लेखक-उग्रसेन मिश्रा, नसीम अंसारी कोचर, सोमा घोष, रोहित
ब्लैक फंगस इन्फैक्शन या म्यूकरमाइकोसिस कोई रहस्यमय बीमारी नहीं है, लेकिन यह अभी तक दुर्लभ बीमारियों की श्रेणी में गिनी जाती थी. भारतीय चिकित्सा विज्ञान परिषद के मुताबिक म्यूकरमाइकोसिस ऐसा दुर्लभ फंगस इन्फैक्शन है जो शरीर में बहुत तेजी से फैलता है. इस बीमारी से साइनस, दिमाग, आंख और फेफड़ों पर बुरा असर पड़ता है. कोरोना से जू झ रही देश की जनता अब नई बीमारी म्यूकरमाइकोसिस यानी ब्लैक फंगस की चपेट में है.
यह दुर्लभ किस्म की बीमारी कोरोना से उबरे उन मरीजों में तेजी से पनप रही है, जिन के इलाज में स्टेरौयड्स का इस्तेमाल हुआ है. कोरोना से रिकवर हो चुके कई लोगों के लिए यह दुर्लभ संक्रमण जानलेवा साबित हो रहा है. ओडिशा में इस का पहला केस मिला था. इस के बाद गुजरात और राजस्थान में सामने आने के बाद पूरे देश से ब्लैक फंगस इन्फैक्शन के केस सुनाई देने लगे हैं. मध्य प्रदेश के जबलपुर से महाराष्ट्र के ठाणे तक में इस वजह से लोगों की जानें जा रही हैं. सब से ज्यादा उत्तर भारत में इस का प्रकोप है. उत्तर प्रदेश में तो ब्लैक फंगस कहर बनने की राह पर है. भले ही सरकार आंकड़े पूरी तरह स्पष्ट न कर रही हो, लेकिन किसी मर्ज को खत्म करने की पहली शर्त ही उसे उजागर करना है. रिपोर्ट लिखे जाने तक भारत में कुल 11,717 सरकारी मामले सामने आ चुके हैं,
ये भी पढ़ें- जानिए रोज चावल खाने के फायदे
जिस में महाराष्ट्र में 2,770, गुजरात में 2,869, आंध्र प्रदेश में 779, मध्य प्रदेश में 752 और तेलंगाना में 744 मुख्य हैं. इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में इस बीमारी के 701 मरीज मिले हैं, जिस में से 20 से अधिक लोगों की मौतें दर्ज की गई हैं. हालांकि कई लोगों का कहना है कि उत्तर प्रदेश के आंकड़ों पर चुनाव का असर भी हो सकता है. मथुरा व कानपुर में 2 और लखनऊ में 10 मरीजों की मौत हो चुकी है. लखनऊ केजीएमयू यूनिवर्सिटी के मुताबिक, ब्लैक फंगस की चपेट में आए 124 मरीज केजीएमयू में भरती हैं. कइयों की आंखों की रोशनी पर असर आ चुका है. जरूरी दवाएं दी जा रही हैं. इन में कइयों की रोशनी काफी हद तक प्रभावित है. वाराणसी में भी 84 मामले सामने आए हैं, जिन में 6 की मौत की पुष्टि हुई है. स्टेरौयड लेने वाले कोरोना मरीज इस वक्त हाई रिस्क पर हैं. क्या है ब्लैक फंगस ब्लैक फंगस इन्फैक्शन या विज्ञान की भाषा में म्यूकरमाइकोसिस कोई रहस्यमय बीमारी नहीं है,
लेकिन यह अभी तक दुर्लभ बीमारियों की श्रेणी में गिनी जाती थी. भारतीय चिकित्सा विज्ञान परिषद के मुताबिक, म्यूकरमाइकोसिस ऐसा दुर्लभ फंगस इन्फैक्शन है, जो शरीर में बहुत तेजी से फैलता है. इस बीमारी से साइनस, दिमाग, आंख और फेफड़ों पर बुरा असर पड़ता है. यह संक्रमण मस्तिष्क और त्वचा पर काफी बुरा असर डालते हैं. इस में त्वचा काली पड़ जाती है, वहीं कई मरीजों की आंखों की रोशनी चली जाती है. संक्रमण की रोकथाम समय पर न हो पाए, तो मरीजों के जबड़े और नाक की हड्डी गल जाती है. समय पर इलाज न मिलने पर मरीज की मौत भी हो सकती है. ‘यूएस सैंटर फौर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवैंशन’ की मानें, तो यह फंगस हमारे चारों ओर मुक्त रूप में मौजूद होता है, लेकिन किसी के शरीर के अंदर इन्फैक्शन को संभव बनाने के लिए इसे एक विशेष एनवायरमैंट की जरूरत होती है. यह उन लोगों पर हमला करता है, जिन की रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत कमजोर हो चुकी है.
ये भी पढ़ें-बिना सर्जरी के भी ठीक हो सकते हैं घुटने
दूसरे, इस को पनपने के लिए नमी चाहिए. लिहाजा, यह सामान्यत: नाक, साइनस, आंखों या दिमाग में पाया जाता है और अनुकूल परिस्थितियां मिलने पर तेजी से फैलता है. अगर एक बार यह फंगस दिमाग में फैल गया तो इस का इलाज बहुत कठिन है. यह जानलेवा इन्फैक्शन है. इस के फैलने की गति काफी तीव्र होती है और इस में मृत्युदर काफी ऊंची है. म्यूकर से संक्रमित लोगों में मृत्युदर लगभग 50 से 70 फीसदी तक होती है. यह कैंसर की तरह व्यवहार करता है, लेकिन कैंसर में जानलेवा प्रभाव पैदा करने में कम से कम कुछ महीने तो लगते हैं, जबकि इस से कुछ दिनों या कुछ ही घंटों में मरीज की जान जा सकती है. इतना खतरनाक होने के बावजूद अभी हाल तक म्यूकरमाइकोसिस यानी ब्लैक फंगस को इतना भयानक नहीं माना जाता था. यह एक दुर्लभ रोग था.
किसी व्यस्त सैंटर पर भी 3-4 साल में कभी एकाध मामले ही आते थे. अत्यधिक कम इम्यून वाले मरीजों, जैसे कैंसर पीडि़त, जिन को अनियंत्रित डायबिटीज है या जिन को सर्जरी कर के नया अंग लगाया गया हो और वह इम्यूनो सप्रेसैंट यानी प्रतिरक्षा दमनकारी थेरैपी पर हो, ऐसे मरीजों में इस फंगस के फैलने का डर अधिक होता था. लेकिन अब कोविड के कारण इस के मामले बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं. इस की मुख्य वजह है कि हमारे इम्यून सिस्टम का बहुत कमजोर हो जाना. डा. अलकेश अग्रवाल के मुताबिक, असल में यह एक फंगल इन्फैक्शन है. यह फंगल आसपास के वातावरण में होता है, मसलन मिट्टी, पेड़पौधों, हवा, मृत जानवरों आदि में और हवा द्वारा नाक के अंदर साइनस में यह फंगस त्वचा से चिपक जाता है. अधिकतर लोगों को इस की कोई तकलीफ महसूस नहीं होती. लेकिन कुछ लोगों, जो इम्यूनो कौम्प्रोमाइज वाले मरीज होते हैं, को इस की शिकायत होती है. अधिकतर कैंसर के मरीज, जिन की कीमोथेरैपी चल रही हो, अनकंट्रोल्ड डायबिटीज के मरीज, किडनी या लंग्स ट्रांसप्लांट किए गए मरीज आदि की इम्यूनिटी बेहद कम होती है, इसलिए उन में इस फंगस के फैलने का अवसर आसानी से मिल जाता है.
ये भी पढ़ें- घरेलू नुस्खे हैं कितने कारगर
यह अवसर वाला फंगस है. इसलिए यह नाक द्वारा साइनस से होते हुए आंख या जबड़े में पहुंच जाता है. अगर ध्यान न दिया गया तो यह आगे मस्तिष्क तक भी पहुंच सकता है. कोरोना के साथ क्यों बढ़ा ब्लैक फंगस का खतरा शुरुआत में यह फंगस इन्फैक्शन उन कोविड मरीजों तक सीमित था, जो गंभीर डायबिटीज या कैंसर के मरीज थे अथवा जो किसी दूसरी बीमारी के लिए इम्यूनो सप्रेसैंट थेरैपी पर थे. लेकिन हाल ही में सामान्य मरीजों में इस के तीव्र प्रसार का कारण है. कोरोना के इलाज के दौरान स्टेरौयड का विवेकहीन प्रयोग. लंबे समय तक स्टेरौयड का हाई डोज ब्लैक फंगस को पनपने का मुख्य कारण है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि स्टेरौयड हमारी इम्यूनिटी को कम करता है और इस में ब्लड शुगर लैवल बढ़ाने की प्रवृत्ति होती है. लिहाजा, जिन को डायबिटीज नहीं है,
उन में भी स्टेरौयड ब्लैक फंगस इन्फैक्शन को फैलने के लिए अनुकूल एनवायरमैंट बना देता है. अभी डेक्सामेथासोन और मिथाइलप्रेड्नीसोलोन नामक सिस्टमिक स्टेरौयड का कोविड उपचार में प्रयोग हो रहा है. ये ड्रग्स मौडरेट कोविड के उपचार के लिए जारी सरकारी गाइडलाइन का हिस्सा हैं और औक्सीजन के अलावा कोविड का प्रभावी उपचार माने जाते हैं. रिकवरी ट्रायल में कोविड के कारण हौस्पिटलाइज्ड मरीजों में और रैस्पिरेट्री फैल्योर के कारण जिन को बाहरी औक्सीजन या मैकेनिकल वैंटिलेटर की जरूरत है, उन में इन्हें बहुत प्रभावी पाया गया है. अभी तक कोविड का कोई भी इलाज नहीं है और ऐसा कोई ड्रग भी नहीं है, जो कोविड वायरस को मार सके. इस बीच कई स्टेरौयड सेवियर ड्रग के रूप में सामने आए हैं, जिन में गंभीर मामलों में बीमारी को नियंत्रित करने की क्षमता है और इस का बड़े स्तर पर प्रयोग भी हो रहा है. लेकिन अगर इन का गलत प्रयोग हुआ तो यह म्यूकरमाइकोसिस का कारण बन सकते हैं.
विशेषज्ञों ने बारबार यह सलाह दी है कि स्टेरौयड का प्रयोग केवल मौडरेट मामलों में किया जाए. रिकवरी ट्रायल के नतीजों से भी पता चलता है कि डेक्सामेथासोन का उन हौस्पिटलाइज्ड मरीजों में प्रयोग, जो बाहर से औक्सीजन नहीं ले रहे थे, से उन की मृत्युदर में वृद्धि हुई है. एम्स के डायरैक्टर डा. रणदीप गुलेरिया ने कोविड के शुरुआती चरणों में ही स्टेरौयड लेने से संबंधित नुकसान के बारे में आगाह किया था. मगर उन की बातों को गंभीरता से नहीं लिया गया. आज ज्यादातर अस्पतालों में कोरोना मरीजों का इलाज स्टेरौयड के द्वारा ही हो रहा है. यहां तक कि घर में आइसोलेट कोरोना के कम लक्षणों वाले मरीजों को भी स्टेरौइड दिए जा रहे हैं. इस ने ब्लैक फंगल इन्फैक्शन को बढ़ने के खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है. दिल्ली बहल क्लिनिक की डा. नीना बहल कहती हैं, ‘‘स्टेरौयड केवल डाक्टर की देखरेख में लेना चाहिए. कोई भी मरीज अपनी मरजी से स्टेरौयड न ले. स्टेरौयड ऐसी दवाई नहीं है, जो बिना डाक्टर की सलाह के ली जाए. स्टेरौयड की टाइमिंग और ड्यूरेशन बहुत महत्त्वपूर्ण है, विशेषकर कोविड के मामलों में.
शुरुआती 5-7 दिनों में स्टेरौयड नहीं लेना चाहिए. उस के बाद भी मरीज की हालत देख कर स्टेरौयड देने का फैसला डाक्टर को लेना चाहिए. उपचार में स्टेरौयड का इस्तेमाल बहुत सोचसम झ कर किया जाना चाहिए, क्योंकि इस से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता घटती है, जो फंगस को फैलने का मौका देती है. होम आइसोलेशन में रहने वाले ऐसे मरीज जो बगैर दवाओं के ठीक हुए हैं, उन्हें डरने की जरूरत नहीं है. अगर स्टेरौयड की कम डोज ली है तो भी घबराने की जरूरत नहीं है. यह बीमारी आमतौर पर उन मरीजों को हो रही है, जिन की इम्यूनिटी बहुत कम हो गई है और जिन्हें स्टेरौयड की हैवी डोज दी गई है. कैसे दिखाई देते हैं लक्षण डा. अलकेश कहते हैं, ‘‘मेरे पास म्यूकरमाइकोसिस का एक ऐसा रोगी आया था. उस को यह समस्या कोविड ठीक होने के थोड़े दिनों बाद हुई थी. कुछ रोगी ऐसे हैं, जिन को कोविड इन्फैक्शन शुरू होने के साथसाथ ही म्यूकरमाइकोसिस शुरू हो गया था.
मैं ने अधिकतर मरीज कोविड से रिकवर होने के बाद देखे हैं. इस में मरीज की आंखों के नीचे लाली और सूजन आ गई थी. साथ ही, उसी तरफ की नाक भी ब्लौक हो गई थी. मु झे पता लग गया था कि यह म्यूकरमाइकोसिस का केस है.’’ डाक्टरों की मानें, तो कोविड से रिकवर हो चुके मरीजों में अगर चेहरे पर सूजन, खासकर आंखों और गालों के आसपास नजर आए तो सचेत हो जाना चाहिए. ये फंगल इन्फैक्शन के लक्षण हैं. इस के साथ ही नाक बहना, नाक बंद रहना और सिरदर्द इस के अन्य लक्षण हैं. अगर किसी को यह शुरुआती लक्षण नजर आ रहे हैं, तो उसे तुरंत ओपीडी में बायोप्सी कराना चाहिए और जितना जल्दी हो सके, एंटीफंगल थेरैपी शुरू करनी चाहिए.
ब्लैक फंगस इन्फैक्शन का इलाज संभव है लेकिन सफलता की दर और उपचार का प्रकार कुछ बातों पर निर्भर करता है. पहला तो यह कि इन्फैक्शन किस स्टेज पर है. यह तय करेगा कि मरीज को बचाया जा सकता है या नहीं. उपचार कैसे होगा, वह इस बात पर भी निर्भर करता है कि किस अंग में इन्फैक्शन है. घाव को ठीक करने के लिए बड़ी सर्जरी की जरूरत भी पड़ सकती है. फंगस के भयावह प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वाराणसी के बीएचयू अस्पताल में पिछले दिनों 2 मरीजों के औपरेशन के बाद ब्लैक फंगस से पीडि़त एक कोरोना संक्रमित महिला का औपरेशन हुआ. इस महिला में ब्लैक फंगस का असर बहुत ज्यादा हो रहा था.
फंगस की वजह से उस का चेहरा काला पड़ गया था. उस की एक आंख निकालने के साथ ही एक तरफ का जबड़ा और उस के नीचे की हड्डियां भी निकालनी पड़ी हैं. कोरोना मरीजों में म्यूकरमाइकोसिस के बढ़ते खतरे के बीच डाक्टरों का कहना है कि हैवी डोज स्टेरौयड लेने वालों या वह मरीज, जो हफ्तेभर आईसीयू में इलाज करा के घर लौटे हैं, उन्हें ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. इन मरीजों की नाक में दिक्कत और सांस फूलने की शिकायत पर ईएनटी विशेषज्ञ या चैस्ट रोग विशेषज्ञ से सलाह लें. ब्लैक फंगस खून के जरीए आंख, दिल, गुरदे और लिवर व पैंक्रियाज तक हमला बोलता है. इस से अहम अंगों पर असर पड़ सकता है. आंखों में तेज जलन और पुतलियों में परेशानी होने पर तुरंत नेत्र रोग विशेषज्ञ से संपर्क करें, नहीं तो रोशनी जा सकती है. समय पर उपचार जरूरी कोरोना के बाद अब ब्लैक फंगस के जिस तरह के मामले आ रहे हैं, वे डराने वाले हैं. इस की मृत्युदर भी काफी चौंकाती है,
इसलिए समय पर इस का उपचार जरूरी है. डाक्टर अलकेश का कहना है, ‘‘ब्लैक फंगस के इलाज के लिए पहले दूरबीन से उस की जांच की जाती है, जिस में बायोप्सी कर इस बीमारी को कन्फर्म किया जाता है. संदेह होने पर एमआरआई भी करवाना पड़ता है. इस मरीज का म्यूकरमाइकोसिस मस्तिष्क तक पहुंच चुका था. मैं ने दूरबीन की सहायता से आंखों के नीचे से फंगस को साफ किया, जिस से उसे बहुत आराम हुआ.’’ प्रिवैंशन यानी बीमारी हो ही नहीं, इस के लिए हाई रिस्क वाले मरीज को खोजना पड़ता है और काफी सोचविचार कर उस का इलाज किया जाता है. कोविड से संक्रमित डायबिटीज के मरीज को डाक्टर की सलाह से दवा, स्टेरौयड के इंजैक्शन आदि लेना पड़ता है. लेकिन डर इस बात से है कि आजकल अधिकतर लोग फोन से पूछ कर या व्हाट्सऐप पर देख कर दवाई ले लेते हैं, जो गलत है. डायबिटीज वाले मरीज के शुगर लैवल को लगातार मौनिटर करना पड़ता है.
मसलन, डाइट, दवाई समय से लेना और शुगर अनकंट्रोल होने पर डायबेटोलौजिस्ट की भी सहायता लेने की जरूरत पड़ती है. ब्लैक फंगस के मरीज को नाक की साफसफाई पर बहुत अधिक ध्यान देना पड़ता है. सर्जरी में जितना भाग म्यूकरमाइकोसिस से सड़ गया है, उसे निकालना पड़ता है. इसे सर्जिकल डीबराइडमैंट कहते हैं. इस में रोगी की बीमारी एमआरआई से देखने के बाद पता चलती है. रोगी में यह बीमारी जितनी फैली हो, उसे निकाला जाता है. कई बार यह फंगस केवल आंखों में ही नहीं, खून में भी आ जाता है. ऐसे में उसे कंट्रोल करने के लिए दवाई दी जाती है, जो एंटी फंगल होती है. एंटी फंगल दवाई 2 तरह की होती हैं- एम्फोटेरेसिन और पोसाकोनजोल. इन 2 दवाओं से इन्फैक्शन को फैलने से रोका जाता है. रोगी डाक्टर की निगरानी में रहते हैं, ताकि दवा का असर देखा जा सके. कई बार दूरबीन से देखने पर अगर बीमारी फिर से आगे फैल गई हो तो वापस सर्जरी करनी पड़ती है.
कई बार रोगी को एकसाथ कई सर्जरी का सामना करना पड़ता है. कभीकभी रोगी को बुखार आना और सांस लेने में तकलीफ होती है. म्यूकरमाइकोसिस मस्तिष्क और लंग्स का भी होता है, लेकिन सब से कौमन यह म्यूकरमाइकोसिस 80 से 85 प्रतिशत लोगों में पाया जाता है, जिस के लक्षण बाहर से ही दिखते हैं. इस में जितनी जल्दी आप इलाज के लिए समय देंगे, यह उतनी जल्दी खत्म होगा. सर्जरी द्वारा चेहरे से निकाले गए भाग को प्लास्टिक सर्जन, रिकंस्ट्रक्शन या प्रोस्थैटिक की सहायता से ओरिजिनल बना देते हैं. इस से मरीज हीनभावना से ग्रस्त नहीं होता. डा. अलकेश अग्रवाल कहते हैं, ‘‘भारत में जो दवाई किसी की जान बचाती है, लोग उस की कालाबाजारी करने लगते हैं.
एम्फोटेरेसिन भी ब्लैक फंगस को कंट्रोल करने के लिए दी जाती है, लेकिन अब वह बाजार में नहीं है. जो दवा 3 से 4 हजार रुपए में मिलती थी, वह अब 8 से 10 हजार रुपए की हो गई है. ‘‘जिन के पास पैसे हैं, वे उसे खरीद लेंगे, लेकिन गरीब इंसान क्या करेगा, यह सोचने वाली बात है. एक दिन में दवा के 5 डोज लगते हैं. ऐसे में 10 हजार रुपए की एक डोज की कीमत होने पर रोज 50 हजार रुपए खर्च होंगे. घर पर संभव नहीं ब्लैक फंगस का इलाज डाक्टरों के अनुसार, ब्लैक फंगस से ग्रसित मरीज घर नहीं बैठ सकता. उसे अस्पताल जाना ही होगा. कोरोना संक्रमित, कम प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोग, जो लंबे समय से आईसीयू में रहे, कैंसर, कीमोथेरैपी वाले मरीज, स्टेरौयड के उपयोग करने वाले मरीज और अनियंत्रित मधुमेह से पीडि़त मरीजों में ज्यादातर फंगस से ग्रसित हो रहे हैं. भारत में लोगों ने लापरवाही बरती, दवाओं के मामले में बहुतेरे मरीज घर पर भी स्टोरौइड ले रहे थे.
ब्लैक फंगस उन मरीजों में ज्यादा देखा जा रहा है, जिन्होंने घर में रह कर कोरोना का इलाज किया है या प्राइवेट अस्पताल में जिन का इलाज हुआ है. सरकारी अस्पताल में ऐसे कम मरीज देखे गए हैं. डाक्टरों के अनुसार, ब्लैक फंगस अलगअलग तरह से नाक के नथुने, साइनस, रेटिना वाहिकाओं और मस्तिष्क को प्रमुखता से प्रभावित करता है. जानकारी के अनुसार, इस बीमारी से निबटने के लिए डाक्टर लिपोसोमल एंफोटेरेसिरिन बी नाम के इंजैक्शन का उपयोग करते हैं. इस दवा के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने 5 और कंपनियों को इसे बनाने का लाइसैंस दिया है. दूसरी ओर यह जानकारी भी सामने आ रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ये निर्देश दिए गए हैं कि यह दवा दुनिया के जिस भी कोने में उपलब्ध हो, उसे तुरंत भारत लाया जाए.
कालाबाजारी चिंता का विषय ब्लैक फंगस पर अभी तक देश के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से कोई गाइडलाइन जारी नहीं हुई है और न ही इस के इलाज से संबंधित दवाएं और इंजैक्शन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं. जिस तरह इस फंगस डिजीज को फैलते हुए देखा जा रहा है, इस की दवाओं और इंजैक्शन की कालाबाजारी की आशंका भी बढ़ती जा रही है. ऐसे में हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश से ऐसी खबरें आने भी लगी हैं. कानपुर में पुलिस ने 2 ऐसे शातिर लोगों को पकड़ा भी है, जिन के पास से 68 इंजैक्शन बरामद किए गए थे. ये आरोपी एक इंजैक्शन 11 हजार रुपए में बेच रहे थे. ऐसे ही हरियाणा से भी 2 लोगों को एम्फोटेरिसन- बी इंजैक्शन ब्लैक करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. बताया जा रहा है कि इस अपराध में दिल्ली, हरियाणा और नोएडा के 15 अलगअलग फार्मा कंपनियों के अधिकारी शामिल हैं, जो व्हाट्सऐप पर ग्रुप बना कर कालाबाजारी को अंजाम दे रहे थे.
अगर समय रहते केंद्र और राज्य सरकारें उपयुक्त कदम नहीं उठाती हैं, तो रेमडेसिविर की तरह ब्लैक फंगस को खत्म करने वाले इंजैक्शंस का भी बाजार में अकाल पड़ जाएगा और जनता निकृष्ट सरकार और कालाबाजारी गिरोहों के हाथों मारी जाएगी. सिर्फ भारत में ही क्यों फैल रहा ब्लैक फंगस देश में कोरोना महामारी के साथ ब्लैक फंगस यानी म्यूकरमाइकोसिस की मार मरीजों की कमजोर इम्यूनिटी और स्टेरौयड के कारण है. डाक्टरों द्वारा इस पर अलगअलग थ्योरी पेश की जा रही है. लेकिन सवाल यह उठ रहा है कि जिस तरह भारत में ब्लैक फंगस बेकाबू हो रहा है, उस तरह किसी अन्य देश में नहीं है. आखिर ऐसा क्यों? भारत में अब तक 11 हजार से अधिक ब्लैक फंगस के मामले सामने आ चुके हैं. ग्रामीण इलाकों में यदि यह पांव पसार रहा है तो उस का कोई आंकड़ा अभी उपलब्ध नहीं है. कई राज्य म्यूकरमाइकोसिस को महामारी अधिनियम के तहत अधिसूचित बीमारी घोषित कर चुके हैं.
भारत में ब्लैक फंसग से जो पीडि़त पाए जा रहे हैं, ज्यादातर कोरोना संक्रमण या फिर शुगर के मरीज हैं. डाक्टरों के अनुसार, गंदे मास्क का लगातार प्रयोग, हाई शुगर और कुछ मामलों में इंडस्ट्रियल औक्सीजन, जिस पर लोग ज्यादा निर्भर हैं, समेत अन्य कारणों से फंगस इन्फैक्शन पनप रहा है. इस के अलावा शरीर में धीमी उपचारात्मक क्षमता के कारण भी मरीजों में ब्लैक और व्हाइट फंगस इन्फैक्शन पैदा हो रहा है. अधिक मात्रा में स्टोरौइड लेना, वातावरण की परिस्थितियां, इंडस्ट्रियल औक्सीजन का इस्तेमाल करना, जिंक का ज्यादा इस्तेमाल होना वगैरह ये सब कारण हो सकते हैं, लेकिन ये फिलहाल थ्योरी हैं. कुछ भी अभी तक साबित नहीं हो सका है. गौरतलब है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के रोग नियामक नियंत्रण और रोकथाम केंद्र के आंकड़ों के अनुसार, म्यूकरमाइकोसिस या ब्लैक फंगस की मृत्युदर 54 प्रतिशत है. भारत की वयस्क आबादी में शुगर के अनुमानित 73 मिलियन रोगी हैं.
कोरोना को नियंत्रित करने के लिए स्टेरौयड के उपयोग से शुगर का स्तर बढ़ जाता है, जिस से डायबिटीज संबंधी जटिलताएं भी बढ़ जाती हैं. भारत के मुकाबले दूसरे अन्य देशों में अनमौनिटर्ड स्टेरौयड का इस्तेमाल नहीं हुआ है. फिलहाल इस पर जब रिसर्च होगी, तब पूरी तरह से पता चल सकेगा कि ऐसा क्यों हुआ? डाक्टर के परामर्श के बिना खुद दवाएं लेना भी बीमारियों को बढ़ाने का कारण है, जिस की वजह से मरीजों के ठीक होने में सामान्य से अधिक समय लगता है. इस कारण मरीजों में ज्यादा जटिलताएं पैदा हो रही हैं और कई प्रकार के इन्फैक्शन भी बढ़ रहे हैं. कई लोग शुगर को रोजाना चैक नहीं करते हैं और कुछ शुगर की रैगुलर दवा नहीं खाते हैं.
. ब्लैंक फंगस के लिए केवल स्टेरौइड जिम्मेदार नहीं मौलाना मैडिकल आजाद कालेज, दिल्ली में त्वचा विभाग के पूर्व डायरैक्टर व प्रोफैसर तथा संतोष मैडिकल कालेज, गाजियाबाद और विनायक स्किन एंड कौस्मेटोलौजी क्लीनिक, दिल्ली के प्रमुख डा. विजय कुमार गर्ग का कहना है कि ब्लैक फंगस कोई नई बीमारी नहीं है. इसे म्यूकोरमाइसोसिस कहते हैं. म्यूकोरमाइकोसिस का कलर असल में व्हाइट होता है. जब यह फंगस हमारी बौडी में प्रवेश करता है तो शरीर के कई हिस्सों में टिशू को डैमेज कर देता है जिस के कारण वह हिस्सा काला हो जाता है. यह फंगस मौके का फायदा उठा कर यह शरीर में प्रवेश कर जाता है. कहने का अर्थ है कि जो डायबिटीज के मरीज हैं,
कैंसर से ग्रसित हैं या फिर एचआईवी पौजिटिव हों उन के ब्लैक फंगस के चांसेज ज्यादा हैं क्योंकि इन की इम्यूनिटी पावर कम होती है. ऐसे मरीजों को यदि कोविड हो गया तो ये हाई रिस्क में आ जाते हैं. कोविड के वर्तमान हालात में कोरोना मरीजों को स्टेरौइड दिया जाता है. स्टेरौइड दरअसल लाइफ सेविंग ड्रग है लेकिन इस के गलत इस्तेमाल से ब्लैक फंगस हो सकता है इसलिए कभी भी स्टेरौइड को डाक्टर की सलाह लिए बगैर नहीं लेना चाहिए. हालफिलहाल लोगों ने डायरैक्ट कैमिस्ट शौप से ले कर इस का इस्तेमाल किया. इसलिए सरकार को यह तय करना चाहिए कि बिना डाक्टर के प्रिस्क्रिप्शन के स्टेरौइड दुकानदार किसी को न दें. लोगों ने माइल्ड केसेस में भी स्टेरौइड का इस्तेमाल किया जबकि सिवियर केसेस में यह दिया जाता है और उस का भी एक टाइम पीरियड निर्धारित होता है. लेकिन केवल स्टेरौइड को ही ब्लैक फंगस के लिए जिम्मेदार ठहराना गलत है.
यह फंगस हवा व मिट्टी से भी हो सकता है. यह कोरोना की तरह नहीं फैलता. ब्लैक फंगस को पहचानने के लिए खासकर कोविड से जो ठीक हुए हों उन को अपना शुगर लैवल कंट्रोल रखना होगा और समयसमय पर मौनिटर करते रहना चाहिए. एक तरफ सिरदर्द हो रहा हो, सांस लेने में दिक्कत आ रही हो, नाक से खून या काला पदार्थ डिस्चार्ज हो रहा हो, एक तरफ का चेहरा सुन्न महसूस हो रहा हो, सांस लेने में दिक्कत आ रही हो, नाक से खून या काला पदार्थ डिस्चार्ज हो रहा हो, आंख की नजर कमजोर हो रही हो या डबल दिख रहा हो. ये सब शुरुआती लक्षण हैं. यदि ऐसा महसूस हो तो तुरंत डाक्टर को दिखाएं. इस में देर न करें क्योंकि यह फंगस शरीर में तेजी से फैलता है. इस बीमारी को कन्फर्म करने के लिए डाक्टर नेजल इंडोस्कोपी और बायोप्सी की जांच कर सकते हैं उस के बाद ही कई तरह के एंटी फंगल का इंजैक्शन व दवाई दी जाती है.