वे तो कहीं से भी पंडितजी जैसे नहीं लगते थे. उन का नाम भी कूडे़मल था. वे महीनों इसलिए नहीं नहाते थे कि साबुन खर्च होगा और जब नहाते थे, तभी जांघियाबनियान बदलते थे. एक दिन रास्ते में मिलने पर मैं ने उन से पूछ ही लिया, ‘‘क्यों पंडितजी, कूड़े से काम नहीं चला क्या, जो मल भी साथ में जोड़ दिया?’’

पंडितजी सांप की तरह फुंफकार कर रह गए, पर डस नहीं पाए, क्योंकि भरे बाजार में वे तमाशा नहीं बनना चाहते थे. बाजार में दुकानदारों से दान वसूल करने के लिए वे सुबहसुबह पहुंच जाते थे. दुकानदार भी पंडितजी के मुंह नहीं लगना चाहते थे, इसलिए कुछ रुपए दे कर उन से पीछा छुड़ाते थे. पंडितजी के दर्जनभर बच्चे थे. 6 लड़के और 6 लड़कियां. उन में से एक भी ऐसा नहीं था, जो 5वीं क्लास से ज्यादा पढ़ा हो. पंडितजी खुद भी नहीं पढ़े थे. कुछ मंत्र उन्होंने रट जरूर लिए थे, जिन का मतलब वे खुद भी नहीं जानते थे. शब्दों से ज्यादा वे आवाज पर जोर देते थे, इसलिए शब्द किसी की समझ में नहीं आते थे और उन का काम चल जाता था. चूंकि उस इलाके में दूरदूर तक कोई दूसरा पंडित नहीं था, इसलिए कूड़ेमल के मजे थे. पर बुरा समय कह कर नहीं आता. एक दिन 2 अनजान लड़के पंडितजी के घर आए और पंडितानी से बोले, ‘‘पंडितजी ने परोसे के लिए चांदी के बरतन मंगाए हैं.’’

पंडितानी बेचारी सीधीसादी थी. उसे नहीं मालूम था कि जमाना कहां जा रहा है. फिर शक की कोई गुंजाइश भी तो नहीं थी. पंडितजी अकसर बरतन मंगवा लेते थे, इसलिए पंडितानी ने चांदी के बरतन उन लड़कों को दे दिए. शाम को पंडितजी जब अपने बच्चों के साथ घर लौटे, तो पंडितानी ने बरतनों का जिक्र किया. तब पंडितजी ने बताया कि उन्होंने तो बरतन लाने के लिए किसी को भी नहीं भेजा था. पर अब क्या हो सकता था.

पंडितजी खून का घूंट पी कर रह गए. पर वह उन चांदी के बरतनों को भुला नहीं पा रहे थे, जो सेठ बीरूमल के पिता की तेरहवीं में मिले थे. आखिर सेठों के बाप रोजरोज तो मरते नहीं.

पंडितजी अभी यह दुखड़ा भूले भी नहीं थे कि एक रोज उन के पीछे एक तिलकधारी

20 किलो दूध से भरी बालटी लिए उन के घर पहुंच गया और पंडितानी से बोला, ‘‘पंडितजी ने गाय खरीदी है. उसी का दूध भेजा है और 10 हजार रुपए लाने को कहा है.’’

घर में दूध आए तो कौन मना करता है, फिर पंडितानी की आंखों के सामने तो एक बढि़या गाय की तसवीर उभर रही थी. ऐसे में उन्होंने ज्यादा पूछताछ करने की जरूरत नहीं समझी. दूध की बालटी हिफाजत से रख कर पंडितानी ने संदूकची में रखे बंडलों में से 10 हजार रुपयों का एक बंडल दूध लाने वाले को दे दिया.

पंडितानी ने दूध को खूब औटाया और मावे की महक से मस्त हो गई. वह गाय को कहां बांधेगी, यही सोच रही थी कि पंडितजी और बच्चे वहां आ पहुंचे.

पंडितानी ने खुश हो कर पूछा, ‘‘गाय कहां बांध आए जी? मैं तो उस की आरती उतारने के लिए उतावली हो रही थी.’’

पंडितजी को लगा कि आज फिर घर में सेंध लग गई. उन्होंने सवालिया नजरों से अपनी प्यारी पंडितानी की ओर देखा. वह खुशी से चहकते हुए बोली, ‘‘जिन के दरवाजे पर गौ माता बंधी रहती है, वे लोग खुशनसीब होते हैं जी.’’

मगर यह पहेली पंडितजी को कतई समझ नहीं आ रही थी.

‘‘तुम किस गाय की बात कर रही हो?’’ पंडितजी ने ठहरी आवाज में पूछा.

‘‘वही, जिस का दूध आज शाम को आप ने भेजा था. वह भला आदमी तो स्टील की बालटी भी वापस नहीं ले गया. उसी ने तो बताया था कि आप ने गाय खरीदी है और 10 हजार रुपए मंगवाए हैं.’’

पंडितजी की आंखों का फ्यूज अचानक उड़ गया. उन्होंने दोनों हाथ अपनी छाती पर मारे और धड़ाम से जमीन पर गिर गए. लगता था कि अब वे कभी नहीं उठेंगे, मगर उन की बीवी को 7 पूतों का कोटा पूरा करना था और अभी तो कुल जमा 6 ही थे, इसलिए पंडितजी को उठना ही पड़ा.

‘‘10 हजार रुपए,’’ पंडितजी के मुंह से निकला. उन्होंने मिमियाती आवाज में कहा, ‘‘मैं ने पाईपाई जमा कर के यह रकम जोड़ी थी. मेरे साथ यह क्या हो गया?’’

अब तो थाने जाए बिना गुजारा नहीं था. पता नहीं, वह ठग क्यों उन के पीछे लगा था. रपट लिखतेलिखवाते आधी रात बीत गई. दारोगाजी बारबार ठग का हुलिया पूछते, पर पंडितजी क्या बताते. उन्हें उस के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था. पंडितानी ने भी चोर का चेहरा ठीक से नहीं देखा था. जिस ने भी यह किस्सा सुना, उस ने पंडितजी के साथ हमदर्दी जताई, पर इस से उन का घाटा पूरा होने वाला नहीं था. पर चारा भी क्या था. वह थकहार कर बैठ गए. एक शाम को फिर 2 लड़के पंडितजी के घर पहुंचे और पंडितानी से बोले, ‘‘पंडितजी थाने में बैठे हैं. दारोगाजी ने ठग को पकड़ लिया है. आप को चल कर पहचान करनी है.’’ भोलीभाली पंडितानी फिर झांसे में आ गई और तुरंत थाने चल दी. फिर वह कहां गई, किसी को कुछ मालूम नहीं.

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