5 राज्यों के विधानसभा चुनावों का रोमांच चरम पर है. भाजपा धार्मिक शोरशराबे के जरिए चुनावी नैया पार लगाने की कोशिश कर रही है जो पश्चिम बंगाल में सिमट कर रह गया है, जहां लड़ाई ममता बनाम मोदी की हो कर रह गई है. बाकी राज्यों मे क्षेत्रीय दलों का दबदबा है. कांग्रेस अपने मुनाफे के लिए जोड़तोड़ में लगी है. देखना दिलचस्प होगा कि मतदाता किसे चुनता है.

हम बंगाल में तुष्टिकरण खत्म करेंगे ताकि लोग सरस्वती पूजा- रामनवमी मना पाएं. बंगाल की हालत बदतर कर दी गई है. जय श्रीराम का नारा लगता है तो दीदी बोलती हैं कि उन का अपमान करते हैं. -अमित शाह, गृहमंत्री, दक्षिण परगना के काकद्वीप में 18 फरवरी, 2021

बंगाल में तुष्टिकरण की राजनीति हो रही है. यही राजनीति बंगाल में लोगों को मां दुर्गा की पूजा से रोकती है, उन के विसर्जन से रोकती है.  -नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री, हुगली में 22 फरवरी, 2021

बंगाल के अंदर जय श्रीराम के नारे को प्रतिबंधित करने का काम किया जा रहा है. लेकिन याद रखें, भारत की जनता राम के बगैर कोई काम नहीं करती. जो रामद्रोही हैं उन का भारत और बंगाल में कोई काम नहीं. बंगाल के अंदर छल, छद्म और धोखे से लव जिहाद की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है. हम लोगों ने यूपी में कानून बना दिया. लेकिन बंगाल के अंदर चूंकि तुष्टिकरण की राजनीति है इसलिए न तो गौ तस्करी को यहां की सरकार रोक पा रही है और न ही लव जिहाद की उन घातक गतिविधियों को जिन का दुष्परिणाम आने वाले समय में बहुत खतरनाक होने वाला है. –योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश, मालदा रैली में 2 मार्च, 2021

अगर ममता बनर्जी जीतती हैं तो हिंदू सुरक्षित नहीं रहेगा. उसे दबाया जाएगा. ममता बनर्जी अब क्यों चिंतित हैं, अपने हिंदू सरनेम को बारबार क्यों बता रही हैं और कल उन्होंने चंडीपाठ क्यों किया? ममता ने जानकीनाथ मंदिर में श्रीराम की प्रार्थना चप्पल पहने हुए की थी. -शुभेंदु अधिकारी, भाजपा उम्मीदवार, नंदीग्राम, 10 मार्च, 2021

दक्षिणी राज्यों के दौरे पर गए गृहमंत्री अमित शाह तिरुअनंतपुरम में 29 मठोंमंदिरों के साधुसंतों से मिले, वहां के 51 फीसदी हिंदू वोटरों को साधने की कोशिश की.
– एक समाचार – तिरुअनंतपुरम 7 मार्च, 2021

इस बार असम विधानसभा चुनाव में मोदी लहर नहीं है. मुझे निशाने पर ले कर भाजपा मुसलमानों को दुश्मनों की तरह पेश कर हिंदू मतों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रही है. लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी को इस में कामयाबी नहीं मिलेगी.- बदरुद्दीन अजमल, अध्यक्ष, एआईयूडीएफ, एक इंटरव्यू में 14 मार्च, 2021

ममता दीदी ने बंगाल को हिंदू व मुसलिम में बांट दिया. 5 हजार से ज्यादा गांव ऐसे हैं जहां हिंदुओं का नामोनिशान नहीं है. सरस्वती पूजा और दुर्गा पूजा से उन्हें परहेज है. जब अयोध्या में भूमिपूजन हो रहा था तब बंगाल में कर्फ्यू लगा दिया गया था. बंगाल में परिवर्तन हो कर रहेगा. -शिवराज सिंह चौहान, मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश, हावड़ा साउथ की रैली में 28 फरवरी, 2021 ?

देश के 5 राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव भी चुनाव तो कम, धार्मिक इवैंट व स्टंट ज्यादा लग रहे हैं जिन में लग ऐसा भी रहा है कि मतदाता विधायक या मुख्यमंत्री नहीं चुन रहे बल्कि अपने सनातनी हिंदू होने न होने का प्रमाण दे रहे हैं. इत्तफाक से पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुदुचेरी में सनातनी हिंदू, हिंदीभाषी राज्यों की तरह संख्या में उन के बराबर नहीं हैं, इसलिए चुनाव और ज्यादा दिलचस्प हो चला है.

2 मई को आने वाले नतीजे यह नहीं बताएंगे कि कौन जीता और कौन हारा, बल्कि यह बताएंगे कि चुनावी जनगणना में तादाद किस की ज्यादा निकली और जनता ने किसे मठाधीश चुना. सीधेतौर पर कहा जाए तो यह चुनावी घमासान यह बताएगा कि राम और नई शक्ल लेते वाम में से कौन चला. पांचों राज्यों में मुसलमानों, ईसाइयों सहित दलितों व आदिवासियों के खासे वोट हैं. लड़ाई इसी बात की है कि एक यानी भाजपा की तरफ हो गए सवर्णों को अगर दलितों, आदिवासियों के 20-25 फीसदी वोट भी मिल जाएं तो भगवा गैंग का हिंदू राष्ट्र का सनातनी सपना पूरी तरह साकार हो सकता है और वर्णव्यवस्था थोपने को ले कर अभी निराशहताश होने की जरूरत नहीं. भाजपा इन राज्यों में चुनाव कम लड़ रही है, प्रयोग ज्यादा कर रही है कि वोट धर्म और राम के नाम पर क्यों नहीं डलवाया जा सकता. जीतहार इन राज्यों में उस के लिए खास माने नहीं रखती, माने रखती है तो यह बात कि लोग जब वोट डालें तो उन के जेहन में लोकतंत्र कम धर्मतंत्र ज्यादा होना चाहिए.

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बात कम दिलचस्प नहीं है कि भाजपा चाहती यह भी है कि उसे वोट न देने वाले भी अपनेआप में यह समझ लें कि वे किस वजह से उसे वोट नहीं दे रहे. अगर कोई धर्म, समुदाय या जाति हिंदू राष्ट्र के उस के एजेंडे से सहमत नहीं तो यह भाजपा और उसे हांकने वालों, खासतौर से आरएसएस के लिए ज्यादा सिरदर्दी या चिंता की बात नहीं है जो आजादी मिलने के पहले से ही लोगों को सहमत करने के अभियान में जुटे हैं. उन्हें 2 मई, 2021 को एक आंकड़ा भर चाहिए कि अभी कितने और लोगों को सहमत करने के लिए प्रपंच रचे जाने हैं जिस से भविष्य की कार्ययोजना बना कर अखाड़ों में हिंदूवादी, गमछाधारी पट्ठों की भरती के लिए वैकेंसियां निकाल कर बेरोजगार हिंदू युवाओं को रोजगार पर लगाया जा सके.

यह प्रयोग या सिलसिला नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के बाद 2014 से ही चल रहा है जिस में हिंदीभाषी राज्यों में भगवा गैंग का मकसद लगभग पूरा हो चुका है. अब बारी उन
5 राज्यों की है जहां ‘धर्म’ की ‘विधिवत’ स्थापना नहीं हुई है. मकसद पूरी तरह यह नहीं है कि इन राज्यों में हिंदूमुसलमान या हिंदूईसाई ही हों, बल्कि यह है कि इन में हिंदू पहले हिंदू तो हो जिस से अपने जैसे या अपने वाले हिंदुओं की छंटनी की जा सके.

कुरुक्षेत्र बना बंगाल
कभी पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए सपना हुआ करता था लेकिन यह सालों की कोशिशों की देन है कि अब वहां की हकीकत यह है कि वह दूसरे नंबर पर लड़ाई के पहले ही मान ली गई है. मीडिया अपनी ड्यूटी शिद्दत से बजाते हल्ला मचा रहा है. ड्यूटी का मतलब यह है कि कैमरों और कलमों का फोकस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा जैसे दर्जनभर दिग्गजों और गला फाड़फाड़ कर जय श्रीराम के नारे लगा रही प्रायोजित भीड़ पर रहे.

नजर टीएमसी की मुखिया और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु की तरह है. जो भाजपाई दिग्गजों से अकेले जूझ रही हैं. उन का साथ छोड़ कर जाने वालों का भगवा खेमा वैसे ही स्वागत करता है जैसे विभीषण, सुग्रीव और अंगद वगैरह का राम दल करता था क्योंकि जीत के असल किरदार तो यही भेदिए होते हैं.

नई बात बंगाल से यह सामने आ रही है कि असली हिंदू कैसा होना चाहिए. भगवा गैंग तिलकधारियों, जनेऊधारियों और भगवा गमछे वालों को ही असली हिंदू मानता है जो इन धार्मिक चिह्नों को धारण न करे उसे झट से काफिर करार दे दिया जाता है, जैसे ममता बनर्जी को ले कर कोशिश की गई.
हिंदू कार्ड पर बवंडर बीती 9 व 10 मार्च को ममता बनर्जी जब नंदीग्राम, जहां से वे चुनाव लड़ रही हैं, पहुंचीं और एकाएक ही यह बोलीं कि ‘मेरे साथ हिंदू कार्ड मत खेलो, मैं भी हिंदू हूं और घर से चंडीपाठ कर के निकलती हूं.’ खुद को हिंदू जताने के लिए उन्होंने मंच से दुर्गामंत्र का भी पाठ कर डाला और शिव मंदिर जा कर पूजाअर्चना भी की. यह उन की गलती है क्योंकि फिलहाल हिंदू होने का सर्टिफिकेट केवल राष्ट्रीय स्यवंसेवक संघ के मारफत मिल सकता है. बंगाल में अपना नया हिंदुत्व गढ़ कर ममता ने भाजपा को दिक्कत में डालने में तो कामयाबी पा ली है.

जहर से जहर काटने का यह टोटका भगवा खेमे में खलबली मचाने के लिए काफी था. भाजपा ने ट्वीट के जरिए बारबार कहा कि ममता बनर्जी को हिंदू होने का ढोंग नहीं करना चाहिए. एक तरह से भाजपा ने ममता को पापिन कह कर अपने स्त्रीविरोधी संस्कार ही उजागर कर दिए जो यह निर्देश देते हैं कि औरत पांव की जूती, दासी, पशुवत और शूद्रतुल्य है. उसे धर्मकर्म करने का अधिकार नहीं. एक वीडियो शेयर तक किया गया और टीएमसी छोड़ कर भाजपा में गए हिंदुत्व के नए ठेकेदार शुभेंदु अधिकारी, जो नंदीग्राम सीट पर ममता बनर्जी के सामने लड़ने की रस्म सी निभा रहे हैं, ने एक कदम आगे बढ़ते कहा कि, ‘ममता ने गलत मंत्रोच्चारण कर बंगाल की संस्कृति का बारबार अपमान किया है. इस से पहले उन्होंने कई बार भगवान राम का अपमान किया है. जो बंगाल का अपमान करते हैं उन को बंगाल की जनता नहीं चाहती है.’

भाजपा ममता बनर्जी के पूजापाठ और मंदिर जाने के टोटके से बौखलाई इसलिए कि दिल्ली चुनाव के वक्त अरविंद केजरीवाल भी हनुमान मंदिर जा कर माथा टेकने को मजबूर हो गए थे और जनता ने उन की इस पाखंडी अदा को हाथोंहाथ लिया था यानी लोग खुद धार्मिक पाखंडों के आदी हैं और तरक्की नहीं चाहते हैं. भाजपा के लिए तो यह वरदान है ही लेकिन ममता और अरविंद केजरीवाल जैसे जुझारू नेताओं का भी उन के आगे सिर झुका देना दयनीय और चिंता की बात है. पश्चिम बंगाल के लोगों की भी धार्मिक भावनाएं ममता के धार्मिक पाखंडों के चलते उम्मीद के मुताबिक नहीं भड़कीं क्योंकि देवीदेवताओं के नाम पर वहां विष्णु और उस के अवतार राम, कृष्ण कम बल्कि दुर्गा और काली इफरात से पूजी जाती हैं.
दीदी के नाम से जानी जाने वाली ममता को बंगाल का बड़ा गरीब तबका और महिलाएं किसी देवी से कम नहीं मानते. ऐसे में वहां राम का नाम सत्ता दिला पाएगा, इस में शक है. धार्मिक होहल्ले की आड़ में भाजपा एक हद तक मोदी व उन की सरकार की नाकामियों पर, झीना ही सही, परदा डालने की कोशिश करती नजर आई. उस की केंद्र सरकार के कामकाज तो दीगर हो गए.

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दिलचस्प हैं आंकड़े
बंगाल के इतिहास में दिलचस्पी न रखने वाले भी मौटेतौर पर यह जानतेसमझते हैं कि कभी वहां सवर्णों, सामंतों और जमींदारों का राज था जिस में गरीब, दलितों पर बेतहाशा जुल्म बिना किसी लिहाज के ढाए जाते थे. पहले कांग्रेस के साथ ऊंची जातियों के लोगों ने और फिर वामपंथियों ने दलित आदिवासी व मुसलमानों के सहारे सत्ता हथियाए रखी. पर 2011 आतेआते लोगों को समझ आया कि कांग्रेस हो या कम्युनिस्ट पार्टियां, इन पर कब्जा तो उन्हीं ऊंची जाति वालों का है जो शासक और शोषक हैं. लिहाजा, क्यों न नई विचारधारा वाली ऊर्जावान ममता बनर्जी को मौका दिया जाए.

2011 विधानसभा के नतीजे हैरान कर देने वाले इस लिहाज से थे कि वामपंथी दबदबा एक झटके में वोटरों ने तोड़ दिया था और कांग्रेस-टीएमसी के गठबंधन को 226 सीटें मिली थीं जिन में से 184 उस के खाते में गई थीं. मौका भुनाते ममता बनर्जी ने वाकई में गरीब, दलितों के हित में काम किए जिस से उन की स्वीकार्यता और लोकप्रियता बढ़ती गई.

2014 के लोकसभा चुनाव में जब पूरे देश में मोदी लहर चल रही थी तब बंगाल इस से अछूता रहा था. इस चुनाव में भाजपा को 2 लोकसभा सीटें मिली थीं तब टीएमसी को 34 सीटें मिली थीं. भाजपा की उम्मीदों को झटका 2016 के विधानसभा चुनाव में लगा था. तब वह केवल 3 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. उलट इस के, टीएमसी 211 सीटें और अव्वल रही थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का असर पश्चिम बंगाल में देखने को मिला था जब भाजपा 42 में से न केवल 18 सीटें जीत ले गई थी बल्कि उस ने 121 विधानसभा सीटों पर बढ़त भी ले ली थी. टीएमसी को 22 सीटें 43.4 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं और वह फिर भी 164 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी. उस चुनाव में माकपा को सीट एक भी नहीं मिली थी.
जो सियासी पंडित 2019 के लोकसभा नतीजों को आधार मान कर कुंडली बांच रहे हैं उन्हें इस राज्य के पिछले नतीजों से ही सबक लेना चाहिए कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भारी अंतर होता है और यह कतई जरूरी नहीं कि किसी भी पार्टी की पिछली बढ़त कायम रहे. अगर ऐसा होता तो 2014 के लोकसभा चुनाव में 28 विधानसभा सीटों पर आगे रही भाजपा 2016 में 3 पर नहीं सिकुड़ कर रह जाती.
हिंदीभाषी राज्यों में भी यह उतारचढ़ाव देखने को मिलता है जिसे सरलता से दिल्ली से समझा जा सकता है. 2019 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी और सभी 7 सीटें ले जाने वाली भाजपा 70 में से 65 विधानसभा सीटों पर बढ़त पर रही थी लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 8 और आप को 62 सीटें वोटरों ने दी थीं.

इस लिहाज या गणित से तो भाजपा को बहुत ज्यादा उम्मीद पश्चिम बंगाल से नहीं रखनी चाहिए क्योंकि वहां ममता उतनी ही लोकप्रिय हैं जितने दिल्ली में अरविंद केजरीवाल हैं. इस की एक बानगी बीती 10 मार्च को देखने में आई थी जब नंदीग्राम से नामांकन दाखिल करने के बाद मंदिरों में दर्शन कर रहीं ममता एक धक्के या हादसे में घायल हो गई थीं तब पूरा बंगाल उन की सलामती की दुआ मांगने लगा था और लोग अस्पताल की तरफ टूटे पड़ रहे थे.

आड़े आ रहे दलित, मुसलमान और महिलाएं
पश्चिम बंगाल में सभी दलों की चिंता और प्राथमिकता 30 फीसदी मुसलिम वोटर नहीं, बल्कि 70 फीसदी हिंदू वोट हैं जिन में से 17 फीसदी दलित हैं. यह हर कोई मान रहा है कि इस बार भी मुसलमान थोक में टीएमसी के पक्ष में वोट करेंगे क्योंकि देश का माहौल बेहद बिगड़ा हुआ है जिस से मुसलमान हलकान हैं और हिफाजत की गारंटी उन्हें ममता में ही दिख रही है. यानी लड़ाई 70 फीसदी विभिन्न जातियों के हिंदू वोटों की है. भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी इन का ध्रुवीकरण नहीं कर पा रही और यही उस की खीझ की असल वजह भी है कि अगर ममता बनर्जी 15-20 फीसदी हिंदू वोट भी ले गईं तो अब तक की सारी कवायद मिट्टी में मिल जाएगी.

ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ और ठाकुर वोट उसी तरह भाजपा अपनी झोली में गिरा मान रही है जिस तरह टीएमसी मुसलिम वोटों को. ये मुश्किल से 8-10 प्रतिशत है. लेकिन 17 फीसदी दलित वोट अब दोनों को बराबरी से मिल सकते हैं. इसी तर्ज पर ओबीसी वोट भी यदि बराबरी से दोनों को मिले तो बाजी फिर ममता मार ले जाएंगी, जो चिलचिलाती गरमी में भाजपा दिग्गजों से कहीं ज्यादा पसीना बहा रही हैं. मुसलिम वोट सीधेसीधे कोई 100 सीटों पर असर डालते हैं लेकिन सवर्ण वोट केवल 25-30 सीटों को ही सीधेतौर पर प्रभावित करते हैं. टीएमसी ने इस बार 42 मुसलिम और 79 दलित उम्मीदवारों पर दांव खेला है. इतना ही नहीं, रिकौर्ड 50 महिलाओं को भी उस ने मैदान में उतारा है. इस समीकरण को भांपते भाजपा ने मतुआ समुदाय पर 2 साल पहले ही नजरें गड़ा दी थीं जो दलितों की कुल आबादी का आधा हैं.

पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल आ कर बसा तकरीबन सवा करोड़ की आबादी वाला मतुआ समुदाय अभी तक ममता बनर्जी को समर्थन और वोट देता आया था जिस की बड़ी वजह मतुआ माता कही जाने वाली बीनापाणि देवी हैं जिन्होंने साल 2011 में टीएमसी को सत्ता दिलाने में अहम रोल निभाया था. इस से एक साल पहले ममता को मतुआ समुदाय का संरक्षक बनाया गया था. बात तब बिगड़ी जब 2019 के लोकसभा चुनावप्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समुदाय के मठ में जा कर बोरो मां के आगे अपना माथा टेका था. मार्च 2019 में बीनापाणि की मौत के बाद उन के छोटे बेटे मंजुलकृष्ण ठाकुर ने भाजपा का दामन थाम लिया था जिस के टिकट पर उन का बेटा शांतनु ठाकुर बनगांव सीट से चुन कर दिल्ली पहुंचा.

राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते देखते ही देखते मतुआ समुदाय दोफाड़ हो गया.
दरअसल, खुद को वैष्णव हिंदू मानने वाला मतुआ समुदाय एक अजीब से द्वंद्व से भाजपा और टीएमसी के बीच पिस रहा है. भाजपा की मनुवादी मानसिकता से वह वाकिफ है कि यह पार्टी उन्हें भी नागरिकता का दाना डालते ऊंचनीच व भेदभाव के मकड़जाल में फंसा रही है लेकिन इस समुदाय के अधिकतर लोगों के सामने नागरिकता का संकट मुंहबाए खड़ा है जिसे दूर करने भाजपा का सीएए-एनआरसी का यह प्रावधान उसे लुभा रहा है कि मुसलिमों को छोड़ कर बाकियों को नागरिकता दी जाएगी.
दरअसल भाजपा यह कानून ही इस समुदाय को अपने पाले में करने को लाई थी. तमाम छोटेबड़े भाजपा नेता आएदिन इस बात का जिक्र भी किया करते हैं. तय है कि मतुआ समुदाय के वोट 2 हिस्सों में बंटने जा रहे हैं जिस का थोड़ा नुकसान टीएमसी को होगा.

मुसलिम वोट बंटने की चर्चा भी पश्चिम बंगाल में है लेकिन उस से भाजपा को कोई खास फायदा होता नहीं दिख रहा. बिहार में उलटफेर करने यानी भाजपा को फायदा पहुंचाने के बाद एआईएमआईएम के मुखिया असद्दुदीन ओवैसी के बंगाल चुनाव में कूदने से भी समीकरण गड़बड़ाते दिखे थे लेकिन औवैसी ने यहां से कदम धीरेधीरे वापस खींचने शुरू कर दिए हैं.शायद उन्हें समझ आ रहा है कि बंगाल का मुसलमान उन्हें बिहार जैसा भाव नहीं देगा क्योंकि ममता को ही चुनना उस की मजबूरी हो गई है और उन की पार्टी कोई गुल नहीं खिला पाएगी. उलटे, उस पर वोट कटवा होने का ठप्पा लग कर रह जाएगा. वैसे भी एआईएमआईएम का बंगाल में कोई वजूद व मजबूती तो दूर की बात है, कहने को भी संगठन नहीं है. ऐसे में वह कुछ खास कर पाएगी, ऐसा लग नहीं रहा.

ओवैसी की बेरुखी की एक बड़ी वजह एक नवजात मुसलिम नेता फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी भी हैं जिन की आईएसएफ यानी इंडियन सैक्युलर फ्रंट, कांग्रेस और लेफ्ट के साथ मिल कर चुनाव लड़ रही है.यह गठबंधन भी बेअसर अभी से दिख रहा है क्योंकि राम की आमद के साथ ही वाम विदा हो गया है और कांग्रेस बेमन से मैदान में है. मुमकिन है यह उस की भाजपा को पटखनी देने की रणनीति का हिस्सा हो कि ममता और मोदी को सीधे टकराने दिया जाए. इस के बाद भी वह त्रिकोणीय मुकाबले में दहाई अंकों में सीटें ले जाने की स्थिति में है. इस तीसरे मोरचे में सीटों के बंटवारे में कांग्रेस को 92, सीपीएम को 130 और आईएसएफ को 37 सीटें मिली हैं.

इस के बाद भी मुकाबला कड़ा और दिलचस्प है, क्योंकि किसान नेता राकेश टिकैत किसानों से भाजपा को वोट न देने की अपील कर रहे हैं और झारखंड मुक्ति मोरचा में भी टीएमसी को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है. भाजपा का होहल्ला शहरों और सवर्णों में ही ज्यादा है जबकि टीएमसी की पहुंच गांवदेहातों तक है.
49 फीसदी महिला मतदाताओं का झुकाव भी ममता की तरफ ज्यादा है क्योंकि गरीब परिवार की ममता बनर्जी ने उन के लिए काम भी खूब किए हैं. लड़कियों की शिक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए उन की योजनाएं काफी सफल रहीं हैं जिन में ‘कन्याश्री’ और ‘सौबुज साथी’ प्रमुख हैं जिन के तहत 9वीं से ले कर 12वीं क्लास तक के छात्रछात्राओं को मुफ्त साइकिलें दी गई हैं. इन युवाओं और महिलाओं को ‘सोनार बांग्ला’ के तात्कालिक नारे व हिंदू राष्ट्र से कोई लेनादेना नहीं है. अब यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि जनता किसे चुनती है- राम को जो सिर्फ ऊंची जाति वालों के लिए हैं या नए तरीके से आकार लेते वाम को जिस में सभी के लिए बराबरी, जगह और सम्मान है.

बात या मुद्दा सिर्फ राम न रहे, इस बाबत नरेंद्र मोदी यदाकदा बंगाल में भी परिवर्तन और विकास की गंगा बहाने की भी बात कर देते हैं लेकिन यह नहीं बता पाते कि भाजपा शासित राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड में कौन सा स्वर्ग भाजपा ने बसा दिया है. ममता बनर्जी के इस आरोप पर भी भाजपा बगलें झांकती नजर आती है कि इन राज्यों में तो कानून व्यवस्था बद से बदतर है. ममता का यह जवाबी हमला भी भाजपा को सकते में डाल देता है कि परिवर्तन अब बंगाल में नहीं, बल्कि दिल्ली में होगा.

पश्चिम बंगाल में भी फिल्मी सितारों की चुनावी पूछपरख जम कर हो रही है. भाजपा ने 80-90 के दशक के सुपरस्टार मिथुन चक्रवर्ती को ले कर वोटरों को रिझाने की कोशिश की है जिन्हें ममता बनर्जी ने 2016 में टीएमसी से राज्यसभा में भेजा था लेकिन शारदा चिटफंड घोटाले में नाम आने पर खराब सेहत का हवाला देते उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. भाजपा में जाते ही जोशजोश में फिल्मी अंदाज में डायलौग बोलते खुद को उन्होंने कोबरा सांप बता डाला जिस पर किसी ने कोई नोटिस नहीं लिया यानी अब वोट स्टारडम पर नहीं, बल्कि जमीनी कामों पर गिरना तय है.

मिथुन अब बूढ़े भी हो चले हैं और बंगाल की नई पीढ़ी उन्हें आदर्श नहीं मानती है. अपने कैरियर की शुरुआत में मिथुन पर नक्सली और वामपंथी होने का आरोप लगा था पर वे अब राम नाम भजने लगे हैं. जाहिर है यह सब चुनाव तक है. इस की एक मिसाल अभिनेत्री मौसमी चटर्जी हैं जिन्हें बड़े जोरशोर से भाजपा ने जनवरी 2019 में गले लगाया था लेकिन इस चुनाव में उन्हें भाव नहीं दे रही. ये वही मौसमी हैं जो साल 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट से लड़ कर ममता बनर्जी से हारी थीं. क्रिकेटर सौरभ गांगुली पर भी भाजपा ने डोरे अमित शाह के जरिए डाले थे लेकिन दादा नाम से मशहूर सौरभ दीदी के सामने आने से कतरा रहे हैं जो भाजपा के जीत के दावों पर शक गहराते हैं.

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तमिलनाडु

पश्चिम बंगाल के मुकाबले तमिलनाडु में राहत देने वाली इकलौती बात धार्मिक होहल्ले का न होना है. लेकिन हमेशा की तरह जातिगत समीकरण हावी हैं. यहां सीधा मुकाबला सत्तारूढ़ एआईएडीएमके और डीएमके के बीच है. दोनों राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस गठबंधन के तहत क्रमश 20 और 25 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. जाहिर है उन की कोई खास पहुंच और पूछपरख तमिलनाडु में नहीं है. 5 दिसंबर, 2016 को जयललिता की मौत के बाद से ही एआईएडीएमके तमाम दुश्वारियों से लगातार जूझ रही है और राज्य में सत्ताविरोधी लहर भी है. मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए हैं. पार्टी के अंदर जबरदस्त अंतर्कलह भी है.

डीएमके मुखिया एम के स्टालिन अपने पिता करुणानिधि की विरासत तले मैदान में हैं. सत्ता वापसी को ले कर छटपटा रहे स्टालिन का आत्मविश्वास इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने कांग्रेस को 2016 से कम सीटें अपनी शर्तों पर दीं जिन्हें स्वीकारना कांग्रेस की मजबूरी हो गई थी.
जयललिता और करुणानिधि दोनों की गैरमौजूदगी में यह पहला विधानसभा चुनाव है जिसे फिल्म अभिनेता कमल हासन अपनी नईनवेली पार्टी एमएनएम (मक्कल निधि मलयम) के जरिए त्रिकोणीय बनाने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं. एक और अभिनेता रजनीकांत ने भी पार्टी बना कर राजनीति में कूदने की बात कही थी लेकिन खराब सेहत का हवाला देते उन्होंने अपना इरादा त्याग दिया जिस का फायदा कमल हासन को मिल सकता है.

कमल हासन मूलरूप से भाजपा और उस की नीतियोंरीतियों के घोर विरोधी हैं और उन का सारा फोकस गरीब दलितों पर है. नए महंगे संसद भवन को ले कर उन्होंने मोदी सरकार पर यह कहते निशाना साधा था कि ‘जब देश के आधे लोग भूखे सोते हैं तो इतने खर्चीले संसद भवन की तुक क्या थी?’ अभी तक उन की इमेज साफसुथरी है और उन्हें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का भी साथ मिला हुआ है. तय है केजरीवाल एमएनएम के लिए चुनावप्रचार करने जाएंगे.

लेकिन मुख्य मुकाबला एआईएडीएमके और डीएमके के बीच ही है. 2016 के विधानसभा चुनाव में जयललिता के नेतृत्व में एआईएडीएमके ने 136 सीटें जीती थीं तब डीएमके को 89 सीटें मिली थीं.
कांग्रेस गठबंधन के तहत 40 सीटों पर मैदान में थी जिसे 8 पर जीत मिली थी लेकिन पूरी 234 सीटों पर लड़ी भाजपा को यहां कुछ भी नहीं मिला था. इस के पहले 2014 का लोकसभा का चुनाव उस ने एआईएडीएमके के साथ मिल कर लड़ा था और एक सीट जीत ली थी. इस चुनाव में एआईएडीएमके ने जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 37 लोकसभा सीटें जीत कर डीएमके और कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था. ये दोनों पार्टियां एक भी सीट नहीं जीत पाई थीं.

लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में हैरतअंगेज तरीके से तसवीर उलट गई थी. एआईएडीएमके को महज एक सीट नसीब हुई थी और 5 सीटों पर लड़ी भाजपा सब से ज्यादा दुर्गति की शिकार हुई थी. डीएमके को 24 सीटें और उस की सहयोगी कांग्रेस को 8 सीटें मिली थीं. वामदल भी सभी को चौंकाते हुए
4 सीटें ले गए थे. यहां के लोग धर्म की राजीनीति के झांसे में नहीं आते. लेकिन जातियों का मकड़जाल यहां कम पेचीदा नहीं. कहा और माना यह जाता है कि 10 फीसदी आबादी वाला अति पिछड़ा वन्नियार समुदाय जिस तरफ झुक जाता है उस पार्टी को सत्ता मिल जाती है. वन्नियार समुदाय का कोई 25 सीटों पर सीधा प्रभाव है जिसे भुनाने के लिए एआईएडीएमके सरकार शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 10.5 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर चुकी है. एस रामदास इस समुदाय के प्रमुख नेता हैं जिन की पार्टी पीएमके, एआईएडीएमके के साथ गठबंधन कर चुकी है और उसे 23 सीटें मिली हैं. एआईएडीएमके के कम होते प्रभाव, भाजपा का साथ और हार की आशंका के चलते वन्नियार समुदाय एकमुश्त वोट उसे देगा, इस में हर किसी को शक है.

कभी जयललिता का राइट हैंड रहीं शशिकला भी इसी समुदाय से हैं जो भ्रष्टाचार के एक मामले में 4 वर्षों बाद जेल से रिहा हो कर आईं तो उन के तेवर बदले हुए थे और उन्होंने सक्रिय राजनीति में आने के संकेत भी दिए थे लेकिन फिर एकाएक ही राजनीति से संन्यास की घोषणा कर सब को चौंका दिया. अब अंदाजा यह लगाया जा रहा है कि वे पलानीस्वामी को सत्ता में आने से रोकेंगी और आगे के लिए अपनी भूमिका तय करेंगी. वे भी भाजपा के साथ तोड़फोड़ में पौराणिक कहानियों के किस्सों के देवताओं से सीखसीख कर माहिर हो चुकी हैं. दूसरा असरदार समुदाय गौंडर भी एआईएडीएमके से किनारा करता नजर आ रहा है जो पश्चिमी तमिलनाडु की 74 में से 54 सीटों पर निर्णायक है. पलानीस्वामी जयललिता के बाद इस समुदाय को साध कर रखने में नाकाम रहे हैं जिस का फायदा डीएमके को मिलना तय दिख रहा है. महंगाई तमिलनाडु का मुख्य चुनावी मुद्दा हो सकता है जिस की जिम्मेदार जनता मोदी सरकार को मानती है. इस से भी एआईएडीएमके को नुकसान हो रहा है. एआईएडीएमके व भाजपा को तगड़ा झटका अभिनेता विजयकांत ने भी दिया है जो अपनी पार्टी डीएमडीके को सम्मानजनक सीटें न मिलने पर एआईएडीएमके से अलग हो गए हैं.

भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा और दिलचस्प मुकाबला कन्याकुमारी लोकसभा सीट के उपचुनाव में है जो कांग्रेस के एच वसंत कुमार के निधन से खाली हुई है. भाजपा ने यहां से पूर्व केंद्रीय मंत्री पौन राधाकृष्णन को उतारा है जो 2019 में वसंत कुमार के हाथों 3 लाख से भी ज्यादा वोटों से हारे थे. इस बड़े अंतर को पाटना भाजपा के लिए आसान नहीं है.

केरल
देश के दक्षिणी छोर पर बसे केरल में इस बार भी सीधा मुकाबला यूडीएफ (यूनाइटेड डैमोक्रेटिक फ्रंट) और एलडीएफ (लैफ्ट डैमोक्रेटिक फ्रंट) के बीच है. यहां की राजनीति राष्ट्रीय राजनीति से भिन्न रहती है. वामपंथियों के इस गढ़ में भाजपा हाशिए पर शुरू से ही रही है क्योंकि ईसाई और मुसलिम बाहुल्य केरल में भी सनातनी हिंदुओं की संख्या न के बराबर है. केरल के बारे में दिलचस्प बात यह है कि यहां वोटर हर चुनाव में सरकार बदल देते हैं. यह ट्रैंड बरकरार रहा तो एलडीएफ की विदाई हो सकती है.

साल 2016 के विधानसभा चुनाव में एलडीएफ ने 91 सीटें ले जा कर यूडीएफ को पटखनी देते सत्ता हथिया ली थी. तब सीपीआईएम को 59 सीटें और सीपीआई को 16 सीटें मिली थीं. यूडीएफ को 47 सीटें मिली थीं. उस के प्रमुख घटक दल कांग्रेस ने 22 सीटें जीती थीं और इंडियन मुसलिम लीग को 18 सीटें मिली थीं. केरल कांग्रेस 6 सीटें ले गई थी. भाजपा का प्रदर्शन बेहद दयनीय था जो 98 सीटों पर लड़ कर महज एक सीट ले जा पाई थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में तसवीर पूरी तरह उलट गई थी. यूडीएफ को 20 में से 19 सीटें दे कर वोटर ने मोदी लहर को नकार दिया था. कांग्रेस ने 15 सीटें जीती थीं और उसे 96 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी. राहुल गांधी के वायनाड सीट से लड़ने का जबरदस्त फायदा कांग्रेस को मिला था. इंडियन मुसलिम लीग को 2 सीटें मिली थीं और वह 14 विधानसभा क्षेत्रों में आगे रही थी. एलडीएफ के खाते में महज एक सीट आई थी. भाजपा खाता भी नहीं खोल पाई थी.

खुद को नास्तिक कहने वाले मुख्यमंत्री पी विजयन इस बार फूंकफूंक कर कदम रख रहे हैं. अपनी पार्टी के कमजोर प्रदर्शन वाले 33 विधायकों के टिकट काट कर उन्होंने जनता को लुभाने की कोशिश जरूर की है लेकिन इस से सत्ताविरोधी लहर थम जाएगी, इस में शक है. अलावा इस के, सोने की तस्करी के चर्चित मामले में भी वे घिरते नजर आ रहे हैं. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह इस मामले पर उन पर हमलावर हुए तो झल्लाए विजयन ने भी पलटवार करते उन्हें सोहराबुद्दीन मामले पर घेरा और सांप्रदायिकता का मूर्तरूप करार दे दिया.

भाजपा मैट्रोमैन श्रीधरन को बतौर मुख्यमंत्री पेश करेगी या नहीं, यह सवाल अभी अधर में ही है लेकिन यह तय है कि इस से भी उसे कोई खास फायदा नहीं होने वाला क्योंकि केरल की जनता उन के भगवा रंगढंग को गले नहीं उतार पा रही है. दूसरे, श्रीधरन जानामाना नाम तो है लेकिन इतना लोकप्रिय नहीं है कि भाजपा की चुनावी नैया पार लगा पाए.आरएसएस और भाजपा पिछले 2 दशकों से धर्मांतरण को मुद्दा बनाने की कोशिश में यह प्रचार करते रहे हैं कि कभी यहां 99 फीसदी हिंदू हुआ करते थे जो अब घट कर 55 फीसदी रह गए हैं और मुसलिम व ईसाई आबादी बढ़ कर 45 फीसदी हो गई है. 99 फीसदी शिक्षित और जागरूक केरल के मतदाताओं ने कभी भाजपा की जातिगत व धार्मिक विभाजनकारी मानसिकता से सहमति नहीं जताई है.

कांग्रेस यहां भारी पड़ती दिख रही है. एलडीएफ और भाजपा की लड़ाई का फायदा भी उसे मिलेगा क्योंकि इन दोनों के हिस्से के वोट उसे मिलने की उम्मीद है. मछुआरों की हिमायत कर राहुल गांधी चुनाव के पहले ही उन्हें यूडीएफ की तरफ झुका चुके हैं. यूडीएफ के सहयोगी दल इंडियन मुसलिम लीग और केरल कांग्रेस अपनी सीटों पर मजबूत स्थिति में हैं जबकि सीपीआईएम सहित एलडीएफ के घटक दल खासतौर से सीपीआई कमजोर हो रही है.

असम
असम में भाजपा आशान्वित है हालांकि असम में सबकुछ भाजपा के हक में नहीं है लेकिन काफी हद तक बहुतकुछ उस के हक में है. लेकिन अगर सीएए कानून पर रार बढ़ी तो मुश्किलें उस के सामने मुंहबाए खड़ी होंगी. इसीलिए वह इस से कतराते विकास व अब तक किए गए कामकाज पर वोट मांग रही है. यहां भी उस ने मुख्यमंत्री का चेहरा पेश न करते नरेंद्र मोदी के सहारे लड़ना बेहतर समझा है. असम में भाजपा अंदरूनी कलह व फूट की शिकार भी दिखाई दे रही है.

यहां सीधा मुकाबला भाजपा की अगुआई वाले गठबंधन और कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन के बीच है. भाजपा के साथ असम गण परिषद और यूनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल हैं तो कांग्रेस के साथ बोड़ोलैंड पीपल्स फ्रंट, आंचलिक गण मोर्चा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और सीपीआईएम सहित आल इंडिया डैमोक्रेटिक फ्रंट हैं.

2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 60 सीटें ले गई थी और एजीपी को 14 सीटें मिली थीं. बोड़ोलैंड पीपल्स फ्रंट को 12 सीटें मिली थीं. कांग्रेस हालांकि 26 सीटों पर सिमट कर रह गई थी लेकिन उसे वोट भाजपा से ज्यादा 30.96 फीसदी मिले थे. औल इंडिया यूनाइटेड डैमोक्रेटिक फ्रंट को
13 सीटें मिली थीं.

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 14 में से 9 सीटें जीती थी और कांग्रेस के खाते में 3 सीटें आई थीं. 2 सीटें अन्य के खाते में गई थीं. असम में भाजपा और कांग्रेस के वोट शेयर में बड़ा फर्क नहीं रहता. लेकिन सीटों की संख्या के मामले में कांग्रेस पिछड़ जाती है. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ 6 सीटें ले गई थी जबकि भाजपा को 7 सीटें मिली थीं.

भाजपा ने मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल को बतौर सीएम आगे नहीं किया है तो यह उस की रणनीति कम मजबूरी ज्यादा लग रही है. विपक्ष के पास भी कोई दमदार चेहरा नहीं है. अगर सोनोवाल नहीं, तो मुख्यमंत्री कौन, इस सवाल पर भाजपा की खामोशी उसे महंगी भी पड़ सकती है. सीएए का विरोध कर रहे 2 छोटे दल असम जातीय परिषद और रायजोर दल कुछ सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय बना सकते हैं जो भाजपा के लिए ही नुकसानदेह साबित होगा. कांग्रेस भी इस कानून के विरोध में है लेकिन इस मुद्दे पर सभी दलों को एक मंच पर वह नहीं ला पाई है.

पुदुचेरी
देश की सब से छोटी विधानसभा पुदुचेरी में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के 4 विधायकों के इस्तीफे से सरकार अल्पमत में आ गई तो वहां राष्ट्रपति शासन लग गया. इन में से 2 विधायक भाजपा में चले गए थे. कांग्रेस अब यहां डैमेंज कंट्रोल में जुटी है. साल 2016 का चुनाव कांग्रेस और डीएमके ने मिल कर लड़ा था. कांग्रेस 21 सीटों पर लड़ कर 15 और डीएमके 9 सीटों पर लड़ कर 2 सीटें ले गई थी. मुख्य विपक्षी दल औल इंडिया एनआर कांग्रेस 8 सीटें ले गई थी. भाजपा की दाल पुदुचेरी में भी नहीं गली थी और वह सभी 30 सीटों पर लड़ कर अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी. कांग्रेस ने अपने दिग्गज नेता नारायण सामी, जिन्हें नरेंद्र मोदी सोनिया गांधी की चप्पलें उठाने वाला कहते ताना कसते रहते हैं, को मुख्यमंत्री बनाया था.

गठबंधन के तहत कांग्रेस इस बार 15 और डीएमके 13 सीटों पर लड़ रही हैं. 1-1 सीट वीसीके और सीपीआई को दी गई है. इस बार भी इस गठबंधन का मुकाबला औल इंडिया एनआर कांग्रेस से ही है. कांग्रेस गठबंधन के सामने कोई खास चुनौती नहीं है क्योंकि एआईएडीएमके पिछली बार सभी सीटों पर लड़ी थी लेकिन केवल 4 सीटें जीत पाई थीं.

पुदुचेरी में भी राष्ट्रीय मुद्दे हाशिए पर रहते हैं और विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार का व्यक्तित्व ज्यादा प्रभावी होता है. नारायण सामी सरकार के प्रति कोई नाराजगी यहां देखने में नहीं आ रही है.

2019 के लोकसभा चुनाव में यहां की इकलौती लोकसभा सीट कांग्रेस के वी वैथिलिंगम ने औल इंडिया एनआर कांग्रेस के डाक्टर केशवन को 2 लाख वोटों से हरा कर जीती थी. भारी मतदान पुदुचेरी की खूबी है. इस बार भी मतदान ज्यादा होने की उम्मीद से कांग्रेस व डीएमके की बांछें खिली हुई हैं. भाजपा यहां खाता खोल पाई तो यह उस के लिए उपलब्धि की बात होगी.

महंगाई अगर इन 5 राज्यों में मुद्दा बन पाया तो भाजपा और उस के सहयोगी दलों के पसीने छूट जाने हैं, क्योंकि केंद्र की भाजपा सरकार ने ऐसे कोई काम नहीं किए हैं जिन्हें गिना कर वह वोट में तब्दील कर सके. इसीलिए भाजपा की पूरी कोशिश इस पर से लोगों का ध्यान भटकाने की है. पश्चिम बंगाल में वह धार्मिक हल्ला मचा रही है तो असम में विकास का राग अलाप रही है. बाकी 3 राज्यों में उस के होने के कोई माने नहीं हैं. द्य

इन का कहना है
‘‘सरकार तो दीदी ही बनाएंगी. उन्होंने बंगाल को संवारने के लिए बहुत व बेहतरीन संघर्ष किया है और अभी कर भी रही हैं. यही नहीं, दीदी आगे भी ऐसा ही करेंगी. बंगाल को क्या चाहिए, यह बाहर का नेता नहीं जान सकता. वह नहीं समझ सकता बंगाल को. हम ममता बनर्जी को एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनना देखना चाहते हैं. हमारा पूरा परिवार तृणमूल कांग्रेस को ही वोट देगा.’’ -सैमुअल रौय (हुगली)

‘‘भाजपा का बहुत हल्ला है लेकिन इस हल्ले का यह मतलब नहीं है कि बंगाल में भाजपा की सरकार बन रही है. ममता बहुत स्ट्रौंग हैं, यहां. सरकार फिर वही बनाएंगी. ममता और मोदी के बीच मुकाबला जरूर है लेकिन जीतेंगी ममता ही.’’ -नीलाद्रीशेखर दास

‘‘तुम को अच्छा लगे या बुरा, मगर ममता हम को नहीं चाहिए. उन्होंने हमारे लिए कुछ नहीं किया. इस बार हम ममता को वोट नहीं देंगे, मोदी को देंगे. बेटा बोला है मोदी को ही वोट देने का. ममता बनर्जी ने हमारे नाम पर घर बनवाया मगर हम को घर नहीं दिया. ममता के लोग बोलते हैं कि 35 हजार रुपया लाओ तब घर मिलेगा. हम विधवा औरत कहां से इतना पैसा लाएंगी?’ –माया मंडल

‘‘हमें ‘जय श्रीराम’ से दिक्कत नहीं है लेकिन हमें क्या बोलना है, क्या नहीं, यह हम तय करेंगे, कोई दूसरा हम पर कुछ थोप नहीं सकता. हम अपने धर्म को कैसे फौलो करेंगे, यह हमारा निजी मामला है. हमें भाजपा का स्लोगन नहीं बोलना है, हम अपना स्लोगन बोलेंगे.’’ –महुआ मोइत्रा (सांसद)

‘‘पश्चिम बंगाल एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला राज्य है. मैं इस देश के युवा होने के रूप में अधिक उद्योगों, अपनी पीढ़ी के लिए अधिक रोजगार देखना चाहती हूं और जो भी सत्ता में आना चाहता है, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा होगा.’’ –परोमा भट्टाचार्य

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