अफगानिस्तान पर तालिबानियों का कब्जा हो गया है और इस से उन्हें कोर्ई फर्क पड़ता कि भारत सरकार या दुनिया की दूसरी सरकारें उन्हें मान्यता दें या नहीं. चाहे कहने को कोई देश अकेले में नहीं रह सकता पर जहां न खून की कीमत हो न जान की वहां बाहरी लोक ज्यादा कुछ नहीं कर सकते. अमेरिका पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राष्ट्र संघ फिलहाल उन्हें नैतिक मान्यता नहीं दे रही पर भारत पर दबाव पड़ रहा है कि हम दें ताकि हमारा व्यापार चलता रहे.
केवल व्यापार के लिए अफगानी हमारी मान्यता की इंतजार नहीं करेंगे. पाकिस्तान और फिर पाकिस्तान से मिडिल ईस्ट और वहां से भारत सामान पहुंचता रहेगा और बदले में पाकिस्तान से उन की खुली सीमा से सामान जाता रहेगा.
मान्यता की ङ्क्षचता वे सरकारें करती हैं जो जनता की भलाई के लिए बनी हो. यह तो कबिलों की मलाई सत्ता और धर्र्म प्रचार का मामला हैं. इन्हें न भारत की जरूरत न दूसरे देशों की. पहले ब्रिटिश, इंडिया फिर रूस और अब अमेरिका को खदेड़ कर इन्होंने साबित कर दिया है कि आपस में चाहे अफगानी कितना लड़ते रहें, बाहरी दखल तो ये सहेंगे ही नहीं चाहे इन की ङ्क्षजदगी जैसी भी हो. इन की औरतें हर अत्याचार सहने को तैयार है चाहे दुनिया भर की औरतें इन अफगान औरतों के लिए आंसू बहाती रहें. वैसे भी जहां धर्म हावी होता है वहां औरतों को आजादी कब मिली है.
अफगानिस्तान दुनिया के लिए आतंक का केंद्र बन सकता है. अफीम के बाद यह आंतक का निर्यात खुलेआम कर सकता है और चीन भी अब इन से 2-2 हाथ करने से बचेगा. अफगानिस्तान में बैठ कर ओसामा बिन लादेन ने अमेरिका पर हमला किया था और आज 20 साल बाद उस के बदले का बदला ले लिया. आतंकवादी हवाई जहाज ही नहीं, परमाणु बम भी पाकिस्तान, उत्तरी कोरिया जैसे देशों से न आएं पता नहीं.
अमेरिका ने हजारों उन अफगानों की शरण दी है जो 20 सालों से अमेरिकियों को सहयोग दे रहे थे. वे कब आतंकवादी बन जाएं कहां नहीं जा सकता. भारत जैसे सभी देशों को अफगानिस्तान से होशियार रहना पड़ेगा. यह होशियारी कितने काम की होगी, पता नहीं.