अदालतों को विरोध बंद कराने के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. उस का उदाहरण दिल्ली के एक अतिरिक्त जिला ऐशन जज के फैसले से स्पष्ट है. फरवरी 20 में हुए उत्तर पूर्व दिल्ली में ङ्क्षहदूमुस्लिम दंगों में पकड़े गए लोगों की जमानत को देना इंकार करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि अगर एक सरकार विरोधी मोर्चे में कुछ दंगा होता है तो केवल दंगे करने वाले नहीं, हर जना जो उस मोर्चे में शामिल था, बराबर का अपराधी है.

अदालत का तर्क है कि दंगाइयों की भीड़ में हर व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिए कि उन में से एक की भी गलत हरकत सब को अपराधी बना सकती है. मोहम्मद बिलाई को जमानत देने से इंकार करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि यह सफाई कि वह तो एक अन्य किसी भीड़ में शामिल व्यक्ति के बयान पर पकड़ा गया था और दंगों में उस का कोई हाथ नहीं था, काफी नहीं है.

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पुलिस के पास न तो उस के मोबाइल का रिकार्ड था कि वह कहां था न सीसीटीवी कैमरों के फुटेज जिस में वह दिख रहा हो फिर भी उसे दंगाई मान लिया गया और जमानत देने से इंकार कर दिया गया.

जनतंत्र में विरोध करने का हक हरेक को है और एक भीड़ में शामिल हो कर किसी मुद्दे पर विरोध करना मौलिक अधिकार है. इस मौलिक अधिकार पर कानून भी बनाए जा रहे हैं और अदालतों से सकरार के मनमाफिक फैसले भी लिए जा रहे हैं. जेलों में ठूंस कर एक तरह से जनतंत्र की हत्या खुली तौर पर हो रही है और अब बचने के लिए बहुत मोटा पैसा और सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ रहा है.

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