कर्म पर ऐसी बंदिश लगाने वाला है जिसे न तो आप निगल सकेंगे और न ही उगल. जिस जनसंख्या नियंत्रण कानून को आप के इर्दगिर्द एक जाल की तरह बुना व बिछाया जाने वाला है, दरअसल, वह आप के प्राइवेट पार्ट्स पर नियंत्रण की एक साजिश है, औरत की कोख पर सरकारी ताला लगाने की चाल है. इस का संबंध जनसंख्या नियंत्रण से कम, आप की व्यक्तिगत आजादी को गुलामी में तबदील कर देने से ज्यादा है. इस साजिश को बहुत बारीकी से सम झने की जरूरत है कि किस तरह जनसंख्या नियंत्रण की आड़ में सरकार तरहतरह की दलीलें दे कर आप के बैडरूम में कानून का डंडा ले कर दाखिल होने वाली है. जनसंख्या नियंत्रण कानून का फंडा यही है कि कानून आप के सहवास की संख्या पर नहीं, बल्कि उस से होने वाले बच्चों की संख्या पर अंकुश लगाने के लिए है. यानी भोजन के उपवास की तरह आप सहवास का भी उपवास करें, वरना सजा भुगतने को तैयार रहें. सैक्स जितना चाहे करें, पर बच्चे उतने ही हों जितने सरकार तय कर दे.
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यह सैक्स की आजादी छीनने का ऐसा अनूठा तरीका है. सरकार देती क्या है जनसंख्या के निवारण होने पर काल्पनिक खाद्यान्न संकट का सहारा लिया जाता है. इस बाबत सरकार के अपने खोखले तर्क हैं कि भविष्य के लिए ज्यादा से ज्यादा अनाज बचाना उस की जिम्मेदारी है. लेकिन खाने की बात से हर कोई इस पर सहमत होगा कि खाना सरकार नहीं देती है बल्कि आम और खास सभी अपनी मेहनत का खाते हैं. उत्पादन किसान करते हैं. वे तो उन का करते हैं कि इस का निर्यात भरपूर किया जाता है. यह भी दूसरी खैरातों की तरह प्रचारित हथकंडा है कि लोग इतने निकम्मे हैं कि खुद अपना और परिवार का पेट भरने लायक नहीं कमा पाते हैं, इसलिए सरकार को मुफ्त अनाज बांटना पड़ता है. उधर, लोग सम झ ही नहीं पाते कि सरकार उन की मेहनत से पैदा किया गया अनाज उन्हें ही भीख की तरह दे कर उन के सोचनेसम झने की शक्ति को मंद और कुंद कर रही है. वह कुछ नहीं उपजाती है और जो लोग उपजाते हैं वे अपनी मेहनत का सच नहीं सम झ पाते. कोरोना की दूसरी लहर के बाद केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि वह 90 करोड़ लोगों को दीवाली तक 5 किलो अनाज मुफ्त देगी.
किसी ने यह पूछने या सोचने की जहमत नहीं उठाई कि यह अनाज आ कहां से रहा है जबकि हकीकत यह है कि यह अनाज किसानों और मेहनतकश मजदूरों के पसीने से ही पैदा होता है जिसे सरकार अपना घोषित कर देती है और लोग खामोशी से इसे सच मान भी लेते हैं. अमीर यानी करदाता कहते हैं कि यह उन के टैक्स का पैसा है जिसे सरकार बेरहमी से लुटा रही है. अगर हम टैक्स न दें तो लोग भूखों मर जाएं. पेटभर खाना मिलने की शर्त पर जो किसानमजदूर इसे उगाते हैं वे बेचारे तो कुछ बोल ही नहीं पाते कि फिर हमारी जुर्रत क्या. टैक्स तो हर मजदूर भी देता है क्योंकि जब भी वह फैक्ट्री का बना सामान इस्तेमाल करता है उस पर ढेरों टैक्स लगे होते हैं. इस स्थिति को सोशल मीडिया पर वायरल होते एक जोक से बेहतर सम झा जा सकता है. जंगल के राजा शेर ने भेड़ों के लिए ऐलान किया कि सब को एकएक कम्बल मुफ्त दिया जाएगा, तो भेड़ों में खुशी की लहर दौड़ गई और वे नाचनेगाने लगे. तभी एक युवा भेड़ ने सवाल किया, ‘लेकिन कम्बल बनाने के लिए ऊन आएगा कहां से?’ तो सभी भेड़ सकपका उठे. यही हाल मुफ्त अनाज पर हमारे देश का है.
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फर्क इतनाभर है कि कोई युवा यह नहीं पूछ पा रहा कि यह अनाज आया कहां से. टैक्सपेयर शायद ही इस सवाल का जवाब दे पाएं कि मुफ्त की सरकारी योजनाओं में उन का क्या योगदान है और इस से कौन सी उन की तिजोरी खाली हो रही है. माइक्रो और मैक्रो दोनों इकोनौमिक्स घोंटने और खंगालने के बाद भी वे यह साबित नहीं कर पाएंगे कि मुफ्त अनाज दरअसल, अमीरों के टैक्स के पैसे का ही है. बात जहां तक बढ़ती जनसंख्या की है तो इस से उन का क्या बिगड़ रहा है. हकीकत में मुफ्तखोर कोई नहीं है बल्कि मेहनती लोगों को ही मुफ्तखोर मान लिया गया है क्योंकि उन की तादाद ज्यादा है और आवरण कम. सरकार एक लाख करोड़ रुपए हर महीने जीएसटी से पाती है जो कर ऐसा था उत्पाद पर लगता है. कौन गरीब इस में अपना योगदान न करता. खेल एक और कानून का अगर लोकतंत्र कायम रह पाया और नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज का निष्पक्ष मूल्यांकन कोई कर पाया तो वह उस में यह जोड़े बिना नहीं रह पाएगा कि इस सरकार ने कानूनों का मनमाने ढंग से इस्तेमाल करते हुए उन्हें अपनी सहूलियत से तोड़ामरोड़ा और बनायामिटाया.
जो कानून उस के हिंदू राष्ट्र निर्माण के एजेंडे में अड़ंगा थे उन का प्रभाव कम किया गया या उन्हें खत्म ही कर दिया गया और जो उस में सहायक थे उन्हें और प्रभावी बना कर किसानों, दलितों, अल्पसंख्यकों व आदिवासियों के लिए मुश्किलें पैदा की गईं. इन तबकों के लोगों की जिंदगी दुश्वार करने के लिए दरियादिली से कानून बनाए और थोपे गए. प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण कानून इन में से एक है जिसे सांसद राकेश सिन्हा एक प्राइवेट बिल के जरिए राज्यसभा में पेश कर चुके हैं. इस पर बहस होनी है. बिहार के राकेश सिन्हा आरएसएस के कट्टर विचारक हैं जिन्हें भगवा गैंग ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे को मजबूती देने के लिए खासतौर से संसद में भेजा है. ये वही राकेश सिन्हा हैं जो साल 2018 में राममंदिर निर्माण के लिए भी प्राइवेट बिल पेश करने को उतावले थे जबकि मंदिर का मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था. उन्हें यह शक और डर सता रहा था कि कहीं सब से बड़ी अदालत से मनमाफिक फैसला नहीं आया तो राममंदिर निर्माण का सनातनी सपना अधूरा रह जाएगा. बहरहाल, फैसला उम्मीद के मुताबिक आया और अयोध्या में करोड़ों की लागत से राममंदिर बन भी रहा है.
राकेश सिन्हा जैसे कट्टर संघियों की नई चिंता या मुहिम अब जिस नए ट्रैक पर है वह जनसंख्या है. ये चाहते हैं कि सभी लोग सवर्णों की तरह कम से कम बच्चे पैदा करें लेकिन दलील हमेशा की तरह राष्ट्रहित की दे रहे हैं और बढ़ती जनसंख्या के नुकसान गिनाने लगे हैं. कुछ सालों पहले तक प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में निबंधों के जरिए छात्रों से उम्मीद की जाती थी कि बालिग हो कर वे जनसंख्या के नुकसानों को ध्यान में रखते हुए एक या दो बच्चे ही पैदा कर तसल्ली कर लेंगे. वे बच्चे बड़े हो कर भूल गए कि उन्होंने क्याक्या पढ़ा था, तो अब कानून बना कर जनसंख्या नियंत्रण का ख्वाब देखा जा रहा है. इस के पीछे भी हिंदुत्व का एजेंडा साफ दिख रहा है, जिसे कम से कम शब्दों में सम झा जाए तो सार कुछ इस तरह निकलता है कि ऊंची जाति वाले हिंदू कम संतानें पैदा करते हैं और मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं. इस से होता यह है कि मुट्ठीभर लोगों का टैक्स का पैसा ज्यादा बच्चे वालों के पास इमदाद की शक्ल में चला जाता है जो टैक्स नहीं देते हैं. जबकि यह आधाअधूरा सच है.
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दरअसल, इस से कम बच्चे पैदा करने वालों, जाहिर है सवर्ण हिंदुओं को बहकायाफुसलाया जाता है कि सरकार तो तुम्हें वह सब देने को तैयार है जिस की तुम उम्मीद करते हो और हकदार हो लेकिन इन की बढ़ती आबादी सबकुछ निगल जाती है. कानून के जरिए आबादी को काबू में करने का सपना अव्यावहारिक और बेतुका है, यह बात कई उदाहरणों और तथ्यों से साबित भी होती है. लेकिन मौजूदा सरकार अपनी मंशा के चलते दुनियाभर के आंकड़ों व उदाहरणों, खासतौर से चीन से कोई सबक नहीं ले रही और 5वीं व 8वीं कक्षा के निबंधों के मसौदे पर अड़ी है कि जनसंख्या बढ़ने से गरीबी बढ़ती है, लोगों की सेहत गिरती है, प्रदूषण और बीमारियां फैलती हैं, रोजगार के मौके कम हो जाते हैं, जीवनस्तर घटिया हो जाता है और अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है आदिआदि. उत्तर प्रदेश का सच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर राज्य का विधि आयोग उत्तर प्रदेश जनसंख्यक (नियंत्रण, स्थिरीकरण व कल्याण) विधेयक 2021 को अंतिम रूप दे रहा है. उम्मीद की जा रही है कि वहां चुनाव के पहले यह कानून अमल में आ सकता है. योगी आदित्यनाथ और राकेश सिन्हा या फिर सांसद रवि किशन जिन्होंने अभीअभी अपने नाम के आगे अपना सरनेम शुक्ला लगा कर अपनी ब्राह्मण जाति दर्शाना शुरू किया है,
में मानसिकता के मामले में कोई खास फर्क नहीं है. गौरतलब है कि गोरखपुर से भाजपा सांसद व भोजपुरी कलाकार रवि किशन भी जनसंख्या नियंत्रण पर प्राइवेट बिल लोकसभा में रखने वाले हैं. इस बिल का मसौदा उत्तर प्रदेश के विधेयक से ज्यादा अलग होने की उम्मीद करना बेकार की बात है क्योंकि इन सभी का उद्भव आरएसएस है. पिछली 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश की जनसंख्या नीति 2021-2030 को पेश करते कहा था कि इस का मकसद 2026 तक जन्मदर को 2.1 प्रति हजार और फिर 2030 तक 1.9 पर लाना है जो अभी 2.7 फीसदी है. जन्मदर का मतलब होता है कि औसतन एक महिला कितनी संतान पैदा करती है. उन्होंने यह भी कहा था कि आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है उस से स्वास्थ्य समेत अन्य सुविधाएं देने में कठिनाई आ रही है, इसलिए आबादी को काबू करना जरूरी हो गया है. इस प्रस्तावित विधेयक के मसौदे में स्पष्ट किया गया है कि यह ‘टू चाइल्ड पौलिसी’ को बढ़ावा देता है.
जो लोग केवल 2 बच्चे पैदा करेंगे, उन्हें कई रियायतें दी जाएंगी और जो 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करेंगे उन से कई रियायतें छीन ली जाएंगी. यह कोई नई बात नहीं है. कई राज्यों में यह प्रावधान लागू है. इस का बेहतर उदाहरण मध्य प्रदेश है जहां 2 से ज्यादा संतान होने पर सरकारी नौकरी छीन ली जाती है. हैरानी की बात यह है कि राज्य में यह प्रावधान 26 जनवरी, 2000 को लागू किया गया था, तब सरकार कांग्रेस की थी और मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे. लोगों को यह कानून रास नहीं आया तो उन्होंने दिग्विजय सिंह और कांग्रेस को चलता कर दिया. लेकिन उत्तर प्रदेश के मसौदे में यह भी जोड़ा गया कि 2 से अधिक बच्चे वाले व्यक्ति का राशनकार्ड 4 सदस्यों तक सीमित रहेगा और वह किसी भी तरह की सरकारी सहायता का पात्र नहीं होगा. अगर यह विधेयक हो रही चर्चाओं के मुताबिक, लागू हो पाया तो इस के कानून में तबदील होने पर सभी सरकारी कर्मचारियों और स्थानीय निकाय चुनावों में चुन कर आए प्रतिनिधियों को हलफनामा देना पड़ेगा कि वे इन नियमों का उल्लंघन नहीं करेंगे यानी 2 से ज्यादा बच्चे पैदा नहीं करेंगे और करेंगे तो न तो वे सरकारी नौकरी पाने के हकदार होंगे और न ही स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ सकेंगे.
इस मसौदे में कहा गया है कि यह कानून राज्य के उन सभी दंपतियों पर लागू होगा जहां लड़के की उम्र 21 और लड़की की उम्र 18 साल है. जिस दंपती के 2 बच्चे हैं और वे तीसरा बच्चा गोद लेते हैं तो इसे कानून का उल्लंघन नहीं माना जाएगा लेकिन ऐसा कोई भी दंपती एक से ज्यादा बच्चा गोद नहीं ले सकेगा. अगर किसी दंपती के बच्चे नहीं हैं तो वे अधिकतम 2 बच्चों को गोद ले सकते हैं. तीसरा बच्चा गोद लेना कानून का उल्लंघन माना जाएगा. दिलचस्प मसौदे में यह भी कहा गया है कि अगर दूसरी बार में जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं तो 3 बच्चे होने पर भी कानून का उल्लंघन नहीं माना जाएगा. मसौदा कितना बचकाना और क्रूर है, इस की एक मिसाल यह प्रावधान भी है कि अगर 2 बच्चों में से एक दिव्यांग है तो दंपती तीसरा बच्चा पैदा कर सकते हैं यानी यह भी कानून का उल्लंघन नहीं होगा. अगर 2 बच्चे हैं और उन में से किसी एक की मौत हो जाती है तो ऐसे दंपतियों को तीसरा बच्चा पैदा करने की इजाजत रहेगी. इसी तरह एक से अधिक पति या पत्नी होने पर दंपती को अलग इकाई माना जाएगा. लेकिन सभी शादियों से वह अधिकतम 2 बच्चे ही पैदा कर सकता है.
तीसरा बच्चा किसी भी जीवनसाथी से हो, वह कानून का उल्लंघन माना जाएगा. खामियों से भरपूर पहली नजर में ही मसौदा खामियों से भरा नजर आ रहा है जो काफी हद तक स्त्रीविरोधी भी है और जिस का उस के मकसद जनसंख्या नियंत्रण से कोई खास वास्ता भी नहीं. सरकार की नजर में दिव्यांग बच्चा किसी काम का नहीं होता, इसलिए मांबाप तीसरा बच्चा पैदा कर सकते हैं, यह बात दिव्यांगों में हीनता भर देने वाली नहीं तो और क्या है. अगर तीसरा बच्चा भी दिव्यांग हुआ तो क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया है. कितने दिव्यांग बच्चे एक सामान्य स्वस्थ बच्चे के बराबर सरकार की नजर में होते हैं. यह भी साफ हो जाता तो बात हर्ज की न होती. अगर किसी विधुर के 2 बच्चे हैं और वह दूसरी शादी करता है तो तीसरा बच्चा पैदा करने से वह हिचकिचाएगा क्योंकि उसे राशनकार्ड सहित दूसरी सरकारी सुविधाएं चाहिए होंगी. जाहिर है यहां खमियाजा वह औरत भुगतेगी जो किसी विधुर या बच्चों वाले तलाकशुदा से शादी करेगी. सरकार तो सीधेसीधे उस से मां बनने का हक छीन रही है जो हरेक महिला की स्वाभाविक इच्छा होती है. उलट इस के, यह बात विधवाओं और तलाकशुदा बच्चेवालियों पर भी लागू होती है कि वे अपने नए पति को औलाद का सुख सरकारी सुखसुविधाएं छोड़ने की शर्त पर ही दे पाएंगी. ऐसे में विधवा विवाह और तलाकशुदा महिलाओं की दूसरी शादी आसान नहीं रह जाएगी जो धार्मिक व सामाजिक वजहों के चलते पहले से ही मुश्किल है. एक खामी यह भी है कि अगर किसी दंपती के एकसाथ 3 या ज्यादा बच्चे होते हैं तो उन की वैधानिक स्थिति क्या होगी, इस पर मसौदा खामोश है.
इसी तरह यह मसौदा सिंगल पेरैंट्स के बारे में भी कुछ नहीं कहता कि शादी करने और न करने पर भी 2 या 3 में उन के जैविक बच्चों को गिना जाएगा या नहीं. यदि हां, तो उस का फार्मूला क्या होगा? ऐसे कानून चूंकि एक खास मकसद से बनाए गए होते हैं, इसलिए आमतौर पर किसी काम के नहीं होते. मध्य प्रदेश में हजारों दंपती 2 से ज्यादा बच्चे होने के बाद भी धड़ल्ले से सरकारी नौकरी कर रहे हैं. तीसरे बच्चे के जन्म को या तो वे छिपा जाते हैं या फिर बच्चा किसी परिचित या रिश्तेदार को कागजों में गोद देते हैं लेकिन वह रहता उन्हीं के पास है. सरकार के पास ऐसा कोई जरिया नहीं होता कि वह बड़े पैमाने पर इन्हें पहचान सके. मध्य प्रदेश स्कूली शिक्षा विभाग के एक अधिकारी की मानें तो महिलाएं ज्यादा होने के कारण ऐसा हमारे विभाग में ज्यादा होता है लेकिन कार्रवाई उन्हीं के खिलाफ हो पाती है जिन की कोई प्रमाण सहित शिकायत करता है. लेकिन चिंता की बड़ी बात लड़के की आदिम चाहत है. लोग दोतीन लड़कियों के बाद भी बेटे की चाहत नहीं छोड़ पाते क्योंकि वह तारने वाला जो होता है. इस धार्मिक बीमारी का इलाज किसी सरकार या कानून के पास नहीं तो फिर ऐसे बेतुके कानूनों की जरूरत क्या और उन से किस वर्ग के लोगों को ज्यादा फायदा मिलेगा और किस तबके का नुकसान ज्यादा होगा, यह देखा जाना भी जरूरी है.
उत्तर प्रदेश का विधेयक साफतौर पर कहता है कि जो 2 से कम बच्चे पैदा करेगा उसे सरकारी नौकरी में अतिरिक्त वेतन वृद्धि दी जाएगी. उस के पैंशन प्लान में भी सरकारी योगदान ज्यादा रहेगा. इतना ही नहीं, ऐसे लोगों को सरकारी एजेंसियों के मकान और भूखंड के आवंटन में प्राथमिकता दी जाएगी. बच्चों की शिक्षा और इलाज फ्री होगा. बीपीएल कार्डधारी अगर एक बच्चे के बाद नसबंदी कराते हैं तो उन्हें एकमुश्त एक लाख रुपए दिया जाएगा (अर्थात सरकार की नजर में एक बच्चे की कीमत या लागत, कुछ भी कह लें, एक लाख रुपए है) और स्नातक स्तर तक सरकार मुफ्त शिक्षा मुहैया कराएगी. कानून का पालन न करने वालों को कोई शारीरिक सजा नहीं दी जाएगी, बस, उन से ऊपर बताई सुविधाएं छीन ली जाएंगी जो किसी सजा से कम नहीं. शायद ही केंद्र या भाजपा सरकार यह बता पाए कि राशन सरीखी दर्जनों सरकारी सहूलियतों को किसी दुधमुंहे बच्चे से छीनने से किस को क्या हासिल होगा.
तीसरा बच्चा क्यों इन सहूलियतों का हकदार नहीं होगा जबकि उस बेचारे की तो कोई गलती ही नहीं जो 18 साल से ले कर 70 साल की उम्र तक देश के लिए कुछ न कुछ करता ही रहेगा. फिर वह कैसे दोषी हुआ और मांबाप के किए की सजा उसे क्यों दी जा रही है, बात सम झ से परे है. यानी कम बच्चे पैदा करने वालों को काफीकुछ दिया जाएगा और ज्यादा बच्चे पैदा करने वालों से काफीकुछ छीन लिया जाएगा. अब ये किस तबके के लोग होंगे, इस पर गौर किया जाए तो यह कानून चाहे वह उत्तर प्रदेश में बने या संसद से निकल कर देशभर में लागू हो, सीधेतौर पर ऊंची जाति वाले हिंदुओं को देने वाला और मुसलमानों से छीनने वाला होगा जो एक शिष्ट व संभ्रांत कानूनी और धार्मिक षड्यंत्र है. प्रस्तावित कानून में यह जाने क्यों नहीं कहा गया कि जो पंडित तीसरे बच्चे के जनेऊ और अन्नप्राशन्न संस्कार कराएगा उसे भी कानूनन दोषी मान सजा दी जाएगी और अगर किन्नर तीसरे बच्चे के जन्म पर नेग मांगने जाएंगे तो वे भी सजा के हकदार होंगे और इन को जेल क्यों न भेजा जाए? मुसलिम विरोधी कानून असल में जनसंख्या नियंत्रण कानून आरएसएस के हिंदूवादी एजेंडे का चरणबद्ध हिस्सा है.
संघ प्रमुख मोहन भागवत अकसर इस की जरूरत मौका देख कर बताते रहे हैं. 22 जुलाई को उन्होंने असम के गुवाहाटी में जोर दे कर कहा था कि साल 1930 से ही संगठित तरीके से देश में मुसलिम आबादी बढ़ाने की कोशिशें चल रही हैं जिस की वजह भारत को पाकिस्तान बनाना है. 2002 के गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी खुलेआम मुसलमानों पर 5 से 25 होने का आरोप लगाते रहे हैं जो किसी तरह से आंकड़ों से साबित नहीं किया जा सकता. यह बात अलगअलग तरीकों से सोशल मीडिया पर साल 2014 से ही प्रचारित की जाती रही है जिस में खास यह डर फैलाना है कि अगर मुसलिमों की आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब वे फिर से देश पर राज कर रहे होंगे और भारत भी मुसलिम राष्ट्र बन जाएगा. बात में दम लाने के लिए इन भड़काऊ पोस्टों में यह डर भी हिंदुओं को दिखाया जाता है कि फिर तुम्हारे बच्चों को भाले की नोंक पर बलात मुसलमान बनाया जाएगा, हिंदू औरतों की सरेराह इज्जत लूटी जाएगी और मंदिर नष्ट कर दिए जाएंगे, इसलिए जाग जाओ. अब धर्म और राजनीति के इन दुकानदारों को कौन बताए कि हिंदू को उन्होंने सोने ही कब दिया,
उसे तो आजादी के पहले से ही मुसलमानों का डर दिखादिखा कर उस की नींद इस हद तक उड़ा रखी है कि वह हिंसक, कुंठित और पूर्वाग्रही हो चला है. हरियाणा में अगर हिंदूवादी पंचायतें आयोजित कर मुसलिम औरतों के कपड़े उतारने की बात की जा रही है तो सहज सम झा जा सकता है कि सामाजिक स्थिति कितनी बदतर हो गई है. सोशल मीडिया पर क्याक्या नहीं होता, इस की तो बात करना ही बेकार है. 2000 के गुजरात विधान से या चुनावों में नरेंद्र मोदी खुलेआम मुसलमानों पर ऐसे 25 होने का आरोप लगाते रहे हैं जो किसी तरह से आंकड़ों से साबित नहीं कि जा सकता. मुसलिमों की बढ़ती आबादी का हल्ला या डर कोई नई बात नहीं है, जिसे आजादी के बाद से ही बड़ा खतरा बताया जाता रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो 2 साल पहले आजादी के दिन लालकिले से साफसाफ कहा था कि कम बच्चे पैदा करने वाले एक तरह से देशभक्त हैं. इस का उलट मतलब यह निकलता है कि ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले देशद्रोही हैं. इस पर हर किसी का ध्यान मुसलमानों की तरफ गया था क्योंकि उन्हें ज्यादा बच्चे पैदा करने वाला पहले से ही मान लिया गया है जो पूरी तरह गलत बात भी नहीं है.
पर इस के लिए कानून कतई जरूरी नहीं जो एक तरह से हर तबके की औरत की कोख पर पहरा है और सहवास या सैक्स की कुदरती जरूरत व इच्छा के अलावा प्राइवेसी पर भी हमला है. पाकिस्तान बनने के बाद 1951 की जनगणना में हिंदुओं की आबादी 84.1 फीसदी और मुसलमानों की आबादी 9.8 फीसदी थी. 2011 की जनगणना में हिंदुओं की आबादी 79.8 फीसदी और मुसलमानों की 14.23 फीसदी की शक्ल में सामने आई. इसी को आधार मानते हुए एक काल्पनिक दहशत फैलाई गई कि जिस दिन मुसलमान कुल आबादी का 30 फीसदी हो जाएंगे उस दिन देश हिंदुओं के हाथ से खिसक जाएगा. जबकि हकीकत बदल रही है अफसोस यह है कि आज के दौर में धर्म के ठेकेदार राजनीति और राजनेता पूजापाठ करते खुलेआम नजर आते हैं. इसलिए देशभर में एक बड़ी गफलत फैली हुई है जो हकीकत को न तो देखती और न ही देखने देती है. अफसोस यह भी है कि आईना दिखाने वाला मीडिया भी सरकारी भोंपू बन चुका है. एक वक्त था जब शिक्षित और जागरूक मुसलमान भी बच्चों को खुदा की नेमत, रहमत और तोहफा सहित न जाने क्याक्या मानते परिवार नियोजन को हराम मानता था.
एनएफएचएस यानी नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के ताजे आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदुओं के साथसाथ मुसलमानों की प्रजनन दर भी तेजी से गिरी है. इस एजेंसी के मुताबिक, 1992-93 में हिंदुओं की प्रजनन दर 3.3 थी जो 2015-16 में घट कर 2.1 फीसदी रह गई. ठीक इसी तर्ज पर मुसलमानों की प्रजनन दर जो साल 1992-93 में 4.4 थी वह घट कर 2015-16 में 2.6 रह गई. इस लिहाज से हिंदू परिवारों की प्रजनन दर 27 फीसदी घटी जबकि मुसलिम परिवारों में यह गिरावट 40 फीसदी के लगभग है. यह इतना बड़ा अंतर भी नहीं है जिसे पाटने को किसी नियंत्रण कानून की जरूरत पड़े, वह भी बहुत कड़ी शर्तों के साथ. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, अगर आबादी 2.1 फीसदी की दर से भी बढ़ती है तो यह चिंता का विषय नहीं. पौपुलेशन फाउंडेशन औफ इंडिया के जौइंट डायरैक्टर आलोक वाजपेयी के मुताबिक, जनसंख्या विस्फोट उस सूरत में माना जाता है जब प्रजनन दर 4 से ऊपर हो. उत्तर प्रदेश की औसत प्रजनन दर 2015 : 6 में 2.7 थी. ऐसे में कानून लाने की क्या जल्दबाजी है
, इसे आसानी से सम झा जा सकता है कि इस की असल मंशा हिंदुत्व की कोख में कहीं छिपी है. आजादी के वक्त मुसलिम प्रजनन क्षमता हिंदुओं से 10 फीसदी ज्यादा थी जो 70 का दशक आतेआते और बढ़ी क्योंकि उस वक्त तक जागरूक हिंदू गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करने लगे थे लेकिन मुसलमानों ने धार्मिक कारणों से इस से दूरी बनाए रखी थी. 1990 का दशक आतेआते मुसलिमों की भी प्रजनन दर घटी. जाहिर है, उन्होंने भी परिवार नियोजन की अहमियत सम झते उसे अपनाया. इस से ताल्लुक रखती दूसरी दिलचस्प बात यह भी है कि उस वक्त ज्यादा बच्चे पैदा करना और पालना मुसलमानों को भी महंगा पड़ने लगा था. जनसंख्या नियंत्रण कानून शुद्ध रूप से राजनीतिक और धार्मिक दांव है जिस में भगवा खेमे की मंशा वोटों के ध्रुवीकरण की है, क्योंकि 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की तादाद लगभग 4.5 करोड़ है. पश्चिम बंगाल की हार अभी तक भाजपा को कसक रही है,
लिहाजा वह कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती. हालांकि, यह बहुत बड़ा जोखिम साबित हो सकता है क्योंकि इस कानून की लपेट में 4 करोड़ दलित भी आ रहे हैं. वे अगर बंगाल की तर्ज पर सपा के साथ हो लिए तो भाजपा को लेने के देने पड़ जाने के लिए पिछड़ों का भी आज की जनसंख्या नियंत्रण आपनाना आसान नहीं है. इस कानून से सिर्फ सवर्ण हिंदू उत्साहित हैं जिन की नई पीढ़ी एक बच्चा पैदा करने से पहले भी हजार बार सोचती है. खुद को उदार बताने वाले इन हिंदुओं की एक मंशा यह भी है कि इन विधर्मी और छोटी जाति वालों को मुफ्त का सरकारी मालपानी मिलना बंद हो, तभी इन की अक्ल ठिकाने आएगी. यह जान कर हैरानी होती है कि इस संवेदनशील और व्यक्तिगत मसले पर लोगों में विकट की उदासीनता है क्योंकि मांगने के बाद भी राज्य सरकार को महज 8 हजार के लगभग लोगों ने प्रतिक्रियाएं या अपनी राय दीं. इन में भी अधिकांश लोगों ने यह मांग रखी थी कि 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करने वालों से आरक्षण की सहूलियत भी छीनी जाए.
चीन से सबक लें जब कानून बना कर आबादी काबू की जाती है तो हाल क्या होता है, इस का विस्तार से अध्ययन बढ़ती जनसंख्या को ले कर चिंतित हो रहे लोगों को कर लेना चाहिए और सबक चीन से लेना चाहिए, जहां अब लोगों को 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करने को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. 30 जुलाई के कुछ अखबारों में एक दिलचस्प खबर यह छपी थी कि चीन के दक्षिणी पश्चिमी प्रांत के पजिहुआ शहर में सरकार दूसरा और तीसरा बच्चा पैदा करने वालों को हर महीने 500 युआन यानी 5,748 रुपए प्रतिबच्चा हर महीने देगी. यह वही चीन है जिस ने बढ़ती आबादी को रोकने के लिए साल 1979 में सिंगल चाइल्ड पौलिसी लागू की थी. दूसरे बच्चे की पैदाइश पर दंपतियों को कड़े दंड दिए जाते थे जिन में से एक गर्भपात करना भी था. इस से चीन की आबादी कम होने लगी लेकिन जल्द ही उसे सम झ आ गया कि इस से युवाओं पर भार पड़ रहा है और बूढ़ों की तादाद बेतहाशा बढ़ रही है जो अनुत्पादक हैं. इस वजह से उस ने यह कानून वापस ले लिया और 2 बच्चे पैदा करने की इजाजत दे दी. लेकिन इस से भी कोई खास फायदा नहीं हुआ क्योंकि 20 साल बच्चे पैदा नहीं हुए या न के बराबर हुए तो ज्यादा जीने वाले बूढ़ों की खासी फौज वहां तैयार हो गई है.
2010 से चीन की गिरती विकास दर उस के लिए चिंता की बात है और वहां की सरकार मानने लगी है कि उस के जनसंख्या नियंत्रण कानून के चलते ऐसा हुआ. बूढ़ों की सेवा से थक रहे हैं युवा अब युवा काम करें या अपने बच्चों सहित पेरैंट्स और ग्रैंड पेरैंट्स की देखभाल करें, यह समस्या चीन की तरह कभी हमारे देश और जनसंख्या नियंत्रण कानून वाले राज्यों में भी खड़ी हो सकती है. तब हमारी सरकारें भी वही करने को मजबूर होंगी कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करो, पैसा, शिक्षा और दीगर खर्च हम देंगे. लेकिन तब तक बहुत नुकसान हो चुका होगा जिस की भरपाई हमारादेश नहीं कर पाएगा क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था, चीन तो दूर की बात है, छोटे से पड़ोसी देश बंगलादेश के सामने भी कहीं नहीं ठहरती है. जब युवा ही नहीं रहेंगे तो कौन मजदूरी सहित दूसरे मेहनत वाले काम करेगा, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. इसलिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को इस तरह की फैशनेबल मूर्खता से बचना चाहिए और बजाय नियंत्रण के, प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए. यानी सभी के रोजगार को प्रोत्साहन देना चाहिए.
सरकारी नियमकानून हर काम पर कुंडली मारे बैठे हैं. सरकार के पास जनता की सेवा की फुरसत नहीं, पर कंट्रोल की फुरसत है. लेकिन राज्य के 6 करोड़ बेरोजगार युवा इस झांसे या लालच में भाजपा को वोट देंगे, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं, क्योंकि वे कह और पूछ रहे हैं कि यह ड्रामा चुनाव के वक्त ही क्यों? इस कानून का प्रभाव तो 20-25 साल बाद होगा. आज तो सिर्फ ढोल पीटा जाएगा. युवा यानी जनसंख्या का आधा हिस्सा बेकार रहे जबकि नौकरियों सहित तमाम प्राकृतिक संसाधन देश में मौजूद हैं. उन का दोहन कर रोजगार क्यों सरकार पैदा नहीं कर पाई और वोट झटकने के लिए जब जवाब देने का वक्त आया तो बढ़ती आबादी का डर दिखा कर मूर्ख बना रही है. भाजपा की बड़ी चिंता यही युवा वर्ग है जो उस से छिटक रहा है और यह मानने को तैयार नहीं कि बेरोजगारी बढ़ती आबादी की वजह से ही है. सच तो यह है कि युवा रोजगार के मसले पर न तो मोदी सरकार से संतुष्ट है और न ही योगी सरकार से खुश है क्योंकि वह बेरोजगारी के चलते जिल्लत और जलालतभरी जिंदगी जी रहा है.
उसे न तो मंदिर से मतलब है और न किसी हिंदूमुसलमान की घटतीबढ़ती आबादी से कोई सरोकार है. भुगतेंगी तो महिलाएं युवाओं के बाद अब महिलाओं के नाराज होने की बारी है. कहने को तो उन्हें खुश होना चाहिए क्योंकि नए कानून के वजूद में आते ही उन्हें बारबार गर्भधारण नहीं करना पड़ेगा लेकिन कानून कैसे उन की कोख पर गाज गिरा रहा है, यह उन्हें सम झ आ रहा है. कानून की मार से बचने के लिए पति उन्हें नसबंदी कराने को मजबूर करेंगे ताकि उन की खुद की मर्दानगी सलामत रहे. पूरे देश सहित उत्तर प्रदेश में भी नसबंदी का औपरेशन महिलाओं के हिस्से में ही आता है. लिहाजा, मना करने पर घरों में कलह होगी जिस की जिम्मेदारी सरकार तो लेने से रही. होगा यह भी कि 2 के बाद जल्दबाजी, असावधानी या लापरवाही के चलते वे तीसरी बार गर्भधारण करेंगी तो पति उन्हें गर्भपात के लिए मजबूर करेंगे जो उन की सेहत और जिंदगी के लिए खतरा ही होगा क्योंकि बारबार गर्भपात करने पर डाक्टर को को ही प्रस्तावित कानून अपराधी मानेगा. अगर गर्भपात नहीं हो पाया तो लोग, खासतौर से निचले तबके के, तीसरे बच्चे को बो झ सम झते हुए उसे कूड़े के ढेर या घूरे पर फेंकने में हिचकिचाएंगे नहीं. मां बनना है या नहीं और बनना है तो कितने बच्चों की, यह फैसला लेने का पहला हक औरत को होना चाहिए क्योंकि बच्चे को 9 महीने पेट में वही रखती है और परवरिश भी करती है.
लेकिन अब फैसला करने का अधिकार सरकार ले रही है, जो 2 बच्चों के बाद परिवार नियोजन अपनाने पर एक सर्टिफिकेट पकड़ा देगी, जिसे राशन की दुकान से ले कर नौकरी के आवेदन और अगर चुनाव लड़ा तो उस के फौर्म में भी लगाना पड़ेगा. यह एक और नई कागजी सिरदर्दी लोगों को बेवजह ढोनी पड़ेगी कि मेरे 2 ही बच्चे हैं. होना यह चाहिए परिवार नियोजन सस्ता होना चाहिए. कंडोम मुफ्त मिलने चाहिए. गर्भपात मुफ्त में होना चाहिए. नसबंदी औपरेशन मुफ्त में हो. धार्मिक किस्सेकहानियों को प्रतिबंधित करना चाहिए जो ज्यादा संतानोत्पत्ति को बढ़ावा देते हैं, मसलन पांडव 5 और कौरव 100 भाई थे. दशरथ के 4 पुत्र थे बच्चा भगवान की देन होता है. यह भावना निकाली जानी चाहिए : ‘सौभाग्यवती भव:’ शब्दों पर बैन लगना चाहिए. रोक उन पंडों, ज्योतिषियों और तांत्रिकों पर क्यों नहीं जो शर्तिया संतान दिलाने का दावा करते हैं. अगर उन के दावों में दम है तो सरकार को चाहिए कि वह जनसंख्या नियंत्रण के लिए उन की सेवाएं ले क्योंकि जो लोग संतान पैदा करवा सकते हैं वे पैदा होने से रोक भी सकते हैं.
बैडरूम में कानून के दाखिले होने से लोग, खासतौर से महिलाएं, असहज ही होंगे क्योंकि सरकारी सहूलियतें और सुविधाएं महंगाई के चलते उन की मजबूरी हो चली हैं. लिहाजा, उन की व्यक्तिगत जिंदगी और निजता पूरे तनाव के साथ प्रभावित होगी. गंभीरता से ये कानूनवीर सोचें और सर्वे करवाएं तो दोषी खुद को ही पाएंगे कि हम न तो लोगों को रोजगार दे पा रहे और न उन की सेहत के लिए कुछ कर पा रहे हैं. हम तो बस हिंदुत्व के एजेंडे और मंदिरनिर्माण में लगे रहे. इन कर्मों की भी खिसियाहट और अपराधबोध, बशर्ते, हो तो ये कानूनवीर इस नतीजे पर जरूर पहुंचेंगे कि वे प्रस्तावित मसौदे को कानूनी अमलीजामा पहनाने की एक और गलती करने जा रहे हैं.