ममता बैनर्जी की जीत से उन नेताओं को बड़ी निराशा हुई जो कुछ समय पहले तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में गए थे. भारतीय जनता पार्टी ने जीतने पर कुछ देने का वायदा भी किया था और आॢथक मामलों के आरोपों की जांच से मुक्ति दिलाने का वायदा भी किया था. वैसे भी कट्टरपंथी जातिगत भावना के चलते बहुत से तृणमूल नेताओं की व्यक्ति आस्था भारतीय जनता पार्टी की सोच से ज्यादा मिलती है और उन में से कुछ ने विधानसभा चुनावों से पहले रिस्क तो ही लिया.

ममता की जीत और भारी जीत का अंदाजा कम को था. पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीती सीटें साबित कर रही थीं कि ममता का जहाज डूबने वाला है. ममता ने न जाने क्या किया कि वह भारी अंतर से जीत गईं और ममता को छोड़ कर गए नेताओं के अधर में लटका दिया.

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भारतीय जनता पार्टी में दूसरी पाॢटयों से आए नेताओं को आमतौर पर बराबर का स्थान देर से ही मिलता है. जो राष्ट्रीय स्वयं संघ की पृष्ठभूमि के न हों उन्हें भाजपा वर्णसंकर ही मानती है और उन्हें यदि स्वीकार कर लिया जाए भी तो दूसरे सहज नहीं होते. भाजपा के जमीनी वर्कर असल में धर्म की दुकानदारी करने वाले हैं और वे उन नेताओं की सुनते हैं जो उन के बीच से निकल कर आते हैं. सिर्फ सत्ता मोह में आए लोगों को, खासतौर पर तब जब लगे कि मिठाई तो मिलने वाली ही है, कहीं भी स्वागत नहीं किया जाता.

दलबदल जब भी केवल किसी पार्टी को सत्ता में लाने के लिए लिया जाता है तो दलबदलुओं को चाहे आॢथक लाभ हो जाए, उन्हें अपना राजनीतिक कैरीयर दुरस्त करने में लंबा समय लगता है. कई बार तो 2 पीढिय़ां लग जाती हैं. सुषमा स्वराज समाजवाादी पार्टी से भारतीय जनता पार्टी में आईं और ब्राहमण होते हुए भी उन्हें वह स्थान न मिल पाया जो वह चाहती थी. वे संघ की देन नहीं थी न.

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