दूसरे दिन जयंति सुबह से बेटी की फरमाइश पूरी करने में लग गई. घर भी ठीक कर दिया. बेटी ने बाकी घर पर ध्यान भी नहीं दिया. सिर्फ अपना कमरा ठीक किया. ठीक 11 बजे घंटी बजी. दरवाजा खोला तो जयंति गिरतेगिरते बची. आगंतुकों में 4 लड़के थे और 3 लड़कियां. जिन लड़कों को वह थोड़ी देर भी नहीं पचा पाती थी, उन्हें उस दिन उस ने पूरा दिन झेला और वह भी बेटी के कमरे में. आठों बच्चों ने वहीं खायापिया, वहीं हंगामा किया और खापी कर बरतन बाहर खिसका दिए. जयंति थक कर पस्त हो गई.
बेटी फोन पर जब खिलखिला कर चमकती आंखों से लंबीलंबी बातें करती तो जयंति का दिल करता उस के हाथ से फोन छीन कर जमीन पर पटक दे. फोन से तो उसे सख्त नफरत हो गई थी. मोबाइल फोन के आविष्कारक मार्टिन कूपर को तो वह सपने में न जाने कितनी बार गोली मार चुकी थी. सारे झगड़े की जड़ है यह मोबाइल फोन.
बेटी कभी अपने दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाती तो कभी लौंगड्राइव पर. हां, इन मस्तियों के साथ एक बात जो उन सभी युवाओं में वह स्पष्ट रूप से देखती, वह थी अपने भविष्य के प्रति सजगता. लड़के तो थे ही, पर लड़कियां उन से अधिक थीं. अपना कैरियर बनाने के लिए उन्मुख उन लड़कियों के सामने उन की मंजिल स्पष्ट थी और वे उस के लिए प्रयासरत थीं. घरगृहस्थी के काम, विवाह आदि के बारे में तो वे बात भी न करतीं, न उन्हें कोई दिलचस्पी थी.
जयंति जब इन युवा लड़कियों की तुलना अपने समय की लड़कियों से करती तो पसोपेश में पड़ जाती. उस का जमाना भी तो कोई बहुत अधिक पुराना नहीं था पर कितना बदल गया है. लड़कियों की जिंदगी का उद्देश्य ही बदल गया. कभी लगता उस का खुद का जमाना ठीक था, कभी लगता इन का जमाना अधिक सही है. लड़केलड़कियों की सहज दोस्ती के कारण इस उम्र में आए स्वाभाविक संवेगआवेग इसी उम्र में खत्म हो जाते हैं और बच्चे उन की पीढ़ी की अपेक्षा अधिक प्रैक्टिकल हो जाते हैं.
पर फिर दिमागधारा दूसरी तरफ मुड़ जाती और वह शोभा व रक्षा के सामने अपनी बेटी को ले कर अपना रोना रोती रहती, उस के भविष्य को ले कर निराधार काल्पनिक आशंकाएं जताती रहती.
उधर, रक्षा की बहू भी तो कोई पुरानी फिल्मों की नायिका न थी. आखिर जयंति की बेटी जैसी ही एक लड़की रक्षा की बहू बन कर घर आ गई थी. अभी एक ही साल हुआ था विवाह हुए, इसलिए गृहस्थी के कार्य में वह बिलकुल अनगढ़ थी. हां, बेटाबहू दोनों एकदूसरे के प्यार में डूबे रहते. सुबह देर से उठते. बेटा भागदौड़ कर तैयार होता, मां का बनाया नाश्ता करता और औफिस की तरफ दौड़ लगा देता. थोड़ी देर बाद बहू भी चेहरे पर मीठी मुसकान लिए तैयार हो कर बाहर आती और रक्षा उसे भी नाश्ते की प्लेट पकड़ा देती. बहू के चेहरे पर दूरदूर तक कोई अपराधबोध न होता कि उसे थोड़ा जल्दी उठ कर काम में सास का हाथ बंटाना चाहिए था. इतना तो उस के दिमाग में भी न आता.
रक्षा सोचती, ‘‘चलो सुबह न सही, अब लंच और डिनर में बहू कुछ मदद कर देगी. पर नाश्ते के बाद बहू आराम से लैपटौप सामने खींचती और डाइनिंग टेबल पर बैठ कर नैट पर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने में व्यस्त हो जाती. वह अपनी लगीलगाई नौकरी छोड़ कर आई थी, इसलिए अब यहां पर नौकरी ढूंढ़ रही थी.
पायल छनकाती बहू का ख्वाब देखने वाली रक्षा का वह सपना तो ढेर हो चुका था. बहू के वैस्टर्न कपड़े पचाने बहुत भारी पड़ते थे. शुरूशुरू में आसपड़ोस की चिंता रहती थी, पर किसी ने कुछ न कहा. सभी अधेड़ तो इस दौर से गुजर रहे थे. वे इस नई पीढ़ी को अपनी पुरानी नजरों से देखपरख रहे थे. बेटा शाम को औफिस से आता तो रक्षा सोचती कि बहू उन के लिए न सही, अपने पति के लिए ही चाय बना दे. पर बेटा जो कमरे में घुसता, तो गायब हो जाता. कभी दोनों तैयार हो कर बाहर आते, ‘मम्मी, हम बाहर जा रहे हैं. खाना खा कर आएंगे.’ उस के उत्तर का इंतजार किए बिना वे निकल जाते और रक्षा इतनी देर से मेहनत कर बनाए खाने को घूरती रह जाती, ‘पहले नहीं बता सकते थे.’’
बेटे के विवाह के बाद उस का काम बहुत बढ़ गया था. आई तो एक बहू ही थी पर उस के साथ एक नया रिश्ता आया था, रिश्तेदार आए थे. जिन को सहेजने में उस की ऐसी की तैसी हो जाती थी. बेटेबहू के अनियमित व अचानक बने प्रोग्रामों की वजह से उस की खुद की दिनचर्या अनियमित हो रही थी. अच्छी मां व सास बनने के चक्कर में वह पिस रही थी. बच्चों की हमेशा बेसिरपैर की दिनचर्या देख कर उस ने बच्चों को घर की एक चाबी ही पकड़ा दी कि वे जब भी कहीं जाएं तो चाबी साथ ले कर जाएं. क्योंकि उन की वजह से वे दोनों कहीं नहीं जा पाते. रसोई में मदद के लिए एक कामवाली का इंतजाम किया. तब जा कर थोड़ी समस्या सुल झी. अब बहू को नौकरी मिल गई थी. सो, वह भी बेटे के साथ घर से निकल जाती और उस से थोड़ी देर पहले ही घर आती व सीधे अपने कमरे में घुस कर आराम करती.
रक्षा सोचती, ‘मजे हैं आजकल की लड़कियों के. शादी से पहले भी अपनी मरजी की जिंदगी जीती हैं और बाद में भी. एक उस की पीढ़ी थी, पहले मांबाप का डर, बाद में सासससुर और पति का डर और अब बेटेबहू का डर. आखिर अपनी जिंदगी कब जी हमारी पीढ़ी ने?’ रक्षा की सोच भी जयंति की तरह नईपुरानी पीढ़ी के बीच झूलती रहती. कभी अपनी पीढ़ी सही लगती, कभी आज की.
उन की खुद की पीढ़ी ने तो विवाह से पहले मातापिता की भी मौका पड़ने पर जरूरत पूरी की. संस्कारी बहू रही तो ससुराल में सासससुर के अलावा बाकी परिवार की भी साजसंभाल की और अब बहूबेटों के लिए भी कर रहे हैं. कल इन के बच्चे भी पालने पड़ेंगे.
शिक्षित रक्षा सोचती, आखिर महिला सशक्तीकरण का युग इसी पीढ़ी के हिस्से आया है. पर उन की पीढ़ी की महिलाएं कब इस सशक्तीकरण का हिस्सा बनेंगी जिन पर पति नाम के जीव ने भी पूरा शासन किया, रुपए भी गिन कर दिए, जबकि, खुद ने अच्छाखासा कमा लाने लायक शिक्षा अर्जित की थी.