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जाति के बंधन को तोड़ जब ऋषभ ने अपनी पसंद मां शोभा के सामने रखी तो शोभा का दिल कई शंकाओं से भर गया. जाति से अलग लड़की से शादी की बात से वह कई पूर्वाग्रहों से घिर गई. पति सुकेश का ब्राह्मणवाद उस के आड़े आ गया और फिर...

‘‘यार तू बड़ी खुशनसीब है, तेरी बेटी है,’’ शोभा बोली, ‘‘बेटियां मातापिता का दुखदर्द हृदय से महसूस करती हैं.’’‘‘नहीं यार, मत पूछ, आजकल की बेटियों के हाल. वे हमारे समय की बेटियां होती थीं जो मातापिता, विशेषकर मां, का दुखदर्द शिद्दत से महसूस करती थीं. आजकल की बेटियां तो मातापिता का सिरदर्द बन कर बेटों से होड़ लेती प्रतीत होती हैं. तेरी बेटी नहीं है न, इसलिए कह रही है ऐसा,’’ एक बेटी की मां जयंति बोली, ‘‘बेटी से अच्छी आजकल बहू होती है. बेटी तो हर बात पर मुंहतोड़ जवाब देती है, पर बहू दिल ही दिल में भले ही बड़बड़ाए, पर सामने फिर भी लिहाज करती है, कहना सुन लेती है.’’

‘‘आजकल की बहुओं से लिहाज की उम्मीद करना... तौबातौबा. मुंह से कुछ नहीं बोलेंगी, पर हावभाव व आंखों से बहुतकुछ जता देंगी, रक्षा ने जयंति का प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘‘जिन बेटियों का तू अभीअभी गुणगान कर रही थी, आखिर वही तो बहुएं बनती हैं, ऊपर से थोड़े ही न उतर आती हैं. ऐसा नाकों चने चबवाती हैं आजकल की बहुएं, बस, अंदर ही अंदर दिल मसोस कर रह जाओ. बेटे पर ज्यादा हक नहीं जता सकते, वरना बहू उसे ‘मां का लाड़ला’ कहने से नहीं चूकेगी.’’

शोभा दोनों की बातें मुसकराती हुई सुन रही थी. एक लंबा निश्वास छोड़ती हुई बोली, ‘‘अब मैं क्या जानूं कि बेटियां कैसी होती हैं और बहू कैसी. न मेरी बेटी, न बहू. पता नहीं मेरा नखरेबाज बेटा कब शादी के लिए हां बोलेगा, कब मैं लड़की खोजूंगी, कब शादी होगी और कब मेरी बहू होगी. अभी तो कोई सूरत नजर नहीं आती मेरे सास बनने की.’’

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