जनवरी-फरवरी 2020 के दिल्ली के उत्तरपूर्व इलाके में हुए दंगों में बहुत से मुसलमानों को आज भी बेबात में बिना कोई गुनाह साबित हुए जेलों में बंद कर रखा है. दिखावे के लिए कुछ ङ्क्षहदू नेता और उन के पिछलग्गू भी बंद हैं. नागरिक संशोधन कानून का विरोध कर रहे लोगों के घर जलाने से ले कर ङ्क्षजदा जलाने तक के कांड इस मामले में हुए पर गुनाहगार मान कर पुलिस और अदालतों ने वहशी बने ङ्क्षहदूओं को तो छोड़ दिया पर भीड़ का हिस्सा बने मुसलमानों को आज तक जेलों में बंद कर रखा है.

बड़ी मुश्किलों से एकएक कर के कुछ छूट पा रहे हैं और इन सबको बाहर निकाल कर अदालत की जय बोलना पड़ता है क्योंकि सरकार तो उन्हें ङ्क्षजदगी भी उदाकरण के तौर पर बंद ही रखना चाहती है. अब अदालतें कहने लगी हैं कि विरोध करने का हक सबको है पर विरोधी जब तक कोई अपराध न करें उन्हें गिरफ्तार नहीं करा जा सकता. जो छूटे हैं वे बरी नहीं हुए हैं. सिर्फ जमानत मिली है उन्हें क्योंकि मोटे तौर पर उन के खिलाफ कुछ खास सुबूत नहीं थे.

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इसी ढील का फायदा वे चंद ङ्क्षहदू पिछलग्गू भी उठाना चाहते है जो साफसाफ हत्या, आगजनी, तोडफ़ोड़ और लूट में शामिल थे. एक मामले में 3 अभियुक्त जो ङ्क्षहदुत व्हाट्सएप गु्रप के हिस्से थे कह रहे थे कि उन के खिलाफ कोई सीसीटीवी फूटेज नहीं है, सिर्फ गवाह हैं इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाए. अदालत ने अपनी बात नहींं मानी पर जल्दी या देर से पुलिस दबाव डालना छोड़ देगी.

सरकार के खिलाफ आंदोलनों को दबाने के लिए 2014 से पहले भी कानूनों का भरपूर दुरुपयोग किया गया है. जो सत्ता में होता है वह अपने विरोधियों पर ऐसेतैसे आरोप लगा कर उन्हें बंद करा देता है और फिर वे जज जो अपना कैरियर शुरू कर रहे होते हैं. सरकार की सुनते हुए जमानत ही अॢजयों को कूढ़े की बालटी में फेंक देते हैं.

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ब्रिटीश सरकार का बताया गया क्रिमीनल प्रोलिजर कोड अपने आप में अद्भुत कानून था जिस में पहली बार इस देश में शासन की लाठी पुलिस पर ही सैंकड़ों बंदिशे लगाई थीं. उन दिनों मजिस्ट्रेट अंग्रेज अफसर होते थे और वे समक्क्ष पुलिस सुपरिटेंडट या ङ्क्षहदुस्तानी पुलिस अफसर की नहीं सुनते थे. जेलों की हालत जो भी हो, जमानत पाना आसान था.

आज स्थिति बिगड़ गई है. आज एफआईआर दर्ज होने का मतलब है कि जेल होगी ही. बहुत ही कम मामले ऐसे है जिस में पुलिस पहले ही दिन जमानत दे देने को राजी होती होगी. अगर वकौल बड़ा सक्षम हो तो ही एफआईआर करे जाने के बाद जेल से बचा जा पाता है क्योंकि नएनए मजिस्ट्रेट बने युवा सरकार की निगाहों में कांटा नहीं बनना चाहते.

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इस का एक उपाय यह है कि जमानत देने का या न देने का अधिकार सबसे छोटे मजिस्ट्रेट के हाथों से ले लिया जाए. यह अधिकार केवल हाईकोई जजों के पास हो या फिर जमानत के फैसले रिटायर्ड हाईकोर्ट जजों की एक नई संस्था करे जो जिला स्तर पर नियुक्त हो और पहली अपील कोर्ट का काम करे.

यह मामले का फैसला नहीं करेगी. सिर्फ जमानत दी जाए या न दी जाए इतना फैसला करेगी, इस के पास बहुत मामले नहीं आएंगे. अगर पुलिस को अहसास होगा कि वास्तव में डेढ़ सौ साल पुराना कानून लागू होगा तो वे ट्रायल मजिस्ट्रेट से ही जमानत दिला देंगे. पुलिस करप्शन को रोको का यह एक अच्छा तरीका हो सकता है.

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